Tuesday, August 12, 2008

वज़न कम भोजन कार्यक्रम

मैंने वजन कम भोजन कार्यक्रम में निम्नलिखित काम किया है और यह चमत्कार है . मैं जोरदार ढंग से किसी जरूरतमंद वजन कम करने के इच्छुक व्‍यक्ति के लिए इस कार्यक्रम को शुरू करने की तत्काल अनुशंसा करता हूं. यह कार्यक्रम का सर्वश्रेष्ठ हिस्सा है जो कि करने योग्‍य है. --- बी एच जाजू
‘’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’
जनरल मोटर्स : वजन कम भोजन कार्यक्रम
निम्‍नलिखत वजन कम भोजन कार्यक्रम जनरल मोटर्स डाइट और स्वास्थ्य कार्यक्रम के कर्मचारियों और उनके आश्रितों के लिए वजन कम करने के उददेश्‍य से विकसित किया गया था जो अपने उद्देश्य के अनन्य रूप में प्रयोग में है . यह प्रोग्राम अमेरिका के कृषि और खाद्य विभाग एवं दवा प्रशासन के अनुदान से संचालित किया गया था. यह क्षेत्र परीक्षण पर जॉन्स हॉपकिन्स एवं अनुसंधान केन्द्र बोर्ड के लिए वितरण के निदेशक, जनरल मोटर्स कॉरपोरशन द्वारा सामान्य बैठक में एक 15 अगस्त 1985 को मंजूर किया गया है जनरल मोटर्स कॉर्प इस कार्यक्रम के पूर्ण समर्थक हैं और उन्‍होंने इसे सभी कर्मचारियों और उनके परिवारों के लिए उपलब्ध कराया है . इस कार्यक्रम में जनरल मोटर्स खाद्य सेवा की सभी सुविधाएं उपलब्ध होंगी. जनरल मोटर्स कॉर्प प्रबंधन ने जीवन को सुविधाजनक बनाने की द्रष्टि से स्वास्थ्‍य और फिटनेस के लिए यह कार्यक्रम सभी के लिए प्रस्‍तुत किया है।
यह प्रोग्राम एक सप्‍ताह में 10 से 17 पौंड वजन कम करने के लक्ष्‍य के लिए तैयार किया गया है। यह आपकी भावनाओं और दृष्टिकोण को बेहतर बनायेगा, क्‍योंकि यह हमारे तंत्र को व्‍यवस्थित करता है।
सात दिन के इस प्रोग्राम का प्रभाव यह है कि भोजन खाने और उसके पच जाने के पश्‍चात हमारे शरीर को काफी अधिक मात्रा में कैलोरी मिलती है जिससे हमारे शरीर को उर्जा (ताप) प्राप्त होती है।
इस प्रोग्राम को बिना किसी भय उलझन के आप अपना सकते हैं। यह आपके पाचन तंत्र को शुद्ध तथा साफ करने और आपको अच्‍छी सोच देने की द्रष्टि से डिजाइन किया गया है। सात दिन के बाद आप अच्‍छा और हल्‍का महसूस करेंगे, क्‍योंकि तब तक आप 10 पौंड वजन कम कर चुके होंगे। आप प्रचुर मात्रा में उर्जा प्राप्‍त कर चुके होंगे, और पाचन क्रिया को सुद्रण कर चुके होंगे।
पहले सात दिनों के दौरान आपको शराब आदि सभी तरह के पेय पदार्थों से अपने आपको बचाना है और प्रत्‍येक दिन 10 ग्‍लास पानी पीना है।
पहला दिन—
केले को छोडकर सभी फल। आपका पहला दिन जरूरत के मुताबिक फलों से शुरू होगा। यह जोर देकर आपको सलाह दी जाती है कि पहले दिन आप तरबूज अधिक मात्रा में लें। खासकर तरबूज और लूप। अगर आपके फलों में तरबूज की मात्रा अधिक रहेगी तो 3 पौंड तक वजन कम करने की संभावना है, आपका पहला दिन बहुत अच्‍छा है।
दूसरा दिन—
दूसरे दिन सभी सब्जियां। दूसरे दिन आपको सभी सब्जियों को अपने इच्‍छानुसार पकाकर और कच्‍ची खाने की सलाह दी जाती है, पर ज्‍यादा खाने से परहेज करें। इसके लिए किसी भी तरह की कोई सीमा तय नहीं है। अपनी संतुष्टि के लिए कार्बोहाइड्रेट वाले खाद्य पदार्थ के साथ भुने हुए बडे आलू से नाश्‍ते के साथ दिन की शुरूआत करें। आप आलू के साथ मक्‍खन की एक टिकिया ले सकते हैं।
तीसरा दिन—
तीसरा दिन इच्‍छानुसार मिक्‍स फलों तथा जूस का। केले के वगैर मिक्‍स फलों और जूस को आप किसी भी संख्‍या तथा मात्रा में ले सकते हैं। आज के दिन आलू भी नहीं लेना है।
चौथा दिन—
केले और दूध । आज के दिन खाने में आप बहुत से केले अर्थात कम से कम आठ केले और तीन गिलास दूध पीएं। जब इसका मिश्रित सूप लें तो उसे एक सीमित दायरे/मात्रा में ही लें।
पांचवां दिन—
आज का दिन मनोवांच्छित/दावत का दिन। आज के दिन की शुरूआत आप गोमांस और टमाटर से करेंगे। दो से दस तक छोटे गोमांस के टुकडे खाएं। पावरोटी, जिसके बीच में मांस के टुकडे भरे गये हों, भी ले सकते हैं। दस पूरे टमाटरों के साथ मिलाकर भी ले सकते हैं। पांचवें दिन आप पानी की मात्रा को बढाते हुए एक चौथाई गैलन पाली का सेवन करें। यह आपके सिस्‍टम (पाचनतंत्र) में बनने वाले यूरिक एसिड से तंत्र को मुक्‍त करेगा।
छठा दिन—
गोमांस और सब्जियां। आज के दिन आप इच्‍छाभर गोमांस और अपनी पसंद की सब्जियां खा सकते हैं। अपनी मन पसंद सामग्री खाएं।
सातवां दिन—
आज के भोजन में आप भूरे रंग के चावल, फलों का जूस और सभी सब्जियां, जितनी मात्रा में आप हजम कर सकते हैं, लेंगे।
अगले दिन सुबह आप 10 से 17 पौंड तक हल्‍के हो जाएंगे। एक सप्‍ताह पहले की तुलना में हल्‍का महसूस करेंगे। यदि आप और अधिक वजन घटाना चाहते हैं तो इस प्रोग्राम को दोबारा दोहरा सकते हैं। आप अपनी पसंद और इच्‍छानुसार इस प्रोग्राम को दोहरा सकते हैं लेकिन इस परिप्रेक्ष्‍य में यह सुझाव दिया जाता है कि इस बीच आप दो गिलास सफेद शराब ले सकते हैं, इससे ज्‍यादा नहीं। शैंपेन का विकल्‍प सफेद शराब हो सकती है। परिस्थितियों के त‍हत इसके अतिरिक्‍त किसी अन्‍य मादक पेय के तौर पर बीयर ले सकते हैं। इसके अतिरिक्‍त कोई भी शराब (बोरवोन, वोदका, रम) लेना निषिद्ध है। क्रीम युक्‍त पेय विशेष तौर पर निषिद्ध है। आप किसी खास सौहार्दपूर्ण उत्‍सव या अवसर पर कुछ नशीला पेय लेना उचित ही समझते हैं तो आप अपने आपको एक सीमा के अतंर्गत यानी कि केवल दो पेय (पैग) तक ही सीमित कर सकते हैं . ध्‍यान रहेः जिस दिन आप शराब पियें उस दिन केवल शराब ही पियें, और यदि बीयर पीते हैं तो केवल बीयर का ही सेवन करें इत्‍यादि . शराब भोजन में केवल कैलोरी को ही बढाती है. फिर भी, पहले सप्‍ताह के बाद यह आपके भोजन को पचाने में मददगार साबित होगी और पेट को व्‍यवस्थित रखेगी.
जी एम आशचर्यजनक सूप
नीचे दिया गया सूप आपके भोजन का पूरक आहार है. इसका दिन में किसी भी समय किसी भी मात्रा में सेवन किया जा सकता है . असीमित मात्रा में सूप की उतनी मात्रा जितनी कि सूप की अंतिम मात्रा को आप आसानी से हजम कर सकें .
सामग्री- 28 औंस जल, 6 बडे. प्‍याज, 2 हरी मिर्च, पूरा टमाटर (ताजा और डिब्‍बा बंद), 1 बंद गोभी, 1 बंच अजमोद, लिप्‍टन मिश्रित प्‍याज सूप तथा स्‍वाद और खुशबू के लिए आवश्‍यकतानुसार जडी बूटियां .
अतिरिक्त टिप्पणी
यदि आवश्‍यक लगे तो हरी सब्जियों को सलाद के रूप में ले सकते हैं . रस, उजला अथवा शराब का सिरका, निचुडा हुआ नीम्‍बू, लहसुन और साग के अतिरिक्‍त कोई सजावट नहीं . एक चाय चम्‍मच से अधिक तेल भी नहीं .
आपको वंडर सूप नाम से एक व्‍यंजन बनाने की विधि बताई जा रही है, जिसे असीमित मात्रा में लिया जा सकता है. जब आप किसी कार्यक्रम में हों तो यह सूप एक पूरक आहार हो सकता है और इसे पीना काफी आनंददायक हो सकता है. हर कोई पत्‍ता गोभी, हरी मिर्च, कैलोरी इत्‍यादि पसंद नहीं करता. यह व्‍यंजन अपरिवर्तनीय नहीं हैं. आप अपने स्‍वादानुसार वैकल्पिक सब्जियां ले सकते हैं. आप अपनी पसंद की सब्जियां शामिल कर सकते हैं. जैसे- शतावरी, भुटटा, शलगम, हरे सेम, फूलगोभी, टमाटर आदि. सेम से पीछा छुडाने की कोशशि करें . क्‍योंकि इनमें अत्‍यधिक कैलोरी होती है, अन्‍यथा ये आपके लिए बहुत अच्‍छे हो सकते हैं .
पेय पदार्थ जिन्‍हें आप कार्यक्रमों के दौरान पसंद करते हैं-
1 पानी (यदि जरूरी हो तो नीम्‍बू से सुगंधित)
2 क्‍लब सोडा भी ठीक है .
3 काली कॉफी . मलाई या इसका कोई विकल्‍प नहीं . चीनी अथवा कोई मिठास नहीं .
4 काली चाय – हरी या पत्‍ती
5 इनके अलावा कुछ भी नहीं, यहां तक कि फलों के रस भी नहीं, जो कि सातवें दिन का हिस्‍सा हैं . सातवें दिन से पहले कोई फ्रूट जूस नहीं .
यह कब और कैसे काम करता है-
पहले दिन-
आप अपनी व्‍यवस्‍था को आने वाले कार्यक्रम के लिए तैयार करते हैं . आपके पोषण का एकमात्र साधन हैं ताजा और डिब्‍बाबंद फल . फल प्रक़्रति के सम्‍पूर्ण आहार हैं . वे ऐसी हर संभव चीज देते हैं जो आप अपने जीवन निर्वाह के लिए चाहते हैं, सम्‍पूर्ण संतुलन और विविधता के अलावा .
दूसरे दिन- शुरूआत एक मिश्रित कारबोहाइड्रेट वाले तैलीय आहार से होगी . उर्जा और संतुलन के लिए इसे सुबह लिया जाएगा . दिन के बाकी वक्‍त में सब्जियों से निर्मित चीजें ली जाएंगी, जो पूर्णतः कैलोरी से मुक्‍त होंगी और अनिवार्य पोषण एवं शक्ति देंगी .
तीसरे दिन- आलू से मुक्‍त होगा, क्‍योंकि आप फलों से कार्बोहाइड्रेट प्राप्‍त करेंगे . आपका तंत्र अब अतिरिक्‍त वजन को गलाने के लिए तैयार . इस समय तक आपके अंदर लालसा बची होगी जो चौथे दिन से कम होती जाएंगी .
चौथा दिन- केले, दूध और हल्‍के सूप के कारण आश्‍चर्य से भरा और कम इच्‍छाओं वाला होगा . आप दंग रह जाएंगे . आप देखेंगे कि प्रायः जितने केले आपको दिए गए आप सारे नहीं खा सके . यह इसलिए कि विगत तीन दिनों में आपने पोटेशियम खो दिया और सोडियम कहीं पीछे छूट गया . आप नोट करेंगे कि आपकी मिठाई खाने की इच्‍छा कम हो गयी है . आप चकित रह जाएंगे कि कितनी आसानी से यह दिन गुजर गया .
पांचवां दिन- बीफ (गोमांस) और टमाटर . बीफ प्रोटीन और लौह के लिए, टमाटर पाचन एवं शक्ति हेतु . ज्‍यादा से ज्‍यादा पानी आपके तंत्र को साफ-स्‍वच्‍छ करेगा . आप देखेंगे कि आज आपका पेशाब रंगहीन है . बिल्‍कुल मत सोचें कि आप यह सारी बीफ खा लेंगे . हां आपको छह टमाटर अवश्‍य खाना चाहिए .
छठा दिन- पांचवें दिन जैसा है, बीफ से लौह और प्रोटीन, सब्जियों से विटामिन और शक्ति . इस तरह आपका तंत्र अब पूर्णत्तः वजन रहित होने के कगार पर है . अगर आप गौर से देखें तो पहले दिन की तुलना में आज का दिन स्‍पष्‍ट रूप से भिन्‍न होगा .
सातवां दिन- कार्यक्रम का समापन शाही खाने के बाद एक अच्‍छे सिगार के साथ होगा . ध्‍यान रहे खाना अधिक पौष्टिकता वाला न हो . आप अपने तंत्र को नियंत्रित पाएंगे और यह आपको साफ-सुथरा एवं सुचारू बनाने के लिए धन्‍यवाद देगा .
(अनुवाद – अहिवरन सिंह )

Thursday, July 3, 2008


समर्थ


विचार विमर्श का साझा मंच

साझी विरासत

लेखक की ओर से . . . . . .
भाषा की दृष्टि से खुसरो और कबीर ही वास्तव में हिन्दी के ऐसे कवि हैं जो आज के पाठक समुदाय के लिए अधिक से अधिक प्रासंगिक और उपयोगी हैं। अन्य कवि तो एक भिन्न भाषा के कवि हैं। चूंकि अन्य कवियों का क्षेत्रीय भाषाओं से सरोकार पहले रहा है, हिन्दी से तो बाद में; जबकि खुसरो और कबीर का तो हिन्दी से सीधा सरोकार रहा है। इस दृष्टि से आज के संदर्भ में भी खुसरो और कबीर ज्यादा प्रासंगिक, उपयोगी और बोधगम्य हैं। साहित्य के क्षेत्र में भी खुसरो और कबीर का सानी नहीं। खुसरो में विचारों और विश्लेषण की ख्+ाासी पकड़ थी। इससे यह सिद्ध होता है कि खुसरो हिंदी साहित्य के प्रकाण्ड विद्वान थे। खुसरो का जीवन एवं कार्य-शैली पुरुषार्थ प्रधान थी। इसीलिए खुसरो के संपूर्ण साहित्य और लेखन में पुरुषार्थ की प्रधानता झलकती है। अपनी पुरुषार्थ प्रियता के माध्यम से वे भारतीयों में खोया हुआ आत्मविश्वास और पुरुषार्थ जगाना चाहते थे।
यद्यपि लोगों में तुर्क और मुगल शासकों के संबंध में यह धारणा बनी हुई है कि वे लोग सत्ता हथियाने के लिए की जाने वाली तबाही, दमन और शोषण को छुपाने के लिए भयाक्रान्त जनता में धर्मान्धता फैलाकर उनका मानसिक शोषण भी करते थे। इसके लिए वे सूफी संतों, शेखों, पुरोहितों आदि को भी रखते थे। क्योंकि यह तो सदियों से होता आ रहा है कि धर्म के माध्यम से लोगों में अंधविश्वास फैला कर उन्हें दिग्भ्रमित करके, वर्ण और जातियों में बांट कर लड़वाते रहना ताकि भोलीभाली जनता जागृत न हो सके, नहीं तो उनके अत्याचार और शोषण के विरोध में खड़ी हो जायेगी, तब उनका शासन कर सकना बहुत मुश्किल हो जायेगा। इसीलिए जनशोषण के लिए उस समय के शक्तिशाली शासकों ने कानून से भी बड़ा हथियार धर्म को बना रखा था। साथ ही जनशोषण को पुष्टता प्रदान करने के लिए तथाकथित पुरोहित, शेख तथा सूफी संत आदि पाल रखे थे।
लेकिन खुसरो के संदर्भ में ऐसा नहीं कहा जा सकता। वे वास्तव में एक सच्चे भारतीय थे। जिन सूफी संत ‘हजरत निजामुद्दीन साहब के वे शिष्य थे, वे बहुत ही पहुंचे हुए सच्चे सूफी संत थे, जो यहां की दीन-हीन और शोषित जनता के सच्चे कदरदार, चिंतक और प्रश्रयदाता थे। वे जीवनपर्यन्त दीन-हीन, शोषित तथा वंचित जनसमुदाय के कल्याण की सोचते रहे, और शक्ति से अधिक सहयोग करते रहे। फिर ऐसे सूफी संत के शिष्य खुसरो भला कैसे अन्यत्र सोच रख सकते थे।
सवाल हैं कि हिंदी के प्रकाण्ड पण्डित खुसरो आज के हिंदी साहित्य में कितने सार्थक और प्रासंगिक हैं ? और यदि नहीं तो क्यों ? आज खुसरो को एक महान साहित्यकार के रूप में प्रतिष्ठापित करने की जरूरत क्यों है ? क्या खुसरो एक प्राचीन साहित्यकार हैं ? खुसरो के साहित्य शोघ को संकलित कर जन-जन तक पहुंचाने से समाज में क्या बदलाव आ सकता है ? वे क्या कारण रहे जिनकी वजह से हिंदी जगत ने तथा सरकारों ने खुसरो पर ख्+ाास तवज्जो नहीं दी ?
यह सच है कि कवि@साहित्यकार का व्यक्तित्व उसकी कविताओं@साहित्य में छुपा होता है। उसके साहित्य में उस काल विशेष की विशिष्टताओं का समावेश रहता है और उत्कृष्ट साहित्य अपने समय का इतिहास भी होता है। प्रतिभा सम्पन्न साहित्यकार का साहित्य युगान्तरकारी भी होता है। ऐसे साहित्यकार का साहित्य उसके समय में तो उपयोगी और सार्थक रहता ही है, उसके बाद में भी समीचीन होता है। खुसरो इसी श्रृंखला के सर्वोत्कृष्ट साहित्यकारों में से एक थे। वे अपने काव्य के माध्यम से उत्पीडि़त, शोषित, वंचित तथा वर्गभेद से ग्रसित समाज में साम्यता, एकरूपता और सजगता का संचार करना चाहते थे। इसीलिए उन्होंने अपनी रचनााओं में समाज के सभी वर्गों को समेटा। यद्यपि खुसरो साहब मुगल शासकों के दरबारों में रहते हुए उनके लिए लिखते रहे, फिर भी उन्होंने तार-तार होेते भारतीय समाज के दुख-दर्द को नजदीकी से समझा-जाना तथा उनमें साहस जगाने का काम किया। यही कारण है कि आज सभी धर्मों के लोग हजरत निजामुद्दीन साहब और खुसरो साहब की मजार पर बड़ी तत्परता से श्रद्धा सुमन अर्पित करने जाते हैं।
खुसरो साहब का साहित्य जातिवाद और सांप्रदायिकता जैसी अमानवीय सोच और धारा के परे था। उनका साहित्य तो समाजवादी और जनवादी है। उसमें साम्यता है, समन्वयवादी है तथा शोषितों एवं वंचितों को सम्मान दिलाता है। अफसोस कि जिन खुसरो और कबीर जैसे रचनाकारों ने हिंदी को एक ख्+ाास पहचान दिलायी, जिसकी वजह से हिंदी राष्ट्रभाषा का सम्मान प्राप्त कर सकी, इतने विशिष्ट साहित्यकारों के साहित्य पर सच्चाई के साथ शोध नहीं हुआ। यदि हिंदी को सही सम्मान दिलाना है तो खुसरो और कबीर सरीखे साहित्यकारों के साहित्य को पूर्णता तथा ईमानदारी के साथ स्थापित करना होगा। अमीर खुसरो पर उपलब्ध संकलनों एवं विभिन्न लोगों से संपर्क करने पर मिली जानकारियों को संक्षेप में मैं इस पुस्तिका के माध्यम से आप तक पहुंचा रहा हूं।
अमीर ख्+ाुसरो (अबुल हसन)
अबुल हसन ‘‘अमीर ख्+ाुसरो’’ का जन्म उत्तर प्रदेश राज्य के एटा जि+ले के पटियाली गांव में सन् 1253 में हुआ था। वर्तमान में पटियाली एटा जि+ले की एक तहसील है। इनके पिता मौहम्मद सैफुद्दीन सुलतान अल्तुतमिश के शासनकाल में तुर्किस्तान से आकर यहां बसे थे। पिता सैफुद्दीन महमूद तुर्किस्तान के एक लाचीन कबीले के सरदार थे। मुगलों के अत्याचार से तंग आकर वे 13वीं सदी में भारत आये और पटियाली (जिला एटा) उत्तर प्रदेश में बसे। उन दिनों यहां सुलतान अल्तुतमिश का शासन था। वे एक वीर लड़ाका थे। अल्तुतमिश ने ऊंचे औहदे पर उन्हें अपने दरबार में रख लिया। जब अबुल हसन 10 वर्ष के थे तो इनके पिता युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हो गए थे। उसके बाद उनका लालन-पालन उनके नानाजी एमादुल मुल्क ने किया। नाना बादशाह बलवन के दरबारी थे। ख्+ाुसरो ने पटियाली में अपनी उम्र के 12 वर्ष गुजारे। कुछ दिनों वे बदायूं में भी रहे। इसके बाद वे दिल्ली चले गये।
ख्+ाुसरो के जन्मस्थान के संबंध में विद्वानों में मतभेद है। कुछ लोग ख्+ाुसरो की जन्मस्थली दिल्ली मानते हैं। इनका मानना है कि जब ख्+ाुसरो पैदा हुए थे तो इनके पिता इन्हें बुर्के में लपेटकर एक सूफी संत के पास ले गये थे, जिन्होंने इन्हें एक महान व्यक्ति बताया था। ये संत कोई और नहीं बल्कि स्वयं हजरत निजामुद्दीन औलिया ही थे। ख्+ाुसरो अपनी फारसी शायरी के लिए फारस (ईरान) में प्रसिद्ध हो गये थे। वहां के समकालीन कवि उन्हें ‘ख्+ाुसरो देहलवी’ के नाम से संबोधित करते थे। ख्+ाुसरो के उपलब्ध हिंदी छंदों की भाषा या तो खड़ी बोली है या फिर अवधी। खड़ी बोली दिल्ली में बोली जाती है। ये लोग ‘शिकायतनामा मोमिनपुर-पटियाली’ का भी उदाहरण पेश करते हैं। ख्+ाुसरो के नाना का नाम रावल अमादुलमुल्क था, जो मूलतः हिन्दू थे। बाद में उन्होंने इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया था। इनके नाना दिल्ली में रहते थे।
कुछ लोग तो ख्+ाुसरो को भारत से बाहर का मानते हैं। ऐसे लोगों का मत है कि 1253 में ख्+ाुसरो के जन्म के समय पटियाली में जंगल था। वहां न तो कोई बादशाही किला था और ना ही बस्ती। पटियाली में बादशाही किला वहां के स्थानीय बागी राजपूतों को दबाने के लिए बनवाया गया था। किला बन जाने के बाद ही वहां आबादी बसी।
लेकिन अधिकांश साक्ष्यों एवं उपलब्ध सामग्री के आधार पर उनका जन्म पटियाली, एटा में हुआ था इसी मान्यता को प्रधानता मिली हुई है। ए. जी. आर्बरी की प्रसिद्ध पुस्तक ‘क्लासिकल पर्शियन लिटरेचर’ तथा ‘एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका’ जैसे प्रामाणिक ग्रंथों में यही स्वीकार किया गया है।
इसी तरह ख्+ाुसरो की जन्म की तारीख के संबंध में भी मतभेद है। उनका जन्म सन् 1252, 1253, 1254, 1255 और 1259 माना जाता है। लेकिन जो प्रमाण उपलब्ध हैं उनके आधार पर उनका जन्म 652 हिजरी माना जाता है, जिसके आधार पर सन् 1253 ही सही बैठता है।
पटियाली ग्राम ने अनेक ऐतिहासिक उतार-चढ़ाव देखे हैं और तय किया है हजारों सालों का सफर। तमाम वाकया उजड़ी-बसी पटियाली की खासियत यह रही है कि अति प्राचीन समय से ही इसकी आबादी लगभग अपने पुराने आंकड़े के इर्द-गिर्द ही घूमती रही है। अर्थात् 6 से 7 हजार के आस-पास। पटियाली का नाम समय-समय पर बदलता रहा है। कहा जाता है कि महाभारत काल में पटियाली का नाम द्रुपद नगर था और द्रोपदी स्वयंवर यहीं हुआ था। द्रुपद कालीन प्राचीन मंदिर पटियाली में मौजूद है, जिसके बारे में बताया जाता है कि इसका निर्माण कभी राजा द्रुपद ने कराया था। पटियाली संतों की नगरी थी। कुछ दिनों तक इसका नाम चंपत नगर भी रहा, जो व्यापार का एक अच्छा केन्द्र था। मोमनाबाद@मोमिनपुर भी इसका नाम रहा है। बताते हैं कि कभी पटियाली से कम्पिल तक सुरंग रही थी। कंपिल (कपिलवस्तु की नगरी है) जहां कपिल मुनि का आश्रम था। जन्म के तुरंत बाद ख्+ाुसरो के पिता उन्हें इसी आश्रम के तत्कालीन संत के पास लेकर गये थे। उन संत ने बालक के ललाट के तेज को देख कर इन्हें व्यक्तित्व का धनी बताया था। वास्तव में उन संत के वचनानुसार वही बालक आगे चलकर ख्+ाुसरो के रूप में महामानव बना।
हजरत निजामुद्दीन औलिया के समय में उनके आश्रम पर वहां जाने वाले हर सख्+श को भरपेट मुफ्त खाना मिलता था। उनके आश्रम पर लोग बड़ी श्रद्धा और लगन से जाते थे। इनमें हर वर्ग के लोग होते थे किसी तरह का कोई भेदभाव नहीं था। अमीर ख्+ाुसरो जब दिल्ली में हजरत निजामुद्दीन साहब के आश्रम पहुंचे। भोजन का समय था। वहां खाना बांटा जा रहा था। उस समय खाना परसाद स्वरूप हाथ में ही दिया जाता था। कोई अलग से पात्र नहीं होता था। श्रद्धालुओं की भीड़ बहुतायत में थी। भीड़ अधिक होने और खाना हाथ में ले लेने के बाद उन्हें और खाना लेने की इच्छा हुई तो उन्होंने पास में रखे हुए जूतों में खाना रखवा लिया। इत्तेफ+ाक से वे जूते हजरत साहब के थे तथा हजरत साहब यह सब देख रहे थे। बस फिर क्या था, रूहानी पसन्द तबियत को देखकर हजरत साहब ने उस बालक, ख्+ाुसरो पर रूहानियत की वो बरसात की कि 12 साल का वह बालक हजरत निजामुद्दीन औलिया की नजरों में औलिया बन गया।
अमीर ख्+ाुसरो अपने जीवनकाल में अनेक राजदरबारों से जुड़े रहकर लोकप्रियता और सम्मान अर्जित करते रहे। ख्+ाुसरो ने सर्वप्रथम प्रसिद्ध सुल्तान गयासुद्दीन बलवन के बेटे मुहम्मद सुल्तान के राजदरबार में नौकरी की थी। मुहम्मद सुल्तान काव्य प्रेमी थे। गयासुद्दीन तुगलक के दरबार में रहकर ख्+ाुसरो ने अपने जीवन की प्रसिद्ध रचना ‘तुलगक नामा’ लिखी। सन् 1324 में ख्+ाुसरो गयासुद्दीन तुगलक के साथ बंगाल की चढ़ाई पर गये। इसी दौरान उनके धार्मिक गुरू हजरत निजामुद्दीन औलिया जी चल बसे। उनकी मृत्यु के समाचार से वे बहुत आहत हुए। वे बंगाल से तुरन्त निजामुद्दीन वापस आ गये। ख्+ाुसरो ने सबकुछ लुटाकर अपने गुरू हजरत औलिया की कब्र के पास जाकर - ‘गोरी सोवै सेज पै, मुख पर डारे केस। चल ख्+ाुसरो घर आपने, रैन भई चहुं देस।’ दोहा लिखकर अंतिम सांस ली। अमीर ख्+ाुसरो की मृत्यु होने पर उनकी इच्छा के तहत, उनको ‘धर्मगुरू’ की कब्र के पैताने ही दफनाया गया। इतिहास प्रसिद्ध धनी व्यक्ति ताहिर बेग ने उनका एक शानदार मकबरा बनवाया था। यद्यपि ख्+ाुसरो आज हमारे बीच मौजूद नहीं हैं फिर भी उनके द्वारा रचित साहित्य की विपुलता आज भी उन्हें अमर करने में सहायक सिद्ध हो रही है।
काव्य के क्षेत्र में ख्+ाुसरो ने किसी को भी अपना गुरू नहीं बनाया। उन्होंने शेख सादी, सनाई, ख्+ााकानी तथा कमाल आदि के तत्कालीन उपलब्ध काव्य ग्रंथों से शिक्षा ग्रहण कर ज्ञानार्जन किया। इस संबंध में उन्होंने स्वयं कहा कि मैं किसी अच्छे कवि, काव्य सम्राट को अपना उस्ताद नहीं बना सका, जो मुझे शायरी का रास्ता बताता और मेरी काव्यगत कमजोरियां बताकर उन्हें दूर करवाता। अपनी रचना ‘गुर्रत्तुल कमाल’ में ख्+ाुसरो ने स्वयं उल्लेख किया है कि उन्होंने शहाबुद्दीन नामक व्यक्ति से अपनी ‘हस्त बिहिश्त’ नामक काव्य का संशोधन करवाया था। शहाबुद्दीन एक कवि तो नहीं थे विद्वान जरूर थे। शहाबुद्दीन ने काव्यगत ग+लतियों को एक दुश्मन की तरह ढूंढ़ कर सुधारा और एक दोस्त की तरह मेरी सराहना की।
ख्+ाुसरो फारसी, हिंदी, तुर्की, अरबी तथा संस्कृत आदि भाषाओं के ज्ञाता थे। साथ ही दर्शन, धर्मशास्त्र, इतिहास, व्याकरण, युद्ध विद्या, ज्योतिष और संगीत आदि की भी अच्छी जानकारी थी। इतनी अधिक दक्षताएं उनके स्वयं सीखने की प्रकृति एंव अधिकाधिक ज्ञानार्जन की प्रवृत्ति के चलते थीं। साथ ही इसमें नाना अमादुलमुल्क के संरक्षण की भी अहम भूमिका थी, जिनकी सभा में विद्वान, कवि तथा संगीतज्ञ आदि अक+सर आते थे, जिनसे ख्+ाुसरो को सहज ही ज्ञानार्जन का लाभ मिलता रहता था।
ख्+ाुसरो बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। अमीर ख्+ाुसरो अपने समय के सूफी संतों में महान सन्त, विद्वानों में महान विद्वान, साहित्यकारों में महान साहित्यकार, दार्शनिकों में महान दार्शनिक तथा संगीतकारों में महान संगीतकार थे। बाल्यावस्था में ही अमीर ख्+ाुसरो अपनी कुशाग्र बुद्धि और प्रतिभा से विद्धानों को प्रभावित करने लगे थे। 8 वर्ष की अल्पायु में ही वे गूढ़ कविताएं लिखने लगे थे। छोटी उम्र में ही उत्कृष्ट किस्म की रचनाएं लिखने की वजह से उस समय के विद्वान ख्+ाुसरो की प्रतिभा और उम्दा रचनाओं की सराहना करते नहीं थकते थे। जब ख्+ाुसरो 12 वर्ष के थे तो इनके पिता युद्ध करते-करते वीरगति को प्राप्त हो गये। पिता की मृत्यु के बाद वे अपनी मां के साथ अपने नाना के यहां दिल्ली आ गये, जहां इनकी देखभाल इनके नाना ने की।
ख्+ाुसरो की प्रतिभा को देखते हुए इंग्लैंड-फ्रांस के लोगों ने भी इनके साहित्य को खूब सराहा। ताशकन्द विश्वविद्यालय ने तो अमीर ख्+ाुसरो को ‘तूतिये हिन्द’ की उपाधि से नवाजा था।
सबसे पहले उन्होंने फारसी में कवितायें लिखनी शुरू की। कैकुबाद दिल्ली के प्रथम शासक थे जिन्होंने उन्हें अपना दरबारी बनाया। उसके बाद वे बलवन जलालुद्दीन तुगलक की सेवा में रहे। इसी दरबार में उन्होंने अपनी प्रसिद्ध रचना ‘‘तुगलकनामा’’ लिखी। अपने जीवनकाल में वे अनेक राजदरबारों से जुड़े रहकर सम्मान और लोकप्रियता अर्जित करते रहे। गायकी, संगीत, भाषा, रहस्यवाद, इतिहास, दर्शन आदि के क्षेत्र में उनकी अच्छी ख्+ाासी पकड़ थी। उनकी रचनाओं में हिंदी और फारसी का मिला-जुला पुट मिलता है। उनकी फारसी रचनाओं में हिंदी और हिंदी रचनाओं में फारसी का सामंजस्य पाया जाता है। उस समय अधिकांश रचनाएं मुंहजुबानी ही रहती थीं और रचनाओं को संकलित करने का कुछ ख्+ाास रिवाज नहीं था। यही कारण है कि उनकी हिन्दी रचनाओं का कोई प्रमाणित और सर्वमान्य संकलन मौजूद नहीं है। श्लेषात्मक प्रतिभा के माहिर ख्+ाुसरो ने हिंदी साहित्य, संगीत और भाषा विज्ञान के क्षेत्र में अनेक नए प्रयोग करके उसे सम्पन्न किया। कव्वाली व खयाल गायकी उन्हीं की देन है।
ख्+ाुसरो अपने गुरू हजरत औलिया से बेइन्तहा प्यार करते थे। जिन दिनों वे अपने अन्तिम आश्रयदाता ग+यासुद्दीन तुगलक के साथ बंगाल आक्रमण पर गये हुए थे, उसी दौरान हजरत औलिया साहब का देहान्त हो गया। अपने गुरू के देहान्त का समाचार पाकर ख्+ाुसरो बेहद आहत हुए। वे तुरन्त दिल्ली वापस लौट आए। वापस आकर उन्होंने काले वस्त्र धारण कर लिये और उनके पास जो कुछ था उसे दोनों हाथों से लुटाने लगे। अपने गुरू के देहान्त से वे इतने अधिक आहत हो गये कि छः माह बाद 725 हिजरी अर्थात् सन् 1325 में यह छन्द पढ़ते हुए अमीर ख्+ाुसरो ने अंतिम साँस ली-
गोरी सोवे सेज पर मुख पर डारे केस।
चल ख्+ाुसरो घर आपने रैन भई चहुं देस।
पूर्व प्रधानमंत्री श्री इंद्र कुमार गुजराल 1976 से 80 के बीच जब रूस में भारत के राजदूत थे, उस वक्त ताशकन्द में ख्+ाुसरो पर एक कार्यक्रम आयोजित किया गया था। श्री गुजराल जी उस कार्यक्रम के मुख्य अतिथि थे। उस समय उन्होंने ख्+ाुसरो पर जानकारियां हासिल करने के लिए भारत सरकार और प्रशासन पटियाली (एटा) को पत्र लिखे थे। जो पत्र उन्होंने लिखा था वह जफर अली के पास है। श्री जफर अली मूलतः पटियाली के ही रहने वाले हैं। अपने प्रधानमंत्रित्व काल में श्री गुजराल जी ने उन्हें अपने पास बुलाया भी था लेकिन वे उनसे मिलने दिल्ली नहीं पहुंचे। वे आजकल अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, अलीगढ़ में रहते हैं। उनके पुत्र अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के मेडिकल काॅलेज में पढ़ाते हैं।
अमीर ख्+ाुसरो एक अच्छे गायक और संगीतकार भी थे। ख्+ाुसरो को उनकी बाल्यावस्था से ही बहुत सराहा गया था। जिसने उनको जितना समझा उसने उतना कह दिया। ख्+ाुसरो की महानता को समझने के लिए उनकी रूहानियत को समझना होगा। मजे की बात यह थी कि ख्+ाुसरो को अपने द्वारा रचित रचनायें, साहित्य आदि कंठस्थ थे।
सामाजिक उपेक्षा
ख्+ाुसरो तुर्क थे। हजरत औलिया भी कई मर्तबा उन्हें तुर्क कह कर ही संबंोधित करते थे। उनके खानदान ने तुर्की रवायतों (तौर-तरीकों) को नहीं छोड़ा। इसके विपरीत बाहर से आने वाले मंगोल, आर्य, हूण, शक तथा अन्य तमाम विदेशी समुदाय, सब भारत में आकर यहां की साझा संस्कृति का हिस्सा बन गये। आज उन्हें कोई कह भी नहीं सकता कि वे बाहर से आकर बसे लोग हैं। इसके विपरीत तुर्क, तुर्किस्तान के महान फारसी दार्शनिक शेख सादी की दार्शनिकता की अमिट छाप की वजह से तुर्क लोग अपने आप को पूरी तरह भारतीय इस्लामिक रवायत में नहीं ढाल पाये। इसी कारण भारत का कोई भी सामाजिक समुदाय उन्हें पूरी तरह से अपने आप में समाहित नहीं कर सका। इसी संकोचवश किसी भी तबके ने साहित्य की धनी शख्सियत की कृतियों तथा समाज को एकसूत्र में बांधने के इनके संदेश पर गौर नहीं फरमाया।
ऐसे क्या कारण थे जिनकी वजह से महान साहित्यकार होने के बावजूद अमीर ख्+ाुसरो को साहित्य में उचित स्थान नहीं मिल सका ? वह नगरी जहां उनका जन्म हुआ था उनकी जन्म स्थली की पहचान आज तक क्यों नहीं हो सकी है ? मेरी नज+र में इस संबंध में जो मुख्य कारण रहे वे थे, ख्+ाुसरो विदेशी मूल के थे। पटियाली में तुर्क लोगों की आबादी बहुत कम थी। तुर्क लोग भारतीय संस्कृति में पूरी तरह घुल-मिल नहीं पाये। परन्तु ख्+ाुसरो साहब के साथ ऐसा नहीं था वे तो सबके थे और सबके लिए उन्होंने काम किया। लोगों के दिलों को जोड़ने का काम किया। छोटे-बड़े का भेद किये वगैर सबके लिए लिखा। चूंकि ख्+ाुसरो साहब मूलतः हिन्दू तो थे नहीं और न ही मुसलमानियत के प्रबल समर्थक। अतः इन दोनों तबकों ने ही ख्+ाुसरो साहब को तरजीह नहीं दी। यही कारण रहा कि इन्हें समाज में ख्+ाास शख्सियत का स्थान नहीं मिल सका। हमारी सरकारों ने भी इस तरफ मुड़कर नहीं देखा।
बड़े शर्म की बात है कि उनके महान सामाजिक एवं साहित्यिक योगदान के बावजूद उनकी जन्मस्थली पटियाली (एटा), उत्तर प्रदेश में उनकी विरासत को सहेज कर रखने के कोई प्रयास नहीं किये गये। इससे जाहिर होता है कि हिन्दू और मुस्लिम, दोनों ही संप्रदायों ने ख्+ाुसरो में दिलचस्पी नहीं दिखाई। 20वीं सदी के अंतिम वर्षों में पटियाली तहसील ग्राउण्ड के पास अमीर ख्+ाुसरो के नाम पर बनवाये गये ‘अमीर ख्+ाुसरो पुस्तकालय’ और पार्क उनकी पहचान को बरकरार रखने के क्रम में उठा एक कदम था लेकिन उनके रखरखाव के पुख्ता इंतजाम नहीं किए गए हैं, जिसकी बदौलत मात्र 8 वर्ष के अंतराल में ही उनकी हालत जर्जर हो चुकी है।
कृतित्व
अमीर ख्+ाुसरो के गीतों और पहेलियों से सम्बन्धित 99 ग्रन्थों का उल्लेख मिलता है, किन्तु अब उनके द्वारा लिखित केवल 22 ग्रन्थ ही उपलब्ध हैं। ख्+ाुसरो एक अप्रतिम कवि के साथ-साथ अच्छे संगीतकार और गायक भी थे। उनके द्वारा लिखे गीतों को आज भी महिलाएं बड़े उत्साह के साथ गाती हैं। संगीतकार के रूप में उन्होंने नई धुनें देकर अपने पुराने छन्दों को तोड़-मरोड़ कर नए छन्दों की रचना भी की थी। उदाहरण के लिए ‘ध्रुपद’ नामक छन्द को लिया जा सकता है, जिसे उन्होंने कव्वाली के रूप में गेय बनाकर अपूर्व कार्य किया था। उनकी पहेलियां बहुचर्चित हैं। उनके द्वारा रचित पहेलियों को पढ़कर लोग आज भी अपनी बुद्धि की कसरत करते हुए आनन्दित होते हैं। अमीर ख्+ाुसरो की सारगर्भित पहेलियां उनको लोकप्रिय बनाने और साहित्यिक शिखर की ऊंचाईयों को छूने में पूर्ण समर्थ हैं। ख्+ाुसरो ने तबला ईजाद किया तथा नये-नये रूप में पद्य रचनाएं रच कर नई विधाओं का सृजन किया। गजल, कब्बाली, मुकरियां, पहेलियां, गीत, हिंदी-फारसी की मिली-जुली कविताओं आदि के रूप में अभिनव प्रयोग किये। ख्+ाुसरो ने तबला और सितार जैसे वाद्य यंत्र भी ईजाद किये।
मानवतावादी काव्य
ख्+ाुसरो के काव्य में मानवतावादी विचारों की भरमार है। इनके मानवतावादी काव्य को दो श्रेणियों में रखा जा सकता है। एक तो वे, जो परिस्थितिजन्य कमियों का विरोध कर मानव कल्याण के लिए अच्छाइयों की मांग करते हैं और दूसरे वे हैं जो बिना विरोध के ही मानवता का साया पकड़ लेते हैं। हंसी-खुशी से जीने और रहने का सरस वातावरण पैदा कर देते हैं। अमीर ख्+ाुसरो इसी विचारधारा के एक ऐसे अग्रणी कवि हैं जो अपनी वाणी के आकर्षण से समाज को लुभाते रहे।
धरा-धाम पर साहित्य-रूपी गंगा की अजस्र धारा अनन्त है। समय-समय पर अनेक कवि-लेखक इस धारा को वेग प्रदान करते रहे हैं। अमीर ख्+ाुसरो भी उनमें से एक हैं। ख्+ाुसरो ने अपने काव्य में मानवतावाद को तहे दिल से उकेरा है। उन्होंने अपने काव्य के माध्यम से तत्कालीन परिस्थितियों में महान परिवर्तन ला दिया था। उनकी काव्य-धारा व्यक्ति को घोर संकटों से निकाल कर मुक्त हंसी-खुशी की ओर मोड़ देती है। ख्+ाुसरो ने अपनी पहेलियों एवं मुकरियों में मजाक एवं श्रृंगार का भाव भर कर मानव समाज पर मर्मस्पर्शी प्रभाव डाला था। उनके इस योगदन को कभी नहीं भुलाया जा सकता। दो तरह की काव्य धारायें होती हैं। एक तो वे जो परिस्थितियों में निहित दोषों का विरोध कर मानव कल्याण के लिए अच्छाइयों की मांग करते हैं, दूसरे वे हैं जो बिना विरोध के ही मानव कल्याण को अहम मानते हुए हंसी-खुशी से जीने और रहने का सरस वातावरण पैदा कर देते हैं। अमीर ख्+ाुसरो भी ऐसे ही काव्य प्रेमी थे जिन्होंने अपनी ओजपूर्ण काव्य-धारा में बहने के लिए लोगों को मजबूर कर दिया था।
ख्+ाुसरो के व्यक्तित्व में दिखने वाली मानवतावाद की झलक उनके व्यक्तित्व की ही विशिष्टता है जिसे उन्होंने बृज भूमि के ग्रामीण वातावरण में पाया और दिल्ली-सुल्तानों के दरबारी वातावरण में विकसित किया। वे साधारण वर्ग में पैदा हुए जन कवि थे। यद्यपि ख्+ाुसरो दरबारों और बड़े घरानों से संबंधित थे फिर भी निर्बल, निर्धन, पिछड़े वर्ग तथा श्रमजीवी वर्ग से उनका घनिष्ठ संबंध रहा। इन सबके प्रति उनका व्यवहार बड़ा ही सौम्य, मधुर तथा सहानुभूतिपूर्ण था। उस समय की सामाजिक परिस्थितियों ने ख्+ाुसरो को मानवतावादी दृष्टिकोण अपनाने के लिए मजबूर किया। वे यह अच्छी तरह समझ चुके थे कि आर्थिक विषमता के कारण ही समाज में भेदभाव है। भेदभाव की खाई की विकरालता के कारण ही समाज में तरह-तरह के अत्याचार हो रहे हैं। अत्याचारों से समाज बुरी तरह त्रस्त, भूखा और पीडि़त था। व्यक्ति का पूरी तरह से नैतिक पतन हो चुका था। छल-कपट का बोलबाला था। सामाजिक भयावहता को देखकर ख्+ाुसरो स्वयं कह उठते हैं कि-
बाल नुचे कपड़े फटे मोती लिए उतार।
अब विपता कैसे बनी जो नंगी कर दी नार।।
उन्होंने लोगों के दुःख-दर्द को समझा। उनके कष्टों को कम करने और सम्मान सहित खुशहाल जीवन जीने के प्रति उत्साहित करने के लिए ख्+ाुसरो ने गीत, संगीत, पहेलियों, दोहों के माध्यम से उत्पीडि़त और दुःखी लोगों को सहलाने और गुदगुदाने का काम किया। ख्+ाुसरो के काव्य को पढ़ने पर पता चलता है कि वे ग्रामीण जीवन के कोने-कोने से वाकिफ थे। किसान की फूट, अरहर, भुट्टा; बढ़ई की आरी और उसके द्वारा बनाई गई चैकी; कुम्हार की चाक हाॅंडी, चिलम; कहार की डोली,; केवट की नाव तथा दर्जी की कैंची आदि को बड़ी दक्षता के साथ उन्होंने अपने काव्य में समाहित किया है। ग्रामीण जीवन के रहन-सहन, आचार-व्यवहार को भी उन्होंने अपने काव्य में बड़ी शिद्दत के साथ उकेरा है तथा ग्रामीण जीवन की चेतन-सचेतन वस्तुओं- लोटा, चरखा, चिलम, सकरकंद, तोता, कुत्ता, जूता आदि पर भी लिखा है-
गोल मटोल और छोटा-मोटा। हरदम वह तो जमीं पर लोटा।
ख्+ाुसरो कहैं नहीं है झूठा। जो न बूझे अकल का खोटा।। लोटा ।।
नई की ढीली पुरानी की तंग।
बूझ सके तो बूझ ले नहीं चल हमारे संग।। चिलम।।
ख्+ाुसरो यह भी अच्छी तरह समझते थे कि पारस्परिक फूट के कारण ही सामाजिक एकता नष्ट हो जाती है और मानव समाज में एकता न रहने से सामाजिक संगठन टूटता है, व्यक्तियों और परिवारों में मतभेद उभरते हैं और फिर उस मतभेद से जाति और धर्म आधारित संघर्ष पैदा होते हंै। ख्+ाुसरो सांप्रदायिक संकीर्णता की जड़ों को उखाड़ फेंकना चाहते थे। अंधविश्वासी परंपराओं में उनकी आस्था नहीं थी। मानवता ही उनकी दृष्टि में सर्वोपरि थी। इसीलिए उन्होंने मानव-कल्याण के सच्चे कर्म को पहचान कर जनजीवन को व्यापक मानव धर्म की भूमि पर खड़ा करने का प्रयास किया और अपने काव्य के माध्यम से समानता का संदेश दिया। और ख्+ाुसरो ने परस्पर विरोधी भावनाओं, मान्यताओं तथा साधनाओं से ऊपर उठकर मानवीय मूल्यों को महत्व प्रदान करने वाला व्यापक दृष्टिकोण अपनाया और सच्चे प्रेम की महत्ता को जन-सामान्य के समक्ष पेश किया। वे इस बात को अच्छी तरह जानते थे कि वैर और संघर्ष का खात्मा मात्र प्रेम और मृदु व्यवहार से ही संभव है। इसीलिए ख्+ाुसरो ने अपने काव्य में मानवीय प्रेम और सदाचरण को बड़ी उदारता के साथ परोसा है।
सूफी दर्शन और ख्+ाुसरो
कहा जाता है कि वे लोग जो पवित्र जीवन व्यतीत करते हुए धर्माचरण में लीन रहते थे, सूफी कहलाये। कुछ लोग मानते हैं कि मदीना में मुहम्मद साहब द्वारा बनवाई मस्जिद के बाहर चबूतरे (सुफ्फ) पर जिन गृहविहीन लोगों ने शरण ली तथा जो जीवन के पवित्र नियमों का पालन करते थे, सूफी कहलाये। कुछ का मानना है कि जो पवित्र आचरण के कारण अलग ‘सफ’ (पंक्ति) में खड़े किये जाने योग्य हैं, वे सूफी कहलाए। कुछ लोगों ने इसकी व्युत्पत्ति ग्रीक शब्द ‘सेफिया’ (ज्ञान) से मानी है। अबू नस्र अल सरोज के शब्दों में, जो यती या सन्यासी ‘सूफ’ अर्थात ऊन धारण करते थे, वे सूफी नाम से जाने जाते थे। मोटे तौर पर हम कह सकते हैं कि जिनके हृदय में रूहानियत (ईश्वरीय ज्ञान) का प्रकाश जगमगाने लगा था और जो पवित्र आचरण करते हुए जनसाधारण को प्रेम और कल्याण का मार्ग दिखाते थे, वे सूफी कहलाये।
सूफियों का मत था कि अल्लाह प्रेम और सौन्दर्य का रूप है। वह प्रेमी अलक्ष्य होते हुए भी अपने सौंदर्य पर स्वयं मुग्ध है। इसीलिए उसने अपना रूप स्वयं निहारने के लिए इस दृश्यमान जगत में रूहानियत पैदा की। अल्लाह को समझने@पाने के लिए आत्मशुद्धि अनिवार्य है तथा आत्मशुद्धि के लिए मन एवं इंद्रियों का निग्रह एवं आत्मसंयम अत्यावश्यक है। इसके लिए इस्लाम में पांच कर्तव्यों का विधान था- तौहीद (अल्लाह@ईश्वर एक है); सलात (पांच समय की नमाज); रोजा (उपवास); जकात (दान) और हज (काबा की यात्रा)। आत्मशुद्धि के लिए सदाचरण को सबसे ज्यादा महत्व देते थे। सूफियों के अनुसार सदाचार से आत्मगुणों की अभिव्यक्ति होती हैे और उनसे हृदय मंजकर दर्पण की भांति निर्मल हो जाता है जिसमें अल्लाह@ईश्वर का बिम्ब साफ दिखाई देता है। उनकी जीवन की साधना में गुरू सर्वोपरि था। गुरू ही पथ-प्रदर्शक है। गुरू ही गन्तव्य तक पहुंचने का मार्ग बतलाता है। उसके प्रति विनम्र एवं समर्पित होना सूफी के लिए जरूरी है अन्यथा वह सच्चा मुरीद (शिष्य) नहीं बन सकता, क्योंकि गुरू के प्रति विनम्रता और समर्पणभाव के बगैर आबिद (उपासक) पर गुरू की कृपा नहीं होगी और गुरू की कृपा के अभाव में उपासक अंतर्मुखी नहीं हो सकता तथा परमसत्ता का प्रकाश नहीं पा सकता। उपरोक्त सुफियाने गुण ख्+ाुसरो में अच्छी तरह मौजूद थे। इसीलिए उन्होंने दीवानों, मसवनियों तथा अन्य काव्य रचनाओं में सर्वप्रथम अल्लाह, पैगम्बर साहब, गुरू ख्वाजा+ औलिया साहब की स्तुतियां लिखीं। दरबार में या फिर अन्य मंचों पर संगीत पेश करने से पहले वे स्तुतियां अवश्य करते थे।
सांस्कृतिक समन्वय के प्रतीक
अमीर ख्+ाुसरो भारत के ही नहीं बल्कि भारतीय भाषा के भी प्रबल पक्षपाती थे। वे हिन्दी को किसी भी तरह फारसी से कम नहीं आंकते थे। उन्होंने हमारी हिन्दी (हिन्दवी) की प्रशंसा की और काव्य सृजित किये। हिंदी के संबंध में उन्होंने कहा भी है कि ‘‘मैं हिन्दुस्तान की तूती हूं। अगर तुम वास्तव में मुझसे कुछ पूछना चाहते हो तो हिन्दी (हिन्दवी) में पूछो ः मैं तुम्हें हिन्दी में अनुपम बातें बता सकूंगा।’’
तुर्के हिन्दुस्तानीम मन हिन्दवी गोयम जवाब,
चु मन तूतिए हिन्दियम, रास्त पुर्सी,
ज+मन हिन्दवी पुरस, ता नग+ गोयम।
हिन्दी में रचनाओं का सूत्रपात ख्+ाुसरो ने ही किया। उनके बाद दक्षिणी हिन्दी में काव्य रचना करने वाले दर्जनों मुस्लिम शायरों ने इस भाषा को सहज रूप में स्वीकार किया। ख्+ाुसरो के हिन्दी प्रेम से प्रभावित होकर ही पन्द्रहवीं सदी के मध्य में पैदा हुए शाह बरहानुद्दीन जानम ने तो हिन्दी के लिए पुरज+ोर अपील की थी और अपने साथी मुस्लिम शायरों को सम्बोधित करते हुए ‘इरशदनामा’ में एक शेर इस आशय का लिखा थाः
ऐब न राखे हिन्दी बोल, माने तू चल देश टटोल।
क्यों ना लेवे इसे कोय, सुहावना चितव जो होय।।
ख्+ाुसरो एक ऐसी समन्वित संस्कृति की उपज थे जो भारतीय जन-जीवन तथा भारतीय परिवेश के अन्न-जल से निर्मित संस्कृति कही जाती है। भारत की भाषाएं, भारत के धर्म, भारत का प्राकृतिक वैभव- नदी, वन, पर्वत, भारत की ऋतुएं तथा यहां के वातावरण से उनका गहरा लगाव था। उन्हें भारत देश तन-मन से प्यारा था। भारत के संबंध में उन्होंने स्वयं लिखा है कि ‘‘भारत संसार के सब देशों से श्रेष्ठ और खुरासान, कंधार, रोम और ईरान की अपेक्षा अत्यधिक सुंदर है। भारत के फूल, भारत के नर-नारी, भारत के पशु-पक्षी अद्वितीय हैं। उनकी तुलना किसी और देश से नहीं की जा सकती, भारत तो स्वर्ग से भी अधिक रमणीयक स्थान है - भारत का पक्षी मोर अपनी सुन्दरता में अप्रतिम है।’’ अमीर ख्+ाुसरो को इस बात का गर्व था कि उनका जन्म भारत जैसे एक विशाल, सुन्दर और समृद्ध देश में हुआ।
साझा संस्कृति उन्हें अपने नाना और मां से विरासत में मिली थी। साथ ही ख+ुसरो के गुरू हजरत निजामुद्दीन औलिया साझा संस्कृति के पोषक थे। हजरत साहब जाति तथा वर्गभेद से एकदम परे थे। सभी को सम्मान देते थे। ख्+ाुसरो हजरत साहब को बेहद चाहते थे। उन्हें हजरत साहब की हर चीज+ से बेपनाह लगाव था। हजरत साहब भी ख्+ाुसरो को बेहद प्यार करते थे। हजरत साहब बड़े ही दयालु थे। दरबार में जो भी माल- हीरे-जवाहरात, रूपया, पैसा आदि चढ़ावे के रूप में आता था, वे उसे गरीब जनता में मुक्त हस्त बांट देते थे। इसी कारण गरीब लोग दूर-दूर से अपनी किस्मत संवारने और बिगड़े काम बनाने की दृष्टि से हजरत साहब के पास आते थे। दूर देश में रहने वाला एक गरीब किसान अपनी बेटी की शादी कराने के लिए हजरत साहब से धन और आशीर्वाद लेने की दृष्टि उपस्थित हुआ। उसने अपनी गरीबी और बेटी की शादी के संबंध में हजरत साहब को बताया। दयालु हृदय हजरत साहब ने दुखी मन से उस किसान से कहा कि अब तक जो भी माल चढ़ावे में आया था, उसे वे गरीबों में बंटवा चुके हैं, फिलहाल उनके पास बिल्कुल भी धन शेष नहीं बचा है, यदि तुम कल तक रुको तो कुछ प्रबंध हो सकेगा। किसान के पास अगले दिन तक रुकने का समय नहीं था, क्योंकि शादी बिल्कुल नजदीक थी। रुक सकने से मना करने पर हजरत साहब ने उस किसान को कहा कि यह जो जूतियां हैं, ये ही शेष बची हैं, यदि तुम चाहो तो इन्हें ले सकते हो। काफी सोच-विचार और व्यथित मन से किसान ने जूतियां स्वीकार कीं। और वह अपने गांव वापस चल दिया। इस दौरान ख्+ाुसरो साहब वहां मौजूद नहीं थे। वे किसी दरबार में गये हुए थे। वहां उन्हें खूब माल- हीरे, जवाहरात आदि उपहार स्वरूप मिले थे। उस धन को वे ऊँट पर लाद कर उसी रास्ते से चले आ रहे थे, जिस पर वह ग+रीब किसान, जिसे हजरत साहब ने उपहार में जूतियां दी थीं, बुदबुदाता हुआ चला जा रहा था। ख्+ाुसरो साहब ने सुना कि वह किसान उनके गुरू के बारे में ही कुछ बुदबुदा रहा है। वे रुके और किसान से पूछा कि क्या बात है आप इतने परेशान क्यों हैं। तब उस किसान ने सारी दास्तान सुनायी। ख्+ाुसरो साहब मुस्कराये और बोले कि तुम बड़े ही धन्य हो। क्या तुम इन जूतियों को बेचोगे। इस पर किसान तैयार हो गया। ख्+ाुसरो साहब ने जूतियों की एवज में ऊँट पर लदा सारा माल- हीरा-जवाहरात आदि उस गरीब किसान को दे दिया। दोनों प्रसन्न मन अपनी राह पकड़ लिये। ख्+ाुसरो साहब हजरत औलिया के सामने मुस्कराते हुए पेश हुए। उनकी मुस्कराहट से ही हजरत साहब समझ गये कि ख्+ाुसरो क्या बताने वाले हैं और ख्+ाुसरो ने जूतियां हजरत साहब को वापस कर दीं।
अमीर ख्+ाुसरो फारसी के प्रकांड पंडित और अपने समय के श्रेष्ठ कवि थे। उनका फारसी के साथ अरबी, हिन्दी, तुर्की आदि भाषाओं पर भी अच्छा अधिकार था। उर्दू भाषा का तो उस समय जन्म ही नहीं हुआ था। ख्+ाुसरो ने अरबी-फारसी-हिन्दी कोष ‘खलिकबारी’ तैयार किया, जो तीन भाषाओं का संगम है। लेकिन डा. सैयद महीउद्दीन कादरी खलिकबारी को इनकी रचना नहीं मानते। उनका तर्क है कि ख्+ाुसरो की ज+बान ब्रजभाषा से मिलती-जुलती थी। साथ ही उन्होंने यह भी कहा है कि जिस ज+बान में वह शेरगोई करते थे वह वही भाषा नहीं थी जिसे आम तौर पर हिन्दू-मुसलमान बोलते थे।’’ डा. कादरी ने भूलवश जिसे ब्रजभाषा समझा है वह वस्तुतः हिन्दी ही है।
ख्+ाुसरो ने फारसी में गजल को नया रूप देकर सर्वजन-सुलभ बनाया। इसीलिए उन्हें कुछ लोग गज+ल का जन्मदाता भी मानते हैं। गज+ल के क्षेत्र में उन्होंने नाना प्रकार के प्रयोग किये थे। उन प्रयोगों में एक विलक्षण प्रयोग था फारसी और हिन्दी का सम्मिश्रण। इसमें एक पंक्ति फारसी की और दूसरी हिन्दी की। ये व्यंग्यात्मक रचनाएं थीं। इनके माध्यम से उनका उद्देश्य पाठक का मनोरंजन करना ही था-
ज+े हाले मिस्कीं भकुन लगाज+ल दुराय नैना बनाए बतियाँ।
के तावे हिजरां नदारम अय जाँ न लेहु काहे लगाय छतियाँ।
शबने-हिजराँ दराज+ चूँ जुल्फ व रोजे वसलत चूँ उम्र कोताह।
सखी पिया को जो मैं न देखूँ तो कैसे काटूँ अंधेरी रतियाँ।।
पहेलियों, मुकरियों तथा दो सुखनों के लिए अमीर ख्+ाुसरो का नाम समस्त हिन्दी-उर्दू साहित्य में प्रसिद्ध है। पहेलियां छह प्रकार की होती हैं- विनोदपूर्ण, रसिक, मनोरंजक, सूझ-बूझ, परख और काल-यापन। उनकी पहेलियां अंतर्लापिका तथा बहिर्लापिका दोनों तरह की थीं, जिनमें अंदर और बाहर दोनों तरफ से जवाब की खोज करनी होती है।
श्याम वरन और दांत अनेक। लचकत जैसी नारीं
दोनों हाथ से ख्+ाुसरो खींचे। और कहे तू आरी।।
पवन चलत वह देह बढ़ावे, जल पीवत वो जीव गंवावे।
है वो प्यारी सुन्दर नार, नार नहीं पर है वो नार।।

बीसो का सिर काट लिया।
ना मारा ना-खून किया।।

बहिर्लापिका पहेलियां-
क्या जानूं वह कैसा है, जैसा देखा वैसा है।
अरथ तू इसका बूझेगा, मुंह देखो तो सूझेगा।।
सामने आये करदे दो, मारा जाय न जख्मी हो। ।।दर्पण।।
एक गुनी ने यह गुन कीनी, हरियल पिंजरे में दे दीनी।
देखा जादूगर का हाल, डाले हरा निकाले लाल। ।।पान।।
मुकरी के क्षेत्र में भी ख्+ाुसरो बेजोड़ थे। मुकरना अर्थात् मना करना मुकरी में प्रधान होता है और निषेध के बाद गुप्त अर्थ का प्रकट होना उसका चमत्कार है-
वह आवे तब शादी होय, उस बिन दूजा और न कोय।
मीठे लागे बाके बोल, ऐ सखि ‘साजन’ ? ना सखि, ढोल।

सुभग सलोना सब गुन नीको, वा बिन सब जग लागे फीको।
वाके सर पर होवे कौन, ऐ सखि साजन, ना सखि लोन।।
दो सुखने भी ख्+ाुसरो की नायाब शैली थी। इनमें भी मानसिक व्यायाम होता था-
गोश्त क्यों न खाया, डोम क्यों न गाया ? - गला न था।
अनार क्यों न चखा, वज+ीर क्यों न रखा ? - दाना न था।
रोटी क्यों सूखी, बस्ती क्यों उजड़ी ? - खाई न थी।
सितार क्यों न बजा, औरत क्यों न नहाई ? - परदा न था।
लड्डन कादरी, पटियाली निवासी ने बताया कि उनकी एक पहेली जो बहुत ही प्रचलित है, वह है-
तरूवर से एक तिर्या उतरी उसने खूब रिझाया,
बाप का नाम मुझ से पूछा आधा नाम बताया।
आधा नाम पता है पूरा सुन मेरे हम जोली
अमीर ख्+ाुसरो यों कहें नाम अपनो नि-बोली।।
ख्+ाुसरो ने लोक संस्कृति पर पूरा ध्यान दिया। भारतीय संस्कृति के रंग में रंगे ख्+ाुसरो के लिए हिन्दू-मुस्लिम संस्कृतियों की धाराएं, कुछ इस तरह घुल मिल गई थीं कि वे किसी संकीर्ण परिधि में अपने को नहीं बांधते थे। सावन के महीने में हिन्दू नारियां जिस तरह अपने सुहाग का वरदान मांगती हैं, ख्+ाुसरो की दृष्टि में वह सुहाग हर स्त्री को चाहिए। सावन में भारतीय नारी की पीहर जाने की बलवती इच्छा को उन्होंने निम्न प्रकार गाया है-
अम्मा मेरे बाबा को भेजियो री कि सावन आया।
बेटी तेरा बाबा तो बूढ़ा री कि सावन आया।
अम्मा मेरे भैया को भेजियो री कि सावन आया।
बेटी तेरा भैया तो बाला री कि सावन आया।
अम्मा मेरे मामा को भेजियो री कि सावन आया।
बेटी तेरा मामा तो बांका री कि सावन आया।
छाप तिलक सब छीनी रे मोसे नैना मिलाएके
प्रेम भटी का मद्यवा पिलाके मतवारी करलीनी रे मोसे नैना मिलाएके।
गोरी गोरी बय्यिाँ हरी हरी चूरियां बय्यिाँ पकड़ धर लीनी रे मोसे नैना मिलाएके।
बल बल जाऊँ मैं तोरे रंग रेजवा अपनी सी करलीनी रे मो से नैना मिलाएके।
ख्+ाुसरो निजाम के बल बल जय्यिे मोहे सुहागन कीनी रे मो से नैना मिलाएके।
ख्+ाुसरो केवल कवि या सूफी संत ही नहीं थे बल्कि वे एक अच्छे गृहस्थ, परोपकारी और सामाजिक व्यक्ति भी थे। समाज के प्रति अपने कर्तव्य का उन्हें पूरा बोध था और उसके निर्वाह के लिए वे कष्ट झेलने को भी तत्पर रहते थे। डा. ईश्वरी प्रसाद ने तो उनके काव्य से प्रभावित होकर उन्हें ‘‘कवियों का राजकुमार’’ (‘‘प्रिंस एमंग पोइट्स’’) कहा है। वे ख्+ाुसरो को कवि के साथ एक कुशल योद्धा और क्रियाशील पुरुष भी मानते थे। ख्+ाुसरो निरन्तर भारत और भारतीय जनता के कल्याण के कार्यों में लगे रहे। भारतीय समन्वित संस्कृति के प्रतीक पुरुषों में अमीर ख्+ाुसरो का नाम भारत के इतिहास में सदैव स्वर्णाक्षरों में अंकित रहेगा।
अमीर ख्+ाुसरो सांस्कृतिक एकता के प्रतीक थे। उनके व्यक्तित्व में अध्यात्म और सांसारिकता का अपूर्व मेल था। वे उच्चकोटि के दार्शनिक और विचारक थे। तद्युगीन समाज का एक बृहत अंश उनके विचारों की महानता, हृदय की विशालता और धर्म-कर्म की निष्ठा से विशेष प्रभावित था। वे हजरत निजामुद्दीन औलिया के परमप्रिय शिष्य थे। हजरत साहब कहा करते थे कि कयामत के दिन मेरे आमाल के बारे में जब खुदा मुझसे पूछेगा कि दुनिया से क्या लाए तो मैं अमीर ख्+ाुसरो को आगे कर दूंगा। सूफी दर्शन इनकी मसनवियों, गज+लों, गीतों और कुछ कसीदों का प्राण है।
बसंत पंचमी का पर्व भी समन्वित विरासत का पर्याय बन चुका है। यह पर्व शुरू में मूलतः कुछ हिन्दू रियासतों में जाती सर्दी, और नये सिरे से जि+ंदगी शुरू करने के परिप्रेक्ष्य में माघ मास की पंचमी अर्थात् पांचवें दिन मनाया जाता था। लोग इस दिन ज्ञान की देवी सरस्वती की पूजा-अर्चना करते हैं। इन दिनों ज्यादातर पेड़-पौधे तथा लताएं हरे-भरे और फूलों से परिपूर्ण होते हैं। चारों ओर सरसों के पीले-पीले फूल, हरा-भरा वातावरण मन मोह लेता है। माघ मास में चारों तरफ हरियाली और फूलों की बहार आई होती है। पेड़-पौधे और लताएं नई कोपलों-पत्तों तथा फूलों से ऐसे लदे होते हैं, मानो धरती ने श्रृंगार कर लिया हो। बसन्त पंचमी के दिन लोग (ख्+ाासकर स्त्रियां) पीले वस्त्र धारण कर नाचते-गाते हैं। अबीर-गुलाल लगाते हैं और प्यार से मिलते हैं। साथ ही आज के दिन से ही होली का छोछक (संदेश) घर-घर पहुंच जाता है। गांवों में अभी भी आज के दिन ही होली रखने का प्रचलन है। इसी दिन से ही नाचना-गाना शुरू हो जाता रहा है।
ऐसी धारणा है कि मुस्लिम जमात में बसंत पंचमी मनाये जाने की शुरूआत हजरत निजामुद्दीन औलिया के साथ हुई। तकीउद्दीन नूह नाम का हजरत साहब का एक भान्जा था, जिसे हजरत साहब जूनूं की हद तक चाहते थे। अचानक उसका इन्तकाल हो गया। हजरत साहब बेहद दुखी और गुमसुम रहने लगे। वे न तो भरपेट खाते थे और न ही किसी से बोलते थे। बस भान्जे की कब्र पर अगरबत्ती लगाकर उसके पास घंटों गुमसुम बैठे रहते थे। सबके लाख प्रयास करने पर भी कोई उन्हें इस दुख से निजात नहीं दिला पाया। ख्+ाुसरो साहब के सारे प्रयास भी बेकार जा चुके थे। ख्+ाुसरो साहब को भी काफी बेचैनी रहने लगी।
एक मर्तबा ख्+ाुसरो साहब निजामुद्दीन से काफी दूर क्षेत्र भ्रमण पर निकल गये। खेतों में सरसों के पीले-पीले फूल खिले हुए थे। टेसू आदि पेड़-पौधे भी हरियाली और रंग-बिरंगे फूलों से लदे हुए थे। बागों में कोयलें गुनगुना रही थीं। चारों ओर बड़ा ही सुहावना माहौल था। प्राकृतिक छटा को निहारते हुए धीरे-धीरे ख्+ाुसरो साहब काफी आगे निकल गये। वहां उन्हें सामने से लोगों के गाने की आवाज+ सुनाई दी। उस आवाज+ के सहारे वे आगे बढ़ते गये, और लोगों के समीप पहुंच गये। वहां उन्होंने देखा कि लोग (ख्+ाासकर स्त्रियां) पीले वस्त्र पहनकर, बालों और हाथों में सरसों और टेसू के फूल धारण करके टोलियों में नाचते-गाते कालकाजी मंदिर की तरफ बढ़ते चले जा रहे हैं। ख्+ाुसरो ने लोगों से पूछा कि आप लोग कहां और क्यों जा रहे हैं ? लोगों ने बताया कि आज बसंत पंचमी है। अतः हम लोग पूजा-अर्चना करने के लिए कालकाजी मंदिर जा रहे हैं। बड़ा ही मनोहारी माहौल था। उन्हें बेदह रास आया। ख्+ाुसरो को अपने गुरू को खुश करने का माध्यम मिल गया। और वे वहां से वापस चल दिये। खेतों से उन्होंने सरसों और टेसू के फूलों की डालियां तोड़ीं और उनमें से कुछ को अपने सर पर धारण कर लौट दिए। निजामुद्दीन पहुंच कर उन्होंने पीले वस्त्र धारण कर और कुछ स्त्रियों और पुरुषों की टोली के साथ नाचते-गाते हुए हजरत साहब के सामने हाजिर हुए। हजरत साहब उस समय अपने भतीजे की कब्र के पास गुमसुम बैठे हुए थे। साथ हजरत साहब के सामने खूब नाचने-गाने लगे, और सरसों तथा टेसू के फूल अपने गुरू पर चढ़ाने लगे। पीत वस्त्र और नाचने-गाने की शैली से हजरत साहब प्रसन्न हो गये तथा स्वयं भी नाचने लगे। आखिरकार ख्+ाुसरो की शैली से हजरत साहब को, भान्जे के शोक से निजात मिली। हजरत साहब के फरमाने पर उन्होंने यह बसंत गीत भी सुनाया-
सकल बन फूल रही सरसों। सकल बन फूल रही सरसों।
अम्बबा फूटे टेसू फूले कोयल बोले डार-डार।
और गोरी करत श्रृंगार। मलनियां गढवा ले आई करसों।
तरह-तरह के फूल खिलाए। ले गढवा हातन में आए।
निजामुद्दीन के दरवाजे पर। आवन कह गए आशिक रंग।
और बीत गए बरसों। सकल बन फूल रही सरसों।
हजरत साहब के दरबार में बड़े हर्षोल्लास के साथ बसंतोत्सव मनाया गया। धीरे-धीरे यह प्रचलन हिन्दू-मुस्लिम सभी रवायतों में बड़ी धूमधाम के साथ मनाया जाने लगा। और तब से बसंतोत्सव साझी विरासत का पर्याय बन चुका है। हिन्दू-मुस्लिम, दोनों ही संप्रदायों के लोग हर वर्ष इसे बड़ी श्रद्धा के साथ मनाते हैं। बसंत पंचमी का पर्व के दिन हजरत निजामुद्दीन औलिया की मजार पर हर वर्ष मेला लगता है और गायन-वादन का कार्यक्रम भी होता है, जिसमें ख्+ाुसरो साहब द्वारा रचित और गाये गये बसन्त गीत तथा उनकी अन्य रचनाओं को गाया जाता है।
गद्य कृतियां
अमीर ख्+ाुसरो ने अपनी ‘‘एजाजे खुसरवी’’ में यह सिद्ध कर दिखाया है कि वे केवल रोमांटिक काव्य सृजन में ही निपुण नहीं हैं, अपितु गद्य के क्षेत्र में भी खासे दक्ष हैं। ख्+ाुसरो ने अपने समय में प्रचलित नौ विभिन्न शैलियों- सूफी संतों की सरल एवं आडम्बरहीन शैली, विद्वानों और साहित्यान्वेषकों की प्रभावशाली एवं तर्कसम्मत शैली, पंडितों एवं ज्ञानियों की शैल, वाक्पटु व्याख्याताओं की सुबोध या आडम्बरयुक्त शैली, शिक्षकों और उपदेशकों की शैली, जनसाधारण की स्पष्ट, सरल एवं अनलंकृत शैली, शिल्पकारों एवं कारीगरों की आडम्बरहीन शैली, विदूषकों, मसखरों एवं भांड़ों की गुदगुदी पैदा करने वाली शैली तथा धर्मपत्रलेखन कलाकारों की स्पष्ट और मसृण शैली - से अलग नयी शैली@मार्ग की खोज की।
‘‘एजाजे खुसरवी’’ (ख्+ाुसरो का चमत्कार) ख्+ाुसरो की प्रथम गद्य कृति है। इसमें पांच रिसाले हैं अर्थात् यह पांच छोटी-छोटी पुस्तिकाओं में उपलब्ध है। खजाइनुल फतहः (तारीखे इलाही) यह ख्+ाुसरो की दूसरी गद्य कृति है। इसमें अलाउद्दीन खिलजी कालीन घटनाओं का पूरे विस्तार से संकलन है। समकालीन तारीखनवीसों की इतिहास-कृतियों में यह सर्वाधिक प्रामाणिक एवं उपयोगी है। अफजलुल फवायद ख्वाजा निज+ामुद्दीन महबूबे इलाही के कई मुरीद हुए किन्तु उनमें से दो शायरों ने उनके धर्मोपदेशों, प्रवचनों एवं उसूलों का संग्रह कर ग्रंथ रूप में संचयन किया। प्रथम हैं अमीर हसन देहलवी जिन्होंने ‘फवायद उल फवायद’ और दूसरे अमीर ख्+ाुसरो जिन्होंने अफजलुल फवायद में अपने अध्यात्म गुरू के मलफूजात संगृहीत किए।
उपर्युक्त गद्य कृतियां अमीर ख्+ाुसरो की गद्य लेखन की दक्षता को प्रमाणित करती हैं। मध्यकालीन इतिहास के पुनर्लेखन में, ख्+ाासकर राजनीतिक सांस्कृतिक इतिहास के अध्ययन में अमीर ख्+ाुसरो के गद्यग्रंथ अनुकरणीय भूमिका रखते हैं।
पद्य कृतियां
ख्+ाुसरो ने गद्य की अपेक्षा पद्य में रचनाएं अधिक कीं। पद्य में उन्होंने मुकरियां, पहेलियां, कब्बालियों, गजल सरीखे अभिनव प्रयोग भी किये। अनेक राजदरबारों में रहते हुए उन्होंने शासकों की प्रशंसा में काफी लिखा है। इसके अतिरिक्त उन्होंने ज्ञानवद्र्धक, मनोरंजक, सांस्कृतिक समन्वय, समानता से संबंधित तमाम रचनाएं कीं। काव्य के रूप में मुख्यतः उनका निम्न काव्य संग्रह उपलब्ध है-
तोहफतुसिग्र- रचनाकाल हिजरी सन् 671। यह काव्य ख्+ाुसरो ने अपने प्रारंभिक जीवन, सुल्तान ग्यासुद्दीन बलवन और उसके ज्येष्ठ पुत्र सुल्तान नसीरूद्दीन की प्रशंसा में लिखा है।
वस्तुलहयात- रचनाकाल हिजरी सन् 684। इसमें ख्+ाुसरो ने अपने जीवन की घटनाओं के बारे में लिखा है तथा सुल्तान मुहम्मद शहीद की प्रशंसा के कसीदे कसे हैं तथा उनका मर्सिया भी है।
गर्रतुलकमाल- रचनाकाल हिजरी सन् 693। इसमें ख्+ाुसरो ने भारतीय फारसी कविता की समीक्षा की है। ख्+ाुसरो के मुख्य कसीदे ‘जन्नतिल नजात’, ‘मुरातुस्का’ और ‘दरिया अबरार’ मौजूद हैं। यह ख्+ाुसरो का सबसे बड़ा दीवान है।
बकियान- रचनाकाल हिजरी सन् 716। यह ख्+ाुसरो के जवाबी कसीदों का संकलन है। इसमें ख्+ाुसरो ने अलाउद्दीन खिलजी का मर्सिया भी लिखा था।
निहायतुल-कमाल- यह ख्+ाुसरो का गजलों का संकलन है। इसमें सुलतान ग्यासुद्दीन के देहान्त और सुल्तान मुहम्मद तुगलक के सिंहासन पर बैठने का उल्लेख है। यह उच्च कोटि का ग्रंथ है। इसमें कुतुद्दीन मुबारक खिलजी का मर्सिया तथा उसके उत्तराधिकारी की प्रशंसा भी है।
किरानुस्सादेन- ख्+ाुसरो ने इसमें कैकुबाद और बुगराखां के पत्र-व्यवहार एवं समझौते का उल्लेख किया है। यह उनकी अमरकृति मानी जाती है।
मफताहुल फुतूह- इस मसनवी में सुल्तान जलालुद्दीन फीरोज खिलजी के शासन काल का वर्णन किया गया है।
नुहसिपहर (नौ आसमान)- रचनाकाल हिजरी सन् 718। इसमें तत्कालीन सभ्यता एवं सांस्कृतिक एकता पर विशेष जोर दिया गया है। इसमें नौ अध्याय हैं। इसीलिए इसका नाम नुह सिपहर रखा गया है। इसमें ख्+ाुसरो ने भारत की महानता एवं सांस्कृतिक सामंजस्य को उकेरते हुए भारतवर्ष को संसार का स्वर्ग सिद्ध किया है।
तुगलकनामा- ख्+ाुसरो ने इसमें अपने जीवनकाल के अंतिम आश्रयदाता सुल्तान ग्यासुद्दीन तुगलक की जीवनी और विजय गाथा को शामिल किया है।
खम्स-ए-ख्+ाुसरो- यह ख्+ाुसरो की पांच मसवनियों (मतउल अन्वार, शीरीं ख्+ाुसरो, मजनूं व लैला, आइने-ए-सिकन्दरी और हश्तबहित) का संग्रह है।
पहेलियां, मुकरियां एवं गीत-
अमीर ख्+ाुसरो ने फारसी से कहीं अधिक हिंदी में कविताएं रचीं। लेकिन अब कुछ पहेलियों, मुकरियों, दोसुखनों और गीतों को छोड़कर ज्यादातर रचनाएं या तो पूरी तरह परिवर्तित हो चुकी हैं या फिर विलुप्त हो गयी हैं। ख्+ाुसरो की कविताएं और पहेलियां तथा मुकरियां लिखित कम वाचिक ज्यादा थीं। अतः ज्यादातर मौखिक रचनाएं विलुप्त हो रही हैं, क्योंकि समय रहते इनका संकलन नहीं किया गया और न ही ये लिपिबद्ध की गयीं। फिर भी कई गीत ऐसे हैं जिन्हें सभी वर्ग संप्रदाय के लोग आज भी बड़ी तत्परता से गाते हैं।
काहे को ब्याही विदेस, सुन बाबुल मेरे।
अम्मा मोरे बाबा को भेजो, कि सावन आया।
हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रतीक
उच्चकोटि के कवि, साहित्यकार, दार्शनिक की कोई जाति नहीं होती। वह संपूर्ण मानव जगत को केंद्र में रखते हुए अपने विचार प्रकट करता है, कृतियों का सृजन कर जीवन्तता बनाये रखने का कार्य करता है। तात्कालिक परिस्थितियों की अच्छाइयों और बुराइयों का आंकलन कर समाज को एकबद्ध करना उसका मुख्य ध्येय होता है। जीने की उमंग, पूर्णता प्राप्त करने की ललक, जीवन के हर क्षेत्र में छा जाने की मंशा, संघर्षशील रहते हुए ऊँचे उठने की अपूर्व क्षमता, घिसी-पिटी जीवन शैली से हटकर नयी जीवन शैली एवं जीवनचर्या, निरन्तरता बनाये रखना- ये विशिष्टताएं लोगों को महान बना देती हैं और ऐसी महान प्रतिभाओं में अमीर ख्+ाुसरो का नाम बड़ी श्रद्धा और सम्मान से लिया जाता है।
ख्+ाुसरो बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। वे साहित्यकार, दार्शनिक, कुशल राजनीतिज्ञ, संगीतज्ञ, जनरूचि के पोषक, भारतीय संस्कृति के प्रेमी, मनोरंजक साहित्य के प्रणेता के अनुपम संगम थे। ख्+ाुसरो ने हिन्दू-मुस्लिम की खाई से बिखरे, टूटे मानवीय सम्बन्धों को एकता के सूत्र में पिरोने का चमत्कारिक कार्य किया। वे विदेशी, मुसलमान और भारतीय तुर्क होते हुए भी पक्के हिन्दुस्तानी थे। उन्हें यहां की हर चीज से बहुत प्यार था। असीम प्रेम की वजह से ही उन्होंने हिन्दुतान को दुनिया का स्वर्ग कहा था- ‘‘किश्वरे हिंद अस्त बहिश्ती बज+मीं’’, अर्थात् हिन्दुस्तान दुनिया में ज+न्नत है। उनकी सोच जातिगत, देशगत और वर्गगत भेदभाव से मुक्त थी। इसी वजह से उनकी कृतियां तत्कालीन राजनीति, इतिहास, समाज, जनजीवन और देश की मिली-जुली संस्कृति तथा सभ्यता से परिपूर्ण हैं। ख्+ाुसरो अपनी कृतियों के माध्यम से हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रणेता के रूप में सामने आए। पं. सुधाकर पाण्डेय के मतानुसार, ‘‘अमीर ख्+ाुसरो भारतवर्ष के अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति के कवि हैं, अरबी, फारसी, तुर्की तथा हिन्दी साहित्य उनके कृतित्व से श्री सम्पन्न एवं प्रतिष्ठित है। उनका कृतित्व हिन्दू-मुस्लिम सभ्यता के संगम की अनुभूतिमयी अभिव्यक्ति का दृष्टांत है। भाषा एवं भाव सभी क्षेत्रों में यह शिव-सत्य उनके कृतित्व को गौरवपूर्ण ऐतिहासिक महत्व प्रदान करता है।’’ (खलिकवारी, संपा. डा. श्रीराम शर्मा, पृ. 2)।
ख्+ाुसरो ने अपनी रचनायें चाहे हिंदी में कीं या फिर उर्दू, फारसी, अरबी अथवा संस्कृत में, हर एक में हिन्दोस्तान, हिन्दी और यहां की संस्कृति, पक्षी, जानवर, लोगों और प्रचलित विभिन्न उपकरणों की तारीफ ही की। यहां की हर चीज से उन्हें बेहद लगाव था। इस प्रकार वे एक तुर्की मुसलमान होते हुए भी सच्चे भारतीय थे। उन्होंने साहित्य, दर्शन, संगीत तीनों को समन्वयवादी रूप में पेश करने का महान काम किया।
संगीत मानव को जातिगत, वर्गवादी एवं संप्रदायवादी संकुचित धारणाओं से ऊपर उठाकर विभिन्नताओं में साम्य बिठाकर मानवतावादी अनुभूति का सृजन करता है तथा मानव को मानव के करीब लाने का अभूतपूर्व कार्य करता है। ख्+ाुसरो का संगीत के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण योगदान रहा है।
अमीर ख्+ाुसरो लायब्रेरी और पार्क
जनता दल के राज्यसभा सांसद श्री वसीम अहमद ने वर्ष 1996-97 की अपनी सांसद निधि से ख्+ाुसरो साहब के नाम से तहसील के पास लायब्रेरी एवं पार्क की स्थापना करवायी थी। साझा संस्कृति के पैरोकार होने तथा ख्+ाुसरो साहब में दिलचस्पी होने के तहत ही उन्होंने ऐसा करवाया था। पटियाली से स्थानीय ताल्लुक नहीं होने के बावजूद उन्होंने ख्+ाुसरो लायब्रेरी और पार्क बनवाया। वे चाहते थे कि पटियाली, जो ख्+ाुसरो साहब की जन्मस्थली रही है, वहां ख्+ाुसरो साहब की पहचान बरकरार रह सके तथा साझा संस्कृति, जिसकी ख्+ाुसरो साहब तहे दिल से जीवनपर्यन्त साहित्य के माध्यम से बकालत करते रहे और आपसी प्रेम और सौहार्द के साथ रहने का संदेश देते रहे - उसे पुनस्र्थापित किया जा सके, ताकि क्षेत्र में बढ़ रही हिन्दू-मुस्लिम की खाई को पाटा जा सके। सांसद वसीम अहमद साहब की सोच तो बेहद सराहनीय थी मगर तमाम प्रयासों के बावजूद उस सोच सजीव नहीं होने दिया गया। कुछ सालों तक तो जिला एवं स्थानीय प्रशासन ने इसमें दिलचस्पी दिखलाई। परन्तु पिछले करीब पांच-छः सालों से स्थानीय अधिकारियों की लापरवाही एवं ढुलमुल नीति के चलते लायब्रेरी भूतिया महल में बदल चुकी है तथा पार्क जानवरों का चरागाह बन कर रह गया है। लायब्रेरी में न तो पुस्तकें ही हैं और न ही कर्मचारी लोग होते हैं। धीरे-धीरे लायब्रेरी असामाजिक तत्वों का शरणगाह बनती जा रही है। शर्म की बात है कि ख्+ाुसरो साहब अपने ही जन्म स्थान पर पहचान के लिए मोहताज हैं। और यह तब जब वे हिन्दु-मुस्लिम एकता के प्रबल समर्थक और सजीवता प्रदान करने वाले थे।
मकबरा
पटियाली बस्ती से उत्तर दिशा में लगभग एक किलोमीटर की दूरी पर स्थित अति प्राचीन मकबरे के बारे में लोगों में मतभेद है। कुछ लोग इसे अमीर ख्+ाुसरो के खानदान से संबंधित बताते हैं। कहते हैं कि ख्+ाुसरो साहब के खानदान के लोग वहां दफनाये गये थे। वहीं कुछ लोगों का मत है कि यह मकबरा मिश्री खानदान से ताल्लुक रखता है। मकबरे में की गयी दस्तकारी वास्तव में मिश्री दस्तकारी से मेल खाती है। इन लोगों ने लेखक को बताया कि मिश्री खानदान के लोग भी पटियाली में आकर बस गये थे, वे काफी धनाड्य थे। यह मकबरा उन्हीं के खानदानियों का है। यद्यपि इस बारे में कोई स्पष्ट प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं।
जो भी हो, मकबरा बहुत पुराना है और एकदम जर्जर हालत में है। लोग इसके चूने को खुरच कर औषधि के रूप में प्रयोग करने के लिए ले जाते हैं। लोगों की मान्यता है कि पेट दर्द, शरीर दर्द सरीखे विकारों में यह चूना रामबाण सिद्ध हो रहा है। स्थानीय लोगों ने बताया कि लगभग 200 सालों से मकबरा बीच से फट गया है। मकबरे के बुर्ज पर गोदनी का एक बहुत मोटा पेड़ खड़ा है। इस पेड़ को लोग पीढ़ी-दर-पीढ़ी लगभग 200 सालों से ऐसा ही देखते आ रहे हैंं। निश्चित ही मकबरे के फटने का कारण ही बुर्ज पर खड़ा पेड़ रहा होगा। यह पेड़ इतना मोटा है कि इसका तना दो लोगों की कोली में भी नहीं समाता है।
कुआँ (बाबरी)
पटियाली से सिढ़पुरा-एटा मार्ग पर इण्टर काॅलेज के पास एक कुआं है जिसके बारे में लोगों की मान्यता है कि यह वही कुआं है जिस पर अमीर ख्+ाुसरो ने पानी भर रही 4 सखियों को उनकी शर्त के तहत गीत सुनाया था। यह कुआँ एकदम जर्जर हालत में है। उस समय घड़ों और कलसों का प्रचलन था। कुआं से पानी निकालने के लिए चरखी (गिर्री) और रस्सी का उपयोग किया जाता था। साथ ही बिना चरखी के भी पानी भरा जाता था। पानी भरने वाली रस्सी के निशान आज भी कुएं की सिलों पर मौजूद हैं, और पानी भरने के बर्तनों को रखने के स्थान भी काफी गहरे हो चले हैं। सखियों ने गीत सुनने के बाद ही ख्+ाुसरो को पानी पिलाया था। इस कुएँ के संबंध में कहा जाता है कि एक मर्तबा ख्+ाुसरो साहब बाहर से भ्रमण करके पटियाली वापस लौट रहे थे। गर्मियों की चिलचिलाती धूप से उकता चुके थे। बहुत तेज प्यास लगी थी। पटियाली के करीब ही बाग के किनारे पर स्थित कुआं था, जिस पर ख्+ाुसरो ने 4 सखियों को पानी भरते हुए देखा। सखियों की भी नजर ख्+ाुसरो पर पड़ी और वे आपस में कहने लगीं, कि अरी देखो ख्+ाुसरो साहब आ रहे हैं और वे हमारी तरफ ही बढ़ रहे हैं। ख्+ाुसरो ने कुएं के करीब पहुंच कर सखियों से पानी पिलाने का आग्रह किया। सखियों ने उनका आग्रह एक शर्त पर स्वीकार करने को कहा। वह अनुग्रह था कि ख्+ाुसरो साहब आप हमें गीत सुनाएं। प्यास के मारे उनका दम निकला जा रहा था। ख्+ाुसरो ने उनकी शर्त मंजूर कर ली। सखियों ने बारी-बारे से अपनी-अपनी इच्छा बतायी। पहली सखी ने खीर पर; दूसरी ने चरखा पर; तीसरी ने कुत्ता पर और चैथी ने ढोल पर गीत सुनाने को कहा। ख्+ाुसरो साहब गीत और कविता करने में माहिर थे ही। अतः उन्होंने सखियों से आग्रह किया कि यदि मैं चारों को एक ही गीत में कविता सुना दूं तो चलेगा। सखियां राजी हो गयीं। तत्पश्चात् ख्+ाुसरो साहब ने ये लाइनें सखियों को सुनायीं-
खीर पकाई जतन से चरखा दिया जलाय।
आया कुत्ता खा गया तूं बैठी ढोल बजाय।
गुम्बद@चबूतरा
कुएं से कुछ दूरी पर ही जर्जर हालत में एक गुम्बद हैं कहा जाता है कि ख्+ाुसरो साहब के जमाने में लोग इस गुम्बद में नमाज अदा करने के लिए आते थे।
क्या कहते हैं पटियालीवासी
सांप्रदायिक उन्माद तथा दंगों को कैसे रोका जा सकता है ? इस बारे में लेखक ने स्थानीय लोगों से जब बातचीत की, तो लोगोें का कहना था कि यद्यपि यहां कोई बड़ा दंगा नहीं हुआ है। कभी-कभार सांप्रदायिक उन्माद जरूर पनपा है। लेकिन स्थानीय जनता के प्रयासों से स्थिति सामान्य बनती रही है। लेकिन कई बार स्थिति बेकाबू सी हो जाती है। इस स्थिति से निबटने के लिए एहतियात के तौर पर क्या कदम उठाये जा सकते हैं, इस संबंध में स्थानीय लोगों के साथ हुई बातचीत के अंश नीचे दिए जा रहे हैं-
यद्यपि दशकों से यहां पर सांप्रदायिक दंगे नहीं भड़के हैं। 6 दिसंबर, 1992 को बाबरी मस्जिद विध्वंस के समय शहर में तनाव तो काफी रहा लेकिन कोई अप्रिय घटना नहीं घटी। यहां के लोगों ने शांति मार्च निकाली। सेठ राम निवास जी का इसमें बहुत बड़ा सहयोग रहा। इस शांति मार्च में खासकर हिन्दू लोगों ने बढ़-चढ़ कर शिरकत की थी। फिर भी एक काम यह किया जा सकता है कि हर मोहल्ले में अमन कमेटियां बनें, जिनमें हिन्दू-मुस्लिम दोनों लोगों को शामिल किया जाय। ये लोग किसी भी वारदात या तनाव की स्थिति में वहां पहुंचकर उचित निदान ढूंढें। स्वयं हल निकाल सकने में समर्थ न हों तो शहर की अन्य कमेटियों की साझा बैठक कर उसका समाधान करें।
- पदम सिंह, पटियाली
मेरे खयाल से हिन्दू-मुस्लिम को एक दूसरे के व्यापार@काम में हाथ बंटाना चाहिए। ऐसा करने से आपसी प्यार और मेलमिलाप बढ़ेगा। साथ ही हिन्दू-मुस्लिम वाली सोच भी बदलेगी।
- संत राम, पटियाली
जनाब ख्+ाुसरो साहब से यहां की अवाम ने बहुत कुछ हासिल किया। उस समय जब हिन्दू-मुस्लिम का भेद परवान चढ़ा हुआ था, उस समय ख्+ाुसरो साहब ने साझी संस्कृति और सूफियाने ढंग से आपसी मेल और वर्गवाद से दूर रहने के लिए अपने साहित्य के माध्यम से यहां के लोगों में जागृति लाने का निरन्तर प्रयास जो किया उसकी बदौलत ही जब देश सांप्रदायिक आग जल रहा था, पटियाली में किसी भी प्रकार की अप्रिय घटना या दंगा नहीं हुआ। अतः ख्+ाुसरो साहब के साझा विरासत से ताल्लुक रखने वाले साहित्य की खोज होनी चाहिए और उसका संपादन कराके लोगों के बीच उसका वितरण किया जाना चाहिए। शुरू में यह काम विधिवत् किसी स्वतंत्र संगठन@निकाय को करना चाहिए। ख्+ाुसरो महोत्सव को पुजर्नीवित किया जाना चाहिए।
- अमर सिंह शाक्य, गंजडुन्डवारा

ख्+ाुसरो साहब के साहित्य पर शोध होना चाहिए। उनकी वे साहित्यिक रचनायें, जिनमें साझी विरासत का संदेश है, जो समाज में आज भी बिखरी पड़ी हैं, उनको एकत्रित किया जाय। संकलन हो। पटियाली में ‘अमीर ख्+ाुसरो’ स्मारक बनना चाहिए। यदि संभव हो तो उनके जन्म स्थान की भी की जानी चाहिए। यद्यपि जन्म स्थान की पहचान असंभव काम है। उनके साहित्य को शैक्षिक पाठ्य पुस्तकों में भी शामिल किया जाना चाहिए। उनके साहित्य के संकलन और संपादन से लोगों में आपसी प्यार और मौहब्बत बढ़ेगी, ऐसा मेरा विचार है।
- इसरत अली अंसारी, गंजडुन्डवारा
चेयरमेन आबिद हुसैन से बातचीत
पटियाली के वर्तमान चेयरमेन आबिद हुसैन से काफी अच्छी बातचीत हुई। उन्होंने काफी जानकारियां उपलबध करवाईं। उन्होंने बताया कि ख्+ाुसरो साहब तुर्की महाजन थे। सब उन्हें तुर्क कहकर ही बुलाते थे। यहां तक कि उनके गुरू हजरत निजामुद्दीन साहब भी उन्हें तुर्क कह कर ही पुकारते थे। मोहल्ला शहन तुर्कियों का मोहल्ला रहा है। मुस्लिम शासकों के तख्ता पलटने पर काफी सम्पन्न तुर्क परिवार यहां से पलायन कर कहीं और चले गये। जो बचे थे वे भी जमींदारी प्रथा समाप्त होने पर तथा व्यापार और जीविका के साधनों के अभाव में यहां से जाकर बाहर कहीं बस गये। उनके जन्म स्थान के बारे में कुछ पता नहीं है। हां, इतना जरूर है कि जल निगम की पानी की टंकी जहां बनी हुई है, लोग संभावना व्यक्त करते हैं कि उनका जन्म स्थान वहीं था। यद्यपि इस बारे में कोई ठोस साक्ष्य मौजूद नहीं हैं। अदीबुर्रहमान नाम का केवल एक तुर्क परिवार ही बचा है। वह भी बदहाली की जि+ंदगी जी रहा है। वह भी गरीबी और साधनविहीन होने के कारण समाप्ति के कगार पर है। उनकी तहजीब ब्रज और गंगा-जमुनी थी।
अनवर अली (ईसार मियाँ), पटियाली
अनवर अली ने साक्षात्कार में लेखक को बताया कि अमीर ख्+ाुसरो कल्चरल सोसाइटी यहां पर काम कर रही है। इसका मुख्य उद्देश्य साझा संस्कृति से संबंधित कार्यक्रम पेश करना है। लेकिन अब इसमें भी कुछ शरारती लोगों ने टूट पैदा करवा दी है, जिसकी वजह से सोसाइटी ठीक से काम नहीं कर पा रही है। सोसाइटी राजनीतिक कूटनीति का शिकार हो गयी है। शेरवानी-अमीर ख्+ाुसरो इस्लामिया प्राइमरी स्कूल भी चल रहा है। सोसाइटी के प्लाट पर पिछले कई वर्षों से स्थानीय विधायक राजेन्द्र सिंह चैहान के कब्जे में है। राजेन्द्र सिंह जी वर्तमान में उ. प्र. की सपा सरकार में राज्य मंत्री हैं। उन्होंने इस प्लाट को यह कह कर कब्जाया था कि प्लाट पर हम सरकारी गेस्ट हाउस@विवाह स्थल बनवायेंगे, जो सीधे एसडीएम और तहसीलदार के अधिकार क्षेत्र में होगा। लेकिन राजेन्द्र सिंह चैहान ने इसे तत्कालीन एसडीएम नवाब अली के साथ मिलकर इसे व्यक्तिगत संपत्ति बना रखा है।
साझा संस्कृति को दृष्टि में रखते हुए शांति और आपसी प्यार कायम रखने के लिए एटा के तत्कालीन जिलाधिकारी श्री उमेश सिन्हा ने एटा जनपद में सांस्कृतिक उपलब्धियों को पुनस्र्थापित करके जनजागरण के मद्देनजर एटा जनपद के सोरों में ‘तुलसी महोत्सव’, एटा खास में ‘रंग महोत्सव’ (नुमाइश) तथा पटियाली में ‘ख्+ाुसरो महोत्सव’ के आयोजनों का शुभारम्भ करवाया था। तत्कालीन एसडीएम पटियाली श्री पी.सी. मिश्रा ने अगाध लगन और श्रद्धा से ‘ख्+ाुसरो महोत्सव’ का आयोजन करवाया था। आयोजन बड़ा ही सफल रहा। इस आयोजन में हिन्दुओं ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया था, लगभग 65 प्रतिशत हिन्दुओं ने शिरकत की थी। इस कार्यक्रम के लिए रु. 25,000 जनपद प्रशासन मुहैया कराता था, शेष खर्च की भरपाई चन्दा आदि से होती थी। लगभग पांच साल तक यह आयोजन चलता रहा। आयोजन एक बड़े मेले का रूप ले चुका था। पिछले दो साल से यह आयोजन बन्द है। इस कार्यक्रम को बन्द करवाने में एसडीएम नवाब अली की अहम भूमिका रही है। उन्हें हिन्दू-मुस्लिम एकता की यह अनूठी मुहिम गले नहीं उतरी और उन्होंने कुछ असामाजिक तत्वों के साथ मिल कर राजनीतिक कूटनीति के तहत इसे बन्द करवा दी।
हम चाहते हैं ये आयोजन पुनः शुरू होने चाहिए। इन आयोजनों से आपसी प्यार और मिश्रित संस्कृति को बढ़ावा मिलता है। हिन्दू-मुस्लिम का भेद मिटता है। सबसे ज्यादा तो नई पीढ़ी को एक नई सोच और संस्कृति मिलती है, जो वर्गभेद रहित होती है। साथ ही अमीर ख्+ाुसरो साहब का स्मारक भी बनना चाहिए।
लेखक की ओर से . . . . . .
भाषा की दृष्टि से खुसरो और कबीर ही वास्तव में हिन्दी के ऐसे कवि हैं जो आज के पाठक समुदाय के लिए अधिक से अधिक प्रासंगिक और उपयोगी हैं। अन्य कवि तो एक भिन्न भाषा के कवि हैं। चूंकि अन्य कवियों का क्षेत्रीय भाषाओं से सरोकार पहले रहा है, हिन्दी से तो बाद में; जबकि खुसरो और कबीर का तो हिन्दी से सीधा सरोकार रहा है। इस दृष्टि से आज के संदर्भ में भी खुसरो और कबीर ज्यादा प्रासंगिक, उपयोगी और बोधगम्य हैं। साहित्य के क्षेत्र में भी खुसरो और कबीर का सानी नहीं। खुसरो में विचारों और विश्लेषण की ख्+ाासी पकड़ थी। इससे यह सिद्ध होता है कि खुसरो हिंदी साहित्य के प्रकाण्ड विद्वान थे। खुसरो का जीवन एवं कार्य-शैली पुरुषार्थ प्रधान थी। इसीलिए खुसरो के संपूर्ण साहित्य और लेखन में पुरुषार्थ की प्रधानता झलकती है। अपनी पुरुषार्थ प्रियता के माध्यम से वे भारतीयों में खोया हुआ आत्मविश्वास और पुरुषार्थ जगाना चाहते थे।
यद्यपि लोगों में तुर्क और मुगल शासकों के संबंध में यह धारणा बनी हुई है कि वे लोग सत्ता हथियाने के लिए की जाने वाली तबाही, दमन और शोषण को छुपाने के लिए भयाक्रान्त जनता में धर्मान्धता फैलाकर उनका मानसिक शोषण भी करते थे। इसके लिए वे सूफी संतों, शेखों, पुरोहितों आदि को भी रखते थे। क्योंकि यह तो सदियों से होता आ रहा है कि धर्म के माध्यम से लोगों में अंधविश्वास फैला कर उन्हें दिग्भ्रमित करके, वर्ण और जातियों में बांट कर लड़वाते रहना ताकि भोलीभाली जनता जागृत न हो सके, नहीं तो उनके अत्याचार और शोषण के विरोध में खड़ी हो जायेगी, तब उनका शासन कर सकना बहुत मुश्किल हो जायेगा। इसीलिए जनशोषण के लिए उस समय के शक्तिशाली शासकों ने कानून से भी बड़ा हथियार धर्म को बना रखा था। साथ ही जनशोषण को पुष्टता प्रदान करने के लिए तथाकथित पुरोहित, शेख तथा सूफी संत आदि पाल रखे थे।
लेकिन खुसरो के संदर्भ में ऐसा नहीं कहा जा सकता। वे वास्तव में एक सच्चे भारतीय थे। जिन सूफी संत ‘हजरत निजामुद्दीन साहब के वे शिष्य थे, वे बहुत ही पहुंचे हुए सच्चे सूफी संत थे, जो यहां की दीन-हीन और शोषित जनता के सच्चे कदरदार, चिंतक और प्रश्रयदाता थे। वे जीवनपर्यन्त दीन-हीन, शोषित तथा वंचित जनसमुदाय के कल्याण की सोचते रहे, और शक्ति से अधिक सहयोग करते रहे। फिर ऐसे सूफी संत के शिष्य खुसरो भला कैसे अन्यत्र सोच रख सकते थे।
सवाल हैं कि हिंदी के प्रकाण्ड पण्डित खुसरो आज के हिंदी साहित्य में कितने सार्थक और प्रासंगिक हैं ? और यदि नहीं तो क्यों ? आज खुसरो को एक महान साहित्यकार के रूप में प्रतिष्ठापित करने की जरूरत क्यों है ? क्या खुसरो एक प्राचीन साहित्यकार हैं ? खुसरो के साहित्य शोघ को संकलित कर जन-जन तक पहुंचाने से समाज में क्या बदलाव आ सकता है ? वे क्या कारण रहे जिनकी वजह से हिंदी जगत ने तथा सरकारों ने खुसरो पर ख्+ाास तवज्जो नहीं दी ?
यह सच है कि कवि@साहित्यकार का व्यक्तित्व उसकी कविताओं@साहित्य में छुपा होता है। उसके साहित्य में उस काल विशेष की विशिष्टताओं का समावेश रहता है और उत्कृष्ट साहित्य अपने समय का इतिहास भी होता है। प्रतिभा सम्पन्न साहित्यकार का साहित्य युगान्तरकारी भी होता है। ऐसे साहित्यकार का साहित्य उसके समय में तो उपयोगी और सार्थक रहता ही है, उसके बाद में भी समीचीन होता है। खुसरो इसी श्रृंखला के सर्वोत्कृष्ट साहित्यकारों में से एक थे। वे अपने काव्य के माध्यम से उत्पीडि़त, शोषित, वंचित तथा वर्गभेद से ग्रसित समाज में साम्यता, एकरूपता और सजगता का संचार करना चाहते थे। इसीलिए उन्होंने अपनी रचनााओं में समाज के सभी वर्गों को समेटा। यद्यपि खुसरो साहब मुगल शासकों के दरबारों में रहते हुए उनके लिए लिखते रहे, फिर भी उन्होंने तार-तार होेते भारतीय समाज के दुख-दर्द को नजदीकी से समझा-जाना तथा उनमें साहस जगाने का काम किया। यही कारण है कि आज सभी धर्मों के लोग हजरत निजामुद्दीन साहब और खुसरो साहब की मजार पर बड़ी तत्परता से श्रद्धा सुमन अर्पित करने जाते हैं।
खुसरो साहब का साहित्य जातिवाद और सांप्रदायिकता जैसी अमानवीय सोच और धारा के परे था। उनका साहित्य तो समाजवादी और जनवादी है। उसमें साम्यता है, समन्वयवादी है तथा शोषितों एवं वंचितों को सम्मान दिलाता है। अफसोस कि जिन खुसरो और कबीर जैसे रचनाकारों ने हिंदी को एक ख्+ाास पहचान दिलायी, जिसकी वजह से हिंदी राष्ट्रभाषा का सम्मान प्राप्त कर सकी, इतने विशिष्ट साहित्यकारों के साहित्य पर सच्चाई के साथ शोध नहीं हुआ। यदि हिंदी को सही सम्मान दिलाना है तो खुसरो और कबीर सरीखे साहित्यकारों के साहित्य को पूर्णता तथा ईमानदारी के साथ स्थापित करना होगा। अमीर खुसरो पर उपलब्ध संकलनों एवं विभिन्न लोगों से संपर्क करने पर मिली जानकारियों को संक्षेप में मैं इस पुस्तिका के माध्यम से आप तक पहुंचा रहा हूं।
अमीर ख्+ाुसरो (अबुल हसन)
अबुल हसन ‘‘अमीर ख्+ाुसरो’’ का जन्म उत्तर प्रदेश राज्य के एटा जि+ले के पटियाली गांव में सन् 1253 में हुआ था। वर्तमान में पटियाली एटा जि+ले की एक तहसील है। इनके पिता मौहम्मद सैफुद्दीन सुलतान अल्तुतमिश के शासनकाल में तुर्किस्तान से आकर यहां बसे थे। पिता सैफुद्दीन महमूद तुर्किस्तान के एक लाचीन कबीले के सरदार थे। मुगलों के अत्याचार से तंग आकर वे 13वीं सदी में भारत आये और पटियाली (जिला एटा) उत्तर प्रदेश में बसे। उन दिनों यहां सुलतान अल्तुतमिश का शासन था। वे एक वीर लड़ाका थे। अल्तुतमिश ने ऊंचे औहदे पर उन्हें अपने दरबार में रख लिया। जब अबुल हसन 10 वर्ष के थे तो इनके पिता युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हो गए थे। उसके बाद उनका लालन-पालन उनके नानाजी एमादुल मुल्क ने किया। नाना बादशाह बलवन के दरबारी थे। ख्+ाुसरो ने पटियाली में अपनी उम्र के 12 वर्ष गुजारे। कुछ दिनों वे बदायूं में भी रहे। इसके बाद वे दिल्ली चले गये।
ख्+ाुसरो के जन्मस्थान के संबंध में विद्वानों में मतभेद है। कुछ लोग ख्+ाुसरो की जन्मस्थली दिल्ली मानते हैं। इनका मानना है कि जब ख्+ाुसरो पैदा हुए थे तो इनके पिता इन्हें बुर्के में लपेटकर एक सूफी संत के पास ले गये थे, जिन्होंने इन्हें एक महान व्यक्ति बताया था। ये संत कोई और नहीं बल्कि स्वयं हजरत निजामुद्दीन औलिया ही थे। ख्+ाुसरो अपनी फारसी शायरी के लिए फारस (ईरान) में प्रसिद्ध हो गये थे। वहां के समकालीन कवि उन्हें ‘ख्+ाुसरो देहलवी’ के नाम से संबोधित करते थे। ख्+ाुसरो के उपलब्ध हिंदी छंदों की भाषा या तो खड़ी बोली है या फिर अवधी। खड़ी बोली दिल्ली में बोली जाती है। ये लोग ‘शिकायतनामा मोमिनपुर-पटियाली’ का भी उदाहरण पेश करते हैं। ख्+ाुसरो के नाना का नाम रावल अमादुलमुल्क था, जो मूलतः हिन्दू थे। बाद में उन्होंने इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया था। इनके नाना दिल्ली में रहते थे।
कुछ लोग तो ख्+ाुसरो को भारत से बाहर का मानते हैं। ऐसे लोगों का मत है कि 1253 में ख्+ाुसरो के जन्म के समय पटियाली में जंगल था। वहां न तो कोई बादशाही किला था और ना ही बस्ती। पटियाली में बादशाही किला वहां के स्थानीय बागी राजपूतों को दबाने के लिए बनवाया गया था। किला बन जाने के बाद ही वहां आबादी बसी।
लेकिन अधिकांश साक्ष्यों एवं उपलब्ध सामग्री के आधार पर उनका जन्म पटियाली, एटा में हुआ था इसी मान्यता को प्रधानता मिली हुई है। ए. जी. आर्बरी की प्रसिद्ध पुस्तक ‘क्लासिकल पर्शियन लिटरेचर’ तथा ‘एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका’ जैसे प्रामाणिक ग्रंथों में यही स्वीकार किया गया है।
इसी तरह ख्+ाुसरो की जन्म की तारीख के संबंध में भी मतभेद है। उनका जन्म सन् 1252, 1253, 1254, 1255 और 1259 माना जाता है। लेकिन जो प्रमाण उपलब्ध हैं उनके आधार पर उनका जन्म 652 हिजरी माना जाता है, जिसके आधार पर सन् 1253 ही सही बैठता है।
पटियाली ग्राम ने अनेक ऐतिहासिक उतार-चढ़ाव देखे हैं और तय किया है हजारों सालों का सफर। तमाम वाकया उजड़ी-बसी पटियाली की खासियत यह रही है कि अति प्राचीन समय से ही इसकी आबादी लगभग अपने पुराने आंकड़े के इर्द-गिर्द ही घूमती रही है। अर्थात् 6 से 7 हजार के आस-पास। पटियाली का नाम समय-समय पर बदलता रहा है। कहा जाता है कि महाभारत काल में पटियाली का नाम द्रुपद नगर था और द्रोपदी स्वयंवर यहीं हुआ था। द्रुपद कालीन प्राचीन मंदिर पटियाली में मौजूद है, जिसके बारे में बताया जाता है कि इसका निर्माण कभी राजा द्रुपद ने कराया था। पटियाली संतों की नगरी थी। कुछ दिनों तक इसका नाम चंपत नगर भी रहा, जो व्यापार का एक अच्छा केन्द्र था। मोमनाबाद@मोमिनपुर भी इसका नाम रहा है। बताते हैं कि कभी पटियाली से कम्पिल तक सुरंग रही थी। कंपिल (कपिलवस्तु की नगरी है) जहां कपिल मुनि का आश्रम था। जन्म के तुरंत बाद ख्+ाुसरो के पिता उन्हें इसी आश्रम के तत्कालीन संत के पास लेकर गये थे। उन संत ने बालक के ललाट के तेज को देख कर इन्हें व्यक्तित्व का धनी बताया था। वास्तव में उन संत के वचनानुसार वही बालक आगे चलकर ख्+ाुसरो के रूप में महामानव बना।
हजरत निजामुद्दीन औलिया के समय में उनके आश्रम पर वहां जाने वाले हर सख्+श को भरपेट मुफ्त खाना मिलता था। उनके आश्रम पर लोग बड़ी श्रद्धा और लगन से जाते थे। इनमें हर वर्ग के लोग होते थे किसी तरह का कोई भेदभाव नहीं था। अमीर ख्+ाुसरो जब दिल्ली में हजरत निजामुद्दीन साहब के आश्रम पहुंचे। भोजन का समय था। वहां खाना बांटा जा रहा था। उस समय खाना परसाद स्वरूप हाथ में ही दिया जाता था। कोई अलग से पात्र नहीं होता था। श्रद्धालुओं की भीड़ बहुतायत में थी। भीड़ अधिक होने और खाना हाथ में ले लेने के बाद उन्हें और खाना लेने की इच्छा हुई तो उन्होंने पास में रखे हुए जूतों में खाना रखवा लिया। इत्तेफ+ाक से वे जूते हजरत साहब के थे तथा हजरत साहब यह सब देख रहे थे। बस फिर क्या था, रूहानी पसन्द तबियत को देखकर हजरत साहब ने उस बालक, ख्+ाुसरो पर रूहानियत की वो बरसात की कि 12 साल का वह बालक हजरत निजामुद्दीन औलिया की नजरों में औलिया बन गया।
अमीर ख्+ाुसरो अपने जीवनकाल में अनेक राजदरबारों से जुड़े रहकर लोकप्रियता और सम्मान अर्जित करते रहे। ख्+ाुसरो ने सर्वप्रथम प्रसिद्ध सुल्तान गयासुद्दीन बलवन के बेटे मुहम्मद सुल्तान के राजदरबार में नौकरी की थी। मुहम्मद सुल्तान काव्य प्रेमी थे। गयासुद्दीन तुगलक के दरबार में रहकर ख्+ाुसरो ने अपने जीवन की प्रसिद्ध रचना ‘तुलगक नामा’ लिखी। सन् 1324 में ख्+ाुसरो गयासुद्दीन तुगलक के साथ बंगाल की चढ़ाई पर गये। इसी दौरान उनके धार्मिक गुरू हजरत निजामुद्दीन औलिया जी चल बसे। उनकी मृत्यु के समाचार से वे बहुत आहत हुए। वे बंगाल से तुरन्त निजामुद्दीन वापस आ गये। ख्+ाुसरो ने सबकुछ लुटाकर अपने गुरू हजरत औलिया की कब्र के पास जाकर - ‘गोरी सोवै सेज पै, मुख पर डारे केस। चल ख्+ाुसरो घर आपने, रैन भई चहुं देस।’ दोहा लिखकर अंतिम सांस ली। अमीर ख्+ाुसरो की मृत्यु होने पर उनकी इच्छा के तहत, उनको ‘धर्मगुरू’ की कब्र के पैताने ही दफनाया गया। इतिहास प्रसिद्ध धनी व्यक्ति ताहिर बेग ने उनका एक शानदार मकबरा बनवाया था। यद्यपि ख्+ाुसरो आज हमारे बीच मौजूद नहीं हैं फिर भी उनके द्वारा रचित साहित्य की विपुलता आज भी उन्हें अमर करने में सहायक सिद्ध हो रही है।
काव्य के क्षेत्र में ख्+ाुसरो ने किसी को भी अपना गुरू नहीं बनाया। उन्होंने शेख सादी, सनाई, ख्+ााकानी तथा कमाल आदि के तत्कालीन उपलब्ध काव्य ग्रंथों से शिक्षा ग्रहण कर ज्ञानार्जन किया। इस संबंध में उन्होंने स्वयं कहा कि मैं किसी अच्छे कवि, काव्य सम्राट को अपना उस्ताद नहीं बना सका, जो मुझे शायरी का रास्ता बताता और मेरी काव्यगत कमजोरियां बताकर उन्हें दूर करवाता। अपनी रचना ‘गुर्रत्तुल कमाल’ में ख्+ाुसरो ने स्वयं उल्लेख किया है कि उन्होंने शहाबुद्दीन नामक व्यक्ति से अपनी ‘हस्त बिहिश्त’ नामक काव्य का संशोधन करवाया था। शहाबुद्दीन एक कवि तो नहीं थे विद्वान जरूर थे। शहाबुद्दीन ने काव्यगत ग+लतियों को एक दुश्मन की तरह ढूंढ़ कर सुधारा और एक दोस्त की तरह मेरी सराहना की।
ख्+ाुसरो फारसी, हिंदी, तुर्की, अरबी तथा संस्कृत आदि भाषाओं के ज्ञाता थे। साथ ही दर्शन, धर्मशास्त्र, इतिहास, व्याकरण, युद्ध विद्या, ज्योतिष और संगीत आदि की भी अच्छी जानकारी थी। इतनी अधिक दक्षताएं उनके स्वयं सीखने की प्रकृति एंव अधिकाधिक ज्ञानार्जन की प्रवृत्ति के चलते थीं। साथ ही इसमें नाना अमादुलमुल्क के संरक्षण की भी अहम भूमिका थी, जिनकी सभा में विद्वान, कवि तथा संगीतज्ञ आदि अक+सर आते थे, जिनसे ख्+ाुसरो को सहज ही ज्ञानार्जन का लाभ मिलता रहता था।
ख्+ाुसरो बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। अमीर ख्+ाुसरो अपने समय के सूफी संतों में महान सन्त, विद्वानों में महान विद्वान, साहित्यकारों में महान साहित्यकार, दार्शनिकों में महान दार्शनिक तथा संगीतकारों में महान संगीतकार थे। बाल्यावस्था में ही अमीर ख्+ाुसरो अपनी कुशाग्र बुद्धि और प्रतिभा से विद्धानों को प्रभावित करने लगे थे। 8 वर्ष की अल्पायु में ही वे गूढ़ कविताएं लिखने लगे थे। छोटी उम्र में ही उत्कृष्ट किस्म की रचनाएं लिखने की वजह से उस समय के विद्वान ख्+ाुसरो की प्रतिभा और उम्दा रचनाओं की सराहना करते नहीं थकते थे। जब ख्+ाुसरो 12 वर्ष के थे तो इनके पिता युद्ध करते-करते वीरगति को प्राप्त हो गये। पिता की मृत्यु के बाद वे अपनी मां के साथ अपने नाना के यहां दिल्ली आ गये, जहां इनकी देखभाल इनके नाना ने की।
ख्+ाुसरो की प्रतिभा को देखते हुए इंग्लैंड-फ्रांस के लोगों ने भी इनके साहित्य को खूब सराहा। ताशकन्द विश्वविद्यालय ने तो अमीर ख्+ाुसरो को ‘तूतिये हिन्द’ की उपाधि से नवाजा था।
सबसे पहले उन्होंने फारसी में कवितायें लिखनी शुरू की। कैकुबाद दिल्ली के प्रथम शासक थे जिन्होंने उन्हें अपना दरबारी बनाया। उसके बाद वे बलवन जलालुद्दीन तुगलक की सेवा में रहे। इसी दरबार में उन्होंने अपनी प्रसिद्ध रचना ‘‘तुगलकनामा’’ लिखी। अपने जीवनकाल में वे अनेक राजदरबारों से जुड़े रहकर सम्मान और लोकप्रियता अर्जित करते रहे। गायकी, संगीत, भाषा, रहस्यवाद, इतिहास, दर्शन आदि के क्षेत्र में उनकी अच्छी ख्+ाासी पकड़ थी। उनकी रचनाओं में हिंदी और फारसी का मिला-जुला पुट मिलता है। उनकी फारसी रचनाओं में हिंदी और हिंदी रचनाओं में फारसी का सामंजस्य पाया जाता है। उस समय अधिकांश रचनाएं मुंहजुबानी ही रहती थीं और रचनाओं को संकलित करने का कुछ ख्+ाास रिवाज नहीं था। यही कारण है कि उनकी हिन्दी रचनाओं का कोई प्रमाणित और सर्वमान्य संकलन मौजूद नहीं है। श्लेषात्मक प्रतिभा के माहिर ख्+ाुसरो ने हिंदी साहित्य, संगीत और भाषा विज्ञान के क्षेत्र में अनेक नए प्रयोग करके उसे सम्पन्न किया। कव्वाली व खयाल गायकी उन्हीं की देन है।
ख्+ाुसरो अपने गुरू हजरत औलिया से बेइन्तहा प्यार करते थे। जिन दिनों वे अपने अन्तिम आश्रयदाता ग+यासुद्दीन तुगलक के साथ बंगाल आक्रमण पर गये हुए थे, उसी दौरान हजरत औलिया साहब का देहान्त हो गया। अपने गुरू के देहान्त का समाचार पाकर ख्+ाुसरो बेहद आहत हुए। वे तुरन्त दिल्ली वापस लौट आए। वापस आकर उन्होंने काले वस्त्र धारण कर लिये और उनके पास जो कुछ था उसे दोनों हाथों से लुटाने लगे। अपने गुरू के देहान्त से वे इतने अधिक आहत हो गये कि छः माह बाद 725 हिजरी अर्थात् सन् 1325 में यह छन्द पढ़ते हुए अमीर ख्+ाुसरो ने अंतिम साँस ली-
गोरी सोवे सेज पर मुख पर डारे केस।
चल ख्+ाुसरो घर आपने रैन भई चहुं देस।
पूर्व प्रधानमंत्री श्री इंद्र कुमार गुजराल 1976 से 80 के बीच जब रूस में भारत के राजदूत थे, उस वक्त ताशकन्द में ख्+ाुसरो पर एक कार्यक्रम आयोजित किया गया था। श्री गुजराल जी उस कार्यक्रम के मुख्य अतिथि थे। उस समय उन्होंने ख्+ाुसरो पर जानकारियां हासिल करने के लिए भारत सरकार और प्रशासन पटियाली (एटा) को पत्र लिखे थे। जो पत्र उन्होंने लिखा था वह जफर अली के पास है। श्री जफर अली मूलतः पटियाली के ही रहने वाले हैं। अपने प्रधानमंत्रित्व काल में श्री गुजराल जी ने उन्हें अपने पास बुलाया भी था लेकिन वे उनसे मिलने दिल्ली नहीं पहुंचे। वे आजकल अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, अलीगढ़ में रहते हैं। उनके पुत्र अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के मेडिकल काॅलेज में पढ़ाते हैं।
अमीर ख्+ाुसरो एक अच्छे गायक और संगीतकार भी थे। ख्+ाुसरो को उनकी बाल्यावस्था से ही बहुत सराहा गया था। जिसने उनको जितना समझा उसने उतना कह दिया। ख्+ाुसरो की महानता को समझने के लिए उनकी रूहानियत को समझना होगा। मजे की बात यह थी कि ख्+ाुसरो को अपने द्वारा रचित रचनायें, साहित्य आदि कंठस्थ थे।
सामाजिक उपेक्षा
ख्+ाुसरो तुर्क थे। हजरत औलिया भी कई मर्तबा उन्हें तुर्क कह कर ही संबंोधित करते थे। उनके खानदान ने तुर्की रवायतों (तौर-तरीकों) को नहीं छोड़ा। इसके विपरीत बाहर से आने वाले मंगोल, आर्य, हूण, शक तथा अन्य तमाम विदेशी समुदाय, सब भारत में आकर यहां की साझा संस्कृति का हिस्सा बन गये। आज उन्हें कोई कह भी नहीं सकता कि वे बाहर से आकर बसे लोग हैं। इसके विपरीत तुर्क, तुर्किस्तान के महान फारसी दार्शनिक शेख सादी की दार्शनिकता की अमिट छाप की वजह से तुर्क लोग अपने आप को पूरी तरह भारतीय इस्लामिक रवायत में नहीं ढाल पाये। इसी कारण भारत का कोई भी सामाजिक समुदाय उन्हें पूरी तरह से अपने आप में समाहित नहीं कर सका। इसी संकोचवश किसी भी तबके ने साहित्य की धनी शख्सियत की कृतियों तथा समाज को एकसूत्र में बांधने के इनके संदेश पर गौर नहीं फरमाया।
ऐसे क्या कारण थे जिनकी वजह से महान साहित्यकार होने के बावजूद अमीर ख्+ाुसरो को साहित्य में उचित स्थान नहीं मिल सका ? वह नगरी जहां उनका जन्म हुआ था उनकी जन्म स्थली की पहचान आज तक क्यों नहीं हो सकी है ? मेरी नज+र में इस संबंध में जो मुख्य कारण रहे वे थे, ख्+ाुसरो विदेशी मूल के थे। पटियाली में तुर्क लोगों की आबादी बहुत कम थी। तुर्क लोग भारतीय संस्कृति में पूरी तरह घुल-मिल नहीं पाये। परन्तु ख्+ाुसरो साहब के साथ ऐसा नहीं था वे तो सबके थे और सबके लिए उन्होंने काम किया। लोगों के दिलों को जोड़ने का काम किया। छोटे-बड़े का भेद किये वगैर सबके लिए लिखा। चूंकि ख्+ाुसरो साहब मूलतः हिन्दू तो थे नहीं और न ही मुसलमानियत के प्रबल समर्थक। अतः इन दोनों तबकों ने ही ख्+ाुसरो साहब को तरजीह नहीं दी। यही कारण रहा कि इन्हें समाज में ख्+ाास शख्सियत का स्थान नहीं मिल सका। हमारी सरकारों ने भी इस तरफ मुड़कर नहीं देखा।
बड़े शर्म की बात है कि उनके महान सामाजिक एवं साहित्यिक योगदान के बावजूद उनकी जन्मस्थली पटियाली (एटा), उत्तर प्रदेश में उनकी विरासत को सहेज कर रखने के कोई प्रयास नहीं किये गये। इससे जाहिर होता है कि हिन्दू और मुस्लिम, दोनों ही संप्रदायों ने ख्+ाुसरो में दिलचस्पी नहीं दिखाई। 20वीं सदी के अंतिम वर्षों में पटियाली तहसील ग्राउण्ड के पास अमीर ख्+ाुसरो के नाम पर बनवाये गये ‘अमीर ख्+ाुसरो पुस्तकालय’ और पार्क उनकी पहचान को बरकरार रखने के क्रम में उठा एक कदम था लेकिन उनके रखरखाव के पुख्ता इंतजाम नहीं किए गए हैं, जिसकी बदौलत मात्र 8 वर्ष के अंतराल में ही उनकी हालत जर्जर हो चुकी है।
कृतित्व
अमीर ख्+ाुसरो के गीतों और पहेलियों से सम्बन्धित 99 ग्रन्थों का उल्लेख मिलता है, किन्तु अब उनके द्वारा लिखित केवल 22 ग्रन्थ ही उपलब्ध हैं। ख्+ाुसरो एक अप्रतिम कवि के साथ-साथ अच्छे संगीतकार और गायक भी थे। उनके द्वारा लिखे गीतों को आज भी महिलाएं बड़े उत्साह के साथ गाती हैं। संगीतकार के रूप में उन्होंने नई धुनें देकर अपने पुराने छन्दों को तोड़-मरोड़ कर नए छन्दों की रचना भी की थी। उदाहरण के लिए ‘ध्रुपद’ नामक छन्द को लिया जा सकता है, जिसे उन्होंने कव्वाली के रूप में गेय बनाकर अपूर्व कार्य किया था। उनकी पहेलियां बहुचर्चित हैं। उनके द्वारा रचित पहेलियों को पढ़कर लोग आज भी अपनी बुद्धि की कसरत करते हुए आनन्दित होते हैं। अमीर ख्+ाुसरो की सारगर्भित पहेलियां उनको लोकप्रिय बनाने और साहित्यिक शिखर की ऊंचाईयों को छूने में पूर्ण समर्थ हैं। ख्+ाुसरो ने तबला ईजाद किया तथा नये-नये रूप में पद्य रचनाएं रच कर नई विधाओं का सृजन किया। गजल, कब्बाली, मुकरियां, पहेलियां, गीत, हिंदी-फारसी की मिली-जुली कविताओं आदि के रूप में अभिनव प्रयोग किये। ख्+ाुसरो ने तबला और सितार जैसे वाद्य यंत्र भी ईजाद किये।
मानवतावादी काव्य
ख्+ाुसरो के काव्य में मानवतावादी विचारों की भरमार है। इनके मानवतावादी काव्य को दो श्रेणियों में रखा जा सकता है। एक तो वे, जो परिस्थितिजन्य कमियों का विरोध कर मानव कल्याण के लिए अच्छाइयों की मांग करते हैं और दूसरे वे हैं जो बिना विरोध के ही मानवता का साया पकड़ लेते हैं। हंसी-खुशी से जीने और रहने का सरस वातावरण पैदा कर देते हैं। अमीर ख्+ाुसरो इसी विचारधारा के एक ऐसे अग्रणी कवि हैं जो अपनी वाणी के आकर्षण से समाज को लुभाते रहे।
धरा-धाम पर साहित्य-रूपी गंगा की अजस्र धारा अनन्त है। समय-समय पर अनेक कवि-लेखक इस धारा को वेग प्रदान करते रहे हैं। अमीर ख्+ाुसरो भी उनमें से एक हैं। ख्+ाुसरो ने अपने काव्य में मानवतावाद को तहे दिल से उकेरा है। उन्होंने अपने काव्य के माध्यम से तत्कालीन परिस्थितियों में महान परिवर्तन ला दिया था। उनकी काव्य-धारा व्यक्ति को घोर संकटों से निकाल कर मुक्त हंसी-खुशी की ओर मोड़ देती है। ख्+ाुसरो ने अपनी पहेलियों एवं मुकरियों में मजाक एवं श्रृंगार का भाव भर कर मानव समाज पर मर्मस्पर्शी प्रभाव डाला था। उनके इस योगदन को कभी नहीं भुलाया जा सकता। दो तरह की काव्य धारायें होती हैं। एक तो वे जो परिस्थितियों में निहित दोषों का विरोध कर मानव कल्याण के लिए अच्छाइयों की मांग करते हैं, दूसरे वे हैं जो बिना विरोध के ही मानव कल्याण को अहम मानते हुए हंसी-खुशी से जीने और रहने का सरस वातावरण पैदा कर देते हैं। अमीर ख्+ाुसरो भी ऐसे ही काव्य प्रेमी थे जिन्होंने अपनी ओजपूर्ण काव्य-धारा में बहने के लिए लोगों को मजबूर कर दिया था।
ख्+ाुसरो के व्यक्तित्व में दिखने वाली मानवतावाद की झलक उनके व्यक्तित्व की ही विशिष्टता है जिसे उन्होंने बृज भूमि के ग्रामीण वातावरण में पाया और दिल्ली-सुल्तानों के दरबारी वातावरण में विकसित किया। वे साधारण वर्ग में पैदा हुए जन कवि थे। यद्यपि ख्+ाुसरो दरबारों और बड़े घरानों से संबंधित थे फिर भी निर्बल, निर्धन, पिछड़े वर्ग तथा श्रमजीवी वर्ग से उनका घनिष्ठ संबंध रहा। इन सबके प्रति उनका व्यवहार बड़ा ही सौम्य, मधुर तथा सहानुभूतिपूर्ण था। उस समय की सामाजिक परिस्थितियों ने ख्+ाुसरो को मानवतावादी दृष्टिकोण अपनाने के लिए मजबूर किया। वे यह अच्छी तरह समझ चुके थे कि आर्थिक विषमता के कारण ही समाज में भेदभाव है। भेदभाव की खाई की विकरालता के कारण ही समाज में तरह-तरह के अत्याचार हो रहे हैं। अत्याचारों से समाज बुरी तरह त्रस्त, भूखा और पीडि़त था। व्यक्ति का पूरी तरह से नैतिक पतन हो चुका था। छल-कपट का बोलबाला था। सामाजिक भयावहता को देखकर ख्+ाुसरो स्वयं कह उठते हैं कि-
बाल नुचे कपड़े फटे मोती लिए उतार।
अब विपता कैसे बनी जो नंगी कर दी नार।।
उन्होंने लोगों के दुःख-दर्द को समझा। उनके कष्टों को कम करने और सम्मान सहित खुशहाल जीवन जीने के प्रति उत्साहित करने के लिए ख्+ाुसरो ने गीत, संगीत, पहेलियों, दोहों के माध्यम से उत्पीडि़त और दुःखी लोगों को सहलाने और गुदगुदाने का काम किया। ख्+ाुसरो के काव्य को पढ़ने पर पता चलता है कि वे ग्रामीण जीवन के कोने-कोने से वाकिफ थे। किसान की फूट, अरहर, भुट्टा; बढ़ई की आरी और उसके द्वारा बनाई गई चैकी; कुम्हार की चाक हाॅंडी, चिलम; कहार की डोली,; केवट की नाव तथा दर्जी की कैंची आदि को बड़ी दक्षता के साथ उन्होंने अपने काव्य में समाहित किया है। ग्रामीण जीवन के रहन-सहन, आचार-व्यवहार को भी उन्होंने अपने काव्य में बड़ी शिद्दत के साथ उकेरा है तथा ग्रामीण जीवन की चेतन-सचेतन वस्तुओं- लोटा, चरखा, चिलम, सकरकंद, तोता, कुत्ता, जूता आदि पर भी लिखा है-
गोल मटोल और छोटा-मोटा। हरदम वह तो जमीं पर लोटा।
ख्+ाुसरो कहैं नहीं है झूठा। जो न बूझे अकल का खोटा।। लोटा ।।
नई की ढीली पुरानी की तंग।
बूझ सके तो बूझ ले नहीं चल हमारे संग।। चिलम।।
ख्+ाुसरो यह भी अच्छी तरह समझते थे कि पारस्परिक फूट के कारण ही सामाजिक एकता नष्ट हो जाती है और मानव समाज में एकता न रहने से सामाजिक संगठन टूटता है, व्यक्तियों और परिवारों में मतभेद उभरते हैं और फिर उस मतभेद से जाति और धर्म आधारित संघर्ष पैदा होते हंै। ख्+ाुसरो सांप्रदायिक संकीर्णता की जड़ों को उखाड़ फेंकना चाहते थे। अंधविश्वासी परंपराओं में उनकी आस्था नहीं थी। मानवता ही उनकी दृष्टि में सर्वोपरि थी। इसीलिए उन्होंने मानव-कल्याण के सच्चे कर्म को पहचान कर जनजीवन को व्यापक मानव धर्म की भूमि पर खड़ा करने का प्रयास किया और अपने काव्य के माध्यम से समानता का संदेश दिया। और ख्+ाुसरो ने परस्पर विरोधी भावनाओं, मान्यताओं तथा साधनाओं से ऊपर उठकर मानवीय मूल्यों को महत्व प्रदान करने वाला व्यापक दृष्टिकोण अपनाया और सच्चे प्रेम की महत्ता को जन-सामान्य के समक्ष पेश किया। वे इस बात को अच्छी तरह जानते थे कि वैर और संघर्ष का खात्मा मात्र प्रेम और मृदु व्यवहार से ही संभव है। इसीलिए ख्+ाुसरो ने अपने काव्य में मानवीय प्रेम और सदाचरण को बड़ी उदारता के साथ परोसा है।
सूफी दर्शन और ख्+ाुसरो
कहा जाता है कि वे लोग जो पवित्र जीवन व्यतीत करते हुए धर्माचरण में लीन रहते थे, सूफी कहलाये। कुछ लोग मानते हैं कि मदीना में मुहम्मद साहब द्वारा बनवाई मस्जिद के बाहर चबूतरे (सुफ्फ) पर जिन गृहविहीन लोगों ने शरण ली तथा जो जीवन के पवित्र नियमों का पालन करते थे, सूफी कहलाये। कुछ का मानना है कि जो पवित्र आचरण के कारण अलग ‘सफ’ (पंक्ति) में खड़े किये जाने योग्य हैं, वे सूफी कहलाए। कुछ लोगों ने इसकी व्युत्पत्ति ग्रीक शब्द ‘सेफिया’ (ज्ञान) से मानी है। अबू नस्र अल सरोज के शब्दों में, जो यती या सन्यासी ‘सूफ’ अर्थात ऊन धारण करते थे, वे सूफी नाम से जाने जाते थे। मोटे तौर पर हम कह सकते हैं कि जिनके हृदय में रूहानियत (ईश्वरीय ज्ञान) का प्रकाश जगमगाने लगा था और जो पवित्र आचरण करते हुए जनसाधारण को प्रेम और कल्याण का मार्ग दिखाते थे, वे सूफी कहलाये।
सूफियों का मत था कि अल्लाह प्रेम और सौन्दर्य का रूप है। वह प्रेमी अलक्ष्य होते हुए भी अपने सौंदर्य पर स्वयं मुग्ध है। इसीलिए उसने अपना रूप स्वयं निहारने के लिए इस दृश्यमान जगत में रूहानियत पैदा की। अल्लाह को समझने@पाने के लिए आत्मशुद्धि अनिवार्य है तथा आत्मशुद्धि के लिए मन एवं इंद्रियों का निग्रह एवं आत्मसंयम अत्यावश्यक है। इसके लिए इस्लाम में पांच कर्तव्यों का विधान था- तौहीद (अल्लाह@ईश्वर एक है); सलात (पांच समय की नमाज); रोजा (उपवास); जकात (दान) और हज (काबा की यात्रा)। आत्मशुद्धि के लिए सदाचरण को सबसे ज्यादा महत्व देते थे। सूफियों के अनुसार सदाचार से आत्मगुणों की अभिव्यक्ति होती हैे और उनसे हृदय मंजकर दर्पण की भांति निर्मल हो जाता है जिसमें अल्लाह@ईश्वर का बिम्ब साफ दिखाई देता है। उनकी जीवन की साधना में गुरू सर्वोपरि था। गुरू ही पथ-प्रदर्शक है। गुरू ही गन्तव्य तक पहुंचने का मार्ग बतलाता है। उसके प्रति विनम्र एवं समर्पित होना सूफी के लिए जरूरी है अन्यथा वह सच्चा मुरीद (शिष्य) नहीं बन सकता, क्योंकि गुरू के प्रति विनम्रता और समर्पणभाव के बगैर आबिद (उपासक) पर गुरू की कृपा नहीं होगी और गुरू की कृपा के अभाव में उपासक अंतर्मुखी नहीं हो सकता तथा परमसत्ता का प्रकाश नहीं पा सकता। उपरोक्त सुफियाने गुण ख्+ाुसरो में अच्छी तरह मौजूद थे। इसीलिए उन्होंने दीवानों, मसवनियों तथा अन्य काव्य रचनाओं में सर्वप्रथम अल्लाह, पैगम्बर साहब, गुरू ख्वाजा+ औलिया साहब की स्तुतियां लिखीं। दरबार में या फिर अन्य मंचों पर संगीत पेश करने से पहले वे स्तुतियां अवश्य करते थे।
सांस्कृतिक समन्वय के प्रतीक
अमीर ख्+ाुसरो भारत के ही नहीं बल्कि भारतीय भाषा के भी प्रबल पक्षपाती थे। वे हिन्दी को किसी भी तरह फारसी से कम नहीं आंकते थे। उन्होंने हमारी हिन्दी (हिन्दवी) की प्रशंसा की और काव्य सृजित किये। हिंदी के संबंध में उन्होंने कहा भी है कि ‘‘मैं हिन्दुस्तान की तूती हूं। अगर तुम वास्तव में मुझसे कुछ पूछना चाहते हो तो हिन्दी (हिन्दवी) में पूछो ः मैं तुम्हें हिन्दी में अनुपम बातें बता सकूंगा।’’
तुर्के हिन्दुस्तानीम मन हिन्दवी गोयम जवाब,
चु मन तूतिए हिन्दियम, रास्त पुर्सी,
ज+मन हिन्दवी पुरस, ता नग+ गोयम।
हिन्दी में रचनाओं का सूत्रपात ख्+ाुसरो ने ही किया। उनके बाद दक्षिणी हिन्दी में काव्य रचना करने वाले दर्जनों मुस्लिम शायरों ने इस भाषा को सहज रूप में स्वीकार किया। ख्+ाुसरो के हिन्दी प्रेम से प्रभावित होकर ही पन्द्रहवीं सदी के मध्य में पैदा हुए शाह बरहानुद्दीन जानम ने तो हिन्दी के लिए पुरज+ोर अपील की थी और अपने साथी मुस्लिम शायरों को सम्बोधित करते हुए ‘इरशदनामा’ में एक शेर इस आशय का लिखा थाः
ऐब न राखे हिन्दी बोल, माने तू चल देश टटोल।
क्यों ना लेवे इसे कोय, सुहावना चितव जो होय।।
ख्+ाुसरो एक ऐसी समन्वित संस्कृति की उपज थे जो भारतीय जन-जीवन तथा भारतीय परिवेश के अन्न-जल से निर्मित संस्कृति कही जाती है। भारत की भाषाएं, भारत के धर्म, भारत का प्राकृतिक वैभव- नदी, वन, पर्वत, भारत की ऋतुएं तथा यहां के वातावरण से उनका गहरा लगाव था। उन्हें भारत देश तन-मन से प्यारा था। भारत के संबंध में उन्होंने स्वयं लिखा है कि ‘‘भारत संसार के सब देशों से श्रेष्ठ और खुरासान, कंधार, रोम और ईरान की अपेक्षा अत्यधिक सुंदर है। भारत के फूल, भारत के नर-नारी, भारत के पशु-पक्षी अद्वितीय हैं। उनकी तुलना किसी और देश से नहीं की जा सकती, भारत तो स्वर्ग से भी अधिक रमणीयक स्थान है - भारत का पक्षी मोर अपनी सुन्दरता में अप्रतिम है।’’ अमीर ख्+ाुसरो को इस बात का गर्व था कि उनका जन्म भारत जैसे एक विशाल, सुन्दर और समृद्ध देश में हुआ।
साझा संस्कृति उन्हें अपने नाना और मां से विरासत में मिली थी। साथ ही ख+ुसरो के गुरू हजरत निजामुद्दीन औलिया साझा संस्कृति के पोषक थे। हजरत साहब जाति तथा वर्गभेद से एकदम परे थे। सभी को सम्मान देते थे। ख्+ाुसरो हजरत साहब को बेहद चाहते थे। उन्हें हजरत साहब की हर चीज+ से बेपनाह लगाव था। हजरत साहब भी ख्+ाुसरो को बेहद प्यार करते थे। हजरत साहब बड़े ही दयालु थे। दरबार में जो भी माल- हीरे-जवाहरात, रूपया, पैसा आदि चढ़ावे के रूप में आता था, वे उसे गरीब जनता में मुक्त हस्त बांट देते थे। इसी कारण गरीब लोग दूर-दूर से अपनी किस्मत संवारने और बिगड़े काम बनाने की दृष्टि से हजरत साहब के पास आते थे। दूर देश में रहने वाला एक गरीब किसान अपनी बेटी की शादी कराने के लिए हजरत साहब से धन और आशीर्वाद लेने की दृष्टि उपस्थित हुआ। उसने अपनी गरीबी और बेटी की शादी के संबंध में हजरत साहब को बताया। दयालु हृदय हजरत साहब ने दुखी मन से उस किसान से कहा कि अब तक जो भी माल चढ़ावे में आया था, उसे वे गरीबों में बंटवा चुके हैं, फिलहाल उनके पास बिल्कुल भी धन शेष नहीं बचा है, यदि तुम कल तक रुको तो कुछ प्रबंध हो सकेगा। किसान के पास अगले दिन तक रुकने का समय नहीं था, क्योंकि शादी बिल्कुल नजदीक थी। रुक सकने से मना करने पर हजरत साहब ने उस किसान को कहा कि यह जो जूतियां हैं, ये ही शेष बची हैं, यदि तुम चाहो तो इन्हें ले सकते हो। काफी सोच-विचार और व्यथित मन से किसान ने जूतियां स्वीकार कीं। और वह अपने गांव वापस चल दिया। इस दौरान ख्+ाुसरो साहब वहां मौजूद नहीं थे। वे किसी दरबार में गये हुए थे। वहां उन्हें खूब माल- हीरे, जवाहरात आदि उपहार स्वरूप मिले थे। उस धन को वे ऊँट पर लाद कर उसी रास्ते से चले आ रहे थे, जिस पर वह ग+रीब किसान, जिसे हजरत साहब ने उपहार में जूतियां दी थीं, बुदबुदाता हुआ चला जा रहा था। ख्+ाुसरो साहब ने सुना कि वह किसान उनके गुरू के बारे में ही कुछ बुदबुदा रहा है। वे रुके और किसान से पूछा कि क्या बात है आप इतने परेशान क्यों हैं। तब उस किसान ने सारी दास्तान सुनायी। ख्+ाुसरो साहब मुस्कराये और बोले कि तुम बड़े ही धन्य हो। क्या तुम इन जूतियों को बेचोगे। इस पर किसान तैयार हो गया। ख्+ाुसरो साहब ने जूतियों की एवज में ऊँट पर लदा सारा माल- हीरा-जवाहरात आदि उस गरीब किसान को दे दिया। दोनों प्रसन्न मन अपनी राह पकड़ लिये। ख्+ाुसरो साहब हजरत औलिया के सामने मुस्कराते हुए पेश हुए। उनकी मुस्कराहट से ही हजरत साहब समझ गये कि ख्+ाुसरो क्या बताने वाले हैं और ख्+ाुसरो ने जूतियां हजरत साहब को वापस कर दीं।
अमीर ख्+ाुसरो फारसी के प्रकांड पंडित और अपने समय के श्रेष्ठ कवि थे। उनका फारसी के साथ अरबी, हिन्दी, तुर्की आदि भाषाओं पर भी अच्छा अधिकार था। उर्दू भाषा का तो उस समय जन्म ही नहीं हुआ था। ख्+ाुसरो ने अरबी-फारसी-हिन्दी कोष ‘खलिकबारी’ तैयार किया, जो तीन भाषाओं का संगम है। लेकिन डा. सैयद महीउद्दीन कादरी खलिकबारी को इनकी रचना नहीं मानते। उनका तर्क है कि ख्+ाुसरो की ज+बान ब्रजभाषा से मिलती-जुलती थी। साथ ही उन्होंने यह भी कहा है कि जिस ज+बान में वह शेरगोई करते थे वह वही भाषा नहीं थी जिसे आम तौर पर हिन्दू-मुसलमान बोलते थे।’’ डा. कादरी ने भूलवश जिसे ब्रजभाषा समझा है वह वस्तुतः हिन्दी ही है।
ख्+ाुसरो ने फारसी में गजल को नया रूप देकर सर्वजन-सुलभ बनाया। इसीलिए उन्हें कुछ लोग गज+ल का जन्मदाता भी मानते हैं। गज+ल के क्षेत्र में उन्होंने नाना प्रकार के प्रयोग किये थे। उन प्रयोगों में एक विलक्षण प्रयोग था फारसी और हिन्दी का सम्मिश्रण। इसमें एक पंक्ति फारसी की और दूसरी हिन्दी की। ये व्यंग्यात्मक रचनाएं थीं। इनके माध्यम से उनका उद्देश्य पाठक का मनोरंजन करना ही था-
ज+े हाले मिस्कीं भकुन लगाज+ल दुराय नैना बनाए बतियाँ।
के तावे हिजरां नदारम अय जाँ न लेहु काहे लगाय छतियाँ।
शबने-हिजराँ दराज+ चूँ जुल्फ व रोजे वसलत चूँ उम्र कोताह।
सखी पिया को जो मैं न देखूँ तो कैसे काटूँ अंधेरी रतियाँ।।
पहेलियों, मुकरियों तथा दो सुखनों के लिए अमीर ख्+ाुसरो का नाम समस्त हिन्दी-उर्दू साहित्य में प्रसिद्ध है। पहेलियां छह प्रकार की होती हैं- विनोदपूर्ण, रसिक, मनोरंजक, सूझ-बूझ, परख और काल-यापन। उनकी पहेलियां अंतर्लापिका तथा बहिर्लापिका दोनों तरह की थीं, जिनमें अंदर और बाहर दोनों तरफ से जवाब की खोज करनी होती है।
श्याम वरन और दांत अनेक। लचकत जैसी नारीं
दोनों हाथ से ख्+ाुसरो खींचे। और कहे तू आरी।।
पवन चलत वह देह बढ़ावे, जल पीवत वो जीव गंवावे।
है वो प्यारी सुन्दर नार, नार नहीं पर है वो नार।।

बीसो का सिर काट लिया।
ना मारा ना-खून किया।।

बहिर्लापिका पहेलियां-
क्या जानूं वह कैसा है, जैसा देखा वैसा है।
अरथ तू इसका बूझेगा, मुंह देखो तो सूझेगा।।
सामने आये करदे दो, मारा जाय न जख्मी हो। ।।दर्पण।।
एक गुनी ने यह गुन कीनी, हरियल पिंजरे में दे दीनी।
देखा जादूगर का हाल, डाले हरा निकाले लाल। ।।पान।।
मुकरी के क्षेत्र में भी ख्+ाुसरो बेजोड़ थे। मुकरना अर्थात् मना करना मुकरी में प्रधान होता है और निषेध के बाद गुप्त अर्थ का प्रकट होना उसका चमत्कार है-
वह आवे तब शादी होय, उस बिन दूजा और न कोय।
मीठे लागे बाके बोल, ऐ सखि ‘साजन’ ? ना सखि, ढोल।

सुभग सलोना सब गुन नीको, वा बिन सब जग लागे फीको।
वाके सर पर होवे कौन, ऐ सखि साजन, ना सखि लोन।।
दो सुखने भी ख्+ाुसरो की नायाब शैली थी। इनमें भी मानसिक व्यायाम होता था-
गोश्त क्यों न खाया, डोम क्यों न गाया ? - गला न था।
अनार क्यों न चखा, वज+ीर क्यों न रखा ? - दाना न था।
रोटी क्यों सूखी, बस्ती क्यों उजड़ी ? - खाई न थी।
सितार क्यों न बजा, औरत क्यों न नहाई ? - परदा न था।
लड्डन कादरी, पटियाली निवासी ने बताया कि उनकी एक पहेली जो बहुत ही प्रचलित है, वह है-
तरूवर से एक तिर्या उतरी उसने खूब रिझाया,
बाप का नाम मुझ से पूछा आधा नाम बताया।
आधा नाम पता है पूरा सुन मेरे हम जोली
अमीर ख्+ाुसरो यों कहें नाम अपनो नि-बोली।।
ख्+ाुसरो ने लोक संस्कृति पर पूरा ध्यान दिया। भारतीय संस्कृति के रंग में रंगे ख्+ाुसरो के लिए हिन्दू-मुस्लिम संस्कृतियों की धाराएं, कुछ इस तरह घुल मिल गई थीं कि वे किसी संकीर्ण परिधि में अपने को नहीं बांधते थे। सावन के महीने में हिन्दू नारियां जिस तरह अपने सुहाग का वरदान मांगती हैं, ख्+ाुसरो की दृष्टि में वह सुहाग हर स्त्री को चाहिए। सावन में भारतीय नारी की पीहर जाने की बलवती इच्छा को उन्होंने निम्न प्रकार गाया है-
अम्मा मेरे बाबा को भेजियो री कि सावन आया।
बेटी तेरा बाबा तो बूढ़ा री कि सावन आया।
अम्मा मेरे भैया को भेजियो री कि सावन आया।
बेटी तेरा भैया तो बाला री कि सावन आया।
अम्मा मेरे मामा को भेजियो री कि सावन आया।
बेटी तेरा मामा तो बांका री कि सावन आया।
छाप तिलक सब छीनी रे मोसे नैना मिलाएके
प्रेम भटी का मद्यवा पिलाके मतवारी करलीनी रे मोसे नैना मिलाएके।
गोरी गोरी बय्यिाँ हरी हरी चूरियां बय्यिाँ पकड़ धर लीनी रे मोसे नैना मिलाएके।
बल बल जाऊँ मैं तोरे रंग रेजवा अपनी सी करलीनी रे मो से नैना मिलाएके।
ख्+ाुसरो निजाम के बल बल जय्यिे मोहे सुहागन कीनी रे मो से नैना मिलाएके।
ख्+ाुसरो केवल कवि या सूफी संत ही नहीं थे बल्कि वे एक अच्छे गृहस्थ, परोपकारी और सामाजिक व्यक्ति भी थे। समाज के प्रति अपने कर्तव्य का उन्हें पूरा बोध था और उसके निर्वाह के लिए वे कष्ट झेलने को भी तत्पर रहते थे। डा. ईश्वरी प्रसाद ने तो उनके काव्य से प्रभावित होकर उन्हें ‘‘कवियों का राजकुमार’’ (‘‘प्रिंस एमंग पोइट्स’’) कहा है। वे ख्+ाुसरो को कवि के साथ एक कुशल योद्धा और क्रियाशील पुरुष भी मानते थे। ख्+ाुसरो निरन्तर भारत और भारतीय जनता के कल्याण के कार्यों में लगे रहे। भारतीय समन्वित संस्कृति के प्रतीक पुरुषों में अमीर ख्+ाुसरो का नाम भारत के इतिहास में सदैव स्वर्णाक्षरों में अंकित रहेगा।
अमीर ख्+ाुसरो सांस्कृतिक एकता के प्रतीक थे। उनके व्यक्तित्व में अध्यात्म और सांसारिकता का अपूर्व मेल था। वे उच्चकोटि के दार्शनिक और विचारक थे। तद्युगीन समाज का एक बृहत अंश उनके विचारों की महानता, हृदय की विशालता और धर्म-कर्म की निष्ठा से विशेष प्रभावित था। वे हजरत निजामुद्दीन औलिया के परमप्रिय शिष्य थे। हजरत साहब कहा करते थे कि कयामत के दिन मेरे आमाल के बारे में जब खुदा मुझसे पूछेगा कि दुनिया से क्या लाए तो मैं अमीर ख्+ाुसरो को आगे कर दूंगा। सूफी दर्शन इनकी मसनवियों, गज+लों, गीतों और कुछ कसीदों का प्राण है।
बसंत पंचमी का पर्व भी समन्वित विरासत का पर्याय बन चुका है। यह पर्व शुरू में मूलतः कुछ हिन्दू रियासतों में जाती सर्दी, और नये सिरे से जि+ंदगी शुरू करने के परिप्रेक्ष्य में माघ मास की पंचमी अर्थात् पांचवें दिन मनाया जाता था। लोग इस दिन ज्ञान की देवी सरस्वती की पूजा-अर्चना करते हैं। इन दिनों ज्यादातर पेड़-पौधे तथा लताएं हरे-भरे और फूलों से परिपूर्ण होते हैं। चारों ओर सरसों के पीले-पीले फूल, हरा-भरा वातावरण मन मोह लेता है। माघ मास में चारों तरफ हरियाली और फूलों की बहार आई होती है। पेड़-पौधे और लताएं नई कोपलों-पत्तों तथा फूलों से ऐसे लदे होते हैं, मानो धरती ने श्रृंगार कर लिया हो। बसन्त पंचमी के दिन लोग (ख्+ाासकर स्त्रियां) पीले वस्त्र धारण कर नाचते-गाते हैं। अबीर-गुलाल लगाते हैं और प्यार से मिलते हैं। साथ ही आज के दिन से ही होली का छोछक (संदेश) घर-घर पहुंच जाता है। गांवों में अभी भी आज के दिन ही होली रखने का प्रचलन है। इसी दिन से ही नाचना-गाना शुरू हो जाता रहा है।
ऐसी धारणा है कि मुस्लिम जमात में बसंत पंचमी मनाये जाने की शुरूआत हजरत निजामुद्दीन औलिया के साथ हुई। तकीउद्दीन नूह नाम का हजरत साहब का एक भान्जा था, जिसे हजरत साहब जूनूं की हद तक चाहते थे। अचानक उसका इन्तकाल हो गया। हजरत साहब बेहद दुखी और गुमसुम रहने लगे। वे न तो भरपेट खाते थे और न ही किसी से बोलते थे। बस भान्जे की कब्र पर अगरबत्ती लगाकर उसके पास घंटों गुमसुम बैठे रहते थे। सबके लाख प्रयास करने पर भी कोई उन्हें इस दुख से निजात नहीं दिला पाया। ख्+ाुसरो साहब के सारे प्रयास भी बेकार जा चुके थे। ख्+ाुसरो साहब को भी काफी बेचैनी रहने लगी।
एक मर्तबा ख्+ाुसरो साहब निजामुद्दीन से काफी दूर क्षेत्र भ्रमण पर निकल गये। खेतों में सरसों के पीले-पीले फूल खिले हुए थे। टेसू आदि पेड़-पौधे भी हरियाली और रंग-बिरंगे फूलों से लदे हुए थे। बागों में कोयलें गुनगुना रही थीं। चारों ओर बड़ा ही सुहावना माहौल था। प्राकृतिक छटा को निहारते हुए धीरे-धीरे ख्+ाुसरो साहब काफी आगे निकल गये। वहां उन्हें सामने से लोगों के गाने की आवाज+ सुनाई दी। उस आवाज+ के सहारे वे आगे बढ़ते गये, और लोगों के समीप पहुंच गये। वहां उन्होंने देखा कि लोग (ख्+ाासकर स्त्रियां) पीले वस्त्र पहनकर, बालों और हाथों में सरसों और टेसू के फूल धारण करके टोलियों में नाचते-गाते कालकाजी मंदिर की तरफ बढ़ते चले जा रहे हैं। ख्+ाुसरो ने लोगों से पूछा कि आप लोग कहां और क्यों जा रहे हैं ? लोगों ने बताया कि आज बसंत पंचमी है। अतः हम लोग पूजा-अर्चना करने के लिए कालकाजी मंदिर जा रहे हैं। बड़ा ही मनोहारी माहौल था। उन्हें बेदह रास आया। ख्+ाुसरो को अपने गुरू को खुश करने का माध्यम मिल गया। और वे वहां से वापस चल दिये। खेतों से उन्होंने सरसों और टेसू के फूलों की डालियां तोड़ीं और उनमें से कुछ को अपने सर पर धारण कर लौट दिए। निजामुद्दीन पहुंच कर उन्होंने पीले वस्त्र धारण कर और कुछ स्त्रियों और पुरुषों की टोली के साथ नाचते-गाते हुए हजरत साहब के सामने हाजिर हुए। हजरत साहब उस समय अपने भतीजे की कब्र के पास गुमसुम बैठे हुए थे। साथ हजरत साहब के सामने खूब नाचने-गाने लगे, और सरसों तथा टेसू के फूल अपने गुरू पर चढ़ाने लगे। पीत वस्त्र और नाचने-गाने की शैली से हजरत साहब प्रसन्न हो गये तथा स्वयं भी नाचने लगे। आखिरकार ख्+ाुसरो की शैली से हजरत साहब को, भान्जे के शोक से निजात मिली। हजरत साहब के फरमाने पर उन्होंने यह बसंत गीत भी सुनाया-
सकल बन फूल रही सरसों। सकल बन फूल रही सरसों।
अम्बबा फूटे टेसू फूले कोयल बोले डार-डार।
और गोरी करत श्रृंगार। मलनियां गढवा ले आई करसों।
तरह-तरह के फूल खिलाए। ले गढवा हातन में आए।
निजामुद्दीन के दरवाजे पर। आवन कह गए आशिक रंग।
और बीत गए बरसों। सकल बन फूल रही सरसों।
हजरत साहब के दरबार में बड़े हर्षोल्लास के साथ बसंतोत्सव मनाया गया। धीरे-धीरे यह प्रचलन हिन्दू-मुस्लिम सभी रवायतों में बड़ी धूमधाम के साथ मनाया जाने लगा। और तब से बसंतोत्सव साझी विरासत का पर्याय बन चुका है। हिन्दू-मुस्लिम, दोनों ही संप्रदायों के लोग हर वर्ष इसे बड़ी श्रद्धा के साथ मनाते हैं। बसंत पंचमी का पर्व के दिन हजरत निजामुद्दीन औलिया की मजार पर हर वर्ष मेला लगता है और गायन-वादन का कार्यक्रम भी होता है, जिसमें ख्+ाुसरो साहब द्वारा रचित और गाये गये बसन्त गीत तथा उनकी अन्य रचनाओं को गाया जाता है।
गद्य कृतियां
अमीर ख्+ाुसरो ने अपनी ‘‘एजाजे खुसरवी’’ में यह सिद्ध कर दिखाया है कि वे केवल रोमांटिक काव्य सृजन में ही निपुण नहीं हैं, अपितु गद्य के क्षेत्र में भी खासे दक्ष हैं। ख्+ाुसरो ने अपने समय में प्रचलित नौ विभिन्न शैलियों- सूफी संतों की सरल एवं आडम्बरहीन शैली, विद्वानों और साहित्यान्वेषकों की प्रभावशाली एवं तर्कसम्मत शैली, पंडितों एवं ज्ञानियों की शैल, वाक्पटु व्याख्याताओं की सुबोध या आडम्बरयुक्त शैली, शिक्षकों और उपदेशकों की शैली, जनसाधारण की स्पष्ट, सरल एवं अनलंकृत शैली, शिल्पकारों एवं कारीगरों की आडम्बरहीन शैली, विदूषकों, मसखरों एवं भांड़ों की गुदगुदी पैदा करने वाली शैली तथा धर्मपत्रलेखन कलाकारों की स्पष्ट और मसृण शैली - से अलग नयी शैली@मार्ग की खोज की।
‘‘एजाजे खुसरवी’’ (ख्+ाुसरो का चमत्कार) ख्+ाुसरो की प्रथम गद्य कृति है। इसमें पांच रिसाले हैं अर्थात् यह पांच छोटी-छोटी पुस्तिकाओं में उपलब्ध है। खजाइनुल फतहः (तारीखे इलाही) यह ख्+ाुसरो की दूसरी गद्य कृति है। इसमें अलाउद्दीन खिलजी कालीन घटनाओं का पूरे विस्तार से संकलन है। समकालीन तारीखनवीसों की इतिहास-कृतियों में यह सर्वाधिक प्रामाणिक एवं उपयोगी है। अफजलुल फवायद ख्वाजा निज+ामुद्दीन महबूबे इलाही के कई मुरीद हुए किन्तु उनमें से दो शायरों ने उनके धर्मोपदेशों, प्रवचनों एवं उसूलों का संग्रह कर ग्रंथ रूप में संचयन किया। प्रथम हैं अमीर हसन देहलवी जिन्होंने ‘फवायद उल फवायद’ और दूसरे अमीर ख्+ाुसरो जिन्होंने अफजलुल फवायद में अपने अध्यात्म गुरू के मलफूजात संगृहीत किए।
उपर्युक्त गद्य कृतियां अमीर ख्+ाुसरो की गद्य लेखन की दक्षता को प्रमाणित करती हैं। मध्यकालीन इतिहास के पुनर्लेखन में, ख्+ाासकर राजनीतिक सांस्कृतिक इतिहास के अध्ययन में अमीर ख्+ाुसरो के गद्यग्रंथ अनुकरणीय भूमिका रखते हैं।
पद्य कृतियां
ख्+ाुसरो ने गद्य की अपेक्षा पद्य में रचनाएं अधिक कीं। पद्य में उन्होंने मुकरियां, पहेलियां, कब्बालियों, गजल सरीखे अभिनव प्रयोग भी किये। अनेक राजदरबारों में रहते हुए उन्होंने शासकों की प्रशंसा में काफी लिखा है। इसके अतिरिक्त उन्होंने ज्ञानवद्र्धक, मनोरंजक, सांस्कृतिक समन्वय, समानता से संबंधित तमाम रचनाएं कीं। काव्य के रूप में मुख्यतः उनका निम्न काव्य संग्रह उपलब्ध है-
तोहफतुसिग्र- रचनाकाल हिजरी सन् 671। यह काव्य ख्+ाुसरो ने अपने प्रारंभिक जीवन, सुल्तान ग्यासुद्दीन बलवन और उसके ज्येष्ठ पुत्र सुल्तान नसीरूद्दीन की प्रशंसा में लिखा है।
वस्तुलहयात- रचनाकाल हिजरी सन् 684। इसमें ख्+ाुसरो ने अपने जीवन की घटनाओं के बारे में लिखा है तथा सुल्तान मुहम्मद शहीद की प्रशंसा के कसीदे कसे हैं तथा उनका मर्सिया भी है।
गर्रतुलकमाल- रचनाकाल हिजरी सन् 693। इसमें ख्+ाुसरो ने भारतीय फारसी कविता की समीक्षा की है। ख्+ाुसरो के मुख्य कसीदे ‘जन्नतिल नजात’, ‘मुरातुस्का’ और ‘दरिया अबरार’ मौजूद हैं। यह ख्+ाुसरो का सबसे बड़ा दीवान है।
बकियान- रचनाकाल हिजरी सन् 716। यह ख्+ाुसरो के जवाबी कसीदों का संकलन है। इसमें ख्+ाुसरो ने अलाउद्दीन खिलजी का मर्सिया भी लिखा था।
निहायतुल-कमाल- यह ख्+ाुसरो का गजलों का संकलन है। इसमें सुलतान ग्यासुद्दीन के देहान्त और सुल्तान मुहम्मद तुगलक के सिंहासन पर बैठने का उल्लेख है। यह उच्च कोटि का ग्रंथ है। इसमें कुतुद्दीन मुबारक खिलजी का मर्सिया तथा उसके उत्तराधिकारी की प्रशंसा भी है।
किरानुस्सादेन- ख्+ाुसरो ने इसमें कैकुबाद और बुगराखां के पत्र-व्यवहार एवं समझौते का उल्लेख किया है। यह उनकी अमरकृति मानी जाती है।
मफताहुल फुतूह- इस मसनवी में सुल्तान जलालुद्दीन फीरोज खिलजी के शासन काल का वर्णन किया गया है।
नुहसिपहर (नौ आसमान)- रचनाकाल हिजरी सन् 718। इसमें तत्कालीन सभ्यता एवं सांस्कृतिक एकता पर विशेष जोर दिया गया है। इसमें नौ अध्याय हैं। इसीलिए इसका नाम नुह सिपहर रखा गया है। इसमें ख्+ाुसरो ने भारत की महानता एवं सांस्कृतिक सामंजस्य को उकेरते हुए भारतवर्ष को संसार का स्वर्ग सिद्ध किया है।
तुगलकनामा- ख्+ाुसरो ने इसमें अपने जीवनकाल के अंतिम आश्रयदाता सुल्तान ग्यासुद्दीन तुगलक की जीवनी और विजय गाथा को शामिल किया है।
खम्स-ए-ख्+ाुसरो- यह ख्+ाुसरो की पांच मसवनियों (मतउल अन्वार, शीरीं ख्+ाुसरो, मजनूं व लैला, आइने-ए-सिकन्दरी और हश्तबहित) का संग्रह है।
पहेलियां, मुकरियां एवं गीत-
अमीर ख्+ाुसरो ने फारसी से कहीं अधिक हिंदी में कविताएं रचीं। लेकिन अब कुछ पहेलियों, मुकरियों, दोसुखनों और गीतों को छोड़कर ज्यादातर रचनाएं या तो पूरी तरह परिवर्तित हो चुकी हैं या फिर विलुप्त हो गयी हैं। ख्+ाुसरो की कविताएं और पहेलियां तथा मुकरियां लिखित कम वाचिक ज्यादा थीं। अतः ज्यादातर मौखिक रचनाएं विलुप्त हो रही हैं, क्योंकि समय रहते इनका संकलन नहीं किया गया और न ही ये लिपिबद्ध की गयीं। फिर भी कई गीत ऐसे हैं जिन्हें सभी वर्ग संप्रदाय के लोग आज भी बड़ी तत्परता से गाते हैं।
काहे को ब्याही विदेस, सुन बाबुल मेरे।
अम्मा मोरे बाबा को भेजो, कि सावन आया।
हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रतीक
उच्चकोटि के कवि, साहित्यकार, दार्शनिक की कोई जाति नहीं होती। वह संपूर्ण मानव जगत को केंद्र में रखते हुए अपने विचार प्रकट करता है, कृतियों का सृजन कर जीवन्तता बनाये रखने का कार्य करता है। तात्कालिक परिस्थितियों की अच्छाइयों और बुराइयों का आंकलन कर समाज को एकबद्ध करना उसका मुख्य ध्येय होता है। जीने की उमंग, पूर्णता प्राप्त करने की ललक, जीवन के हर क्षेत्र में छा जाने की मंशा, संघर्षशील रहते हुए ऊँचे उठने की अपूर्व क्षमता, घिसी-पिटी जीवन शैली से हटकर नयी जीवन शैली एवं जीवनचर्या, निरन्तरता बनाये रखना- ये विशिष्टताएं लोगों को महान बना देती हैं और ऐसी महान प्रतिभाओं में अमीर ख्+ाुसरो का नाम बड़ी श्रद्धा और सम्मान से लिया जाता है।
ख्+ाुसरो बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। वे साहित्यकार, दार्शनिक, कुशल राजनीतिज्ञ, संगीतज्ञ, जनरूचि के पोषक, भारतीय संस्कृति के प्रेमी, मनोरंजक साहित्य के प्रणेता के अनुपम संगम थे। ख्+ाुसरो ने हिन्दू-मुस्लिम की खाई से बिखरे, टूटे मानवीय सम्बन्धों को एकता के सूत्र में पिरोने का चमत्कारिक कार्य किया। वे विदेशी, मुसलमान और भारतीय तुर्क होते हुए भी पक्के हिन्दुस्तानी थे। उन्हें यहां की हर चीज से बहुत प्यार था। असीम प्रेम की वजह से ही उन्होंने हिन्दुतान को दुनिया का स्वर्ग कहा था- ‘‘किश्वरे हिंद अस्त बहिश्ती बज+मीं’’, अर्थात् हिन्दुस्तान दुनिया में ज+न्नत है। उनकी सोच जातिगत, देशगत और वर्गगत भेदभाव से मुक्त थी। इसी वजह से उनकी कृतियां तत्कालीन राजनीति, इतिहास, समाज, जनजीवन और देश की मिली-जुली संस्कृति तथा सभ्यता से परिपूर्ण हैं। ख्+ाुसरो अपनी कृतियों के माध्यम से हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रणेता के रूप में सामने आए। पं. सुधाकर पाण्डेय के मतानुसार, ‘‘अमीर ख्+ाुसरो भारतवर्ष के अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति के कवि हैं, अरबी, फारसी, तुर्की तथा हिन्दी साहित्य उनके कृतित्व से श्री सम्पन्न एवं प्रतिष्ठित है। उनका कृतित्व हिन्दू-मुस्लिम सभ्यता के संगम की अनुभूतिमयी अभिव्यक्ति का दृष्टांत है। भाषा एवं भाव सभी क्षेत्रों में यह शिव-सत्य उनके कृतित्व को गौरवपूर्ण ऐतिहासिक महत्व प्रदान करता है।’’ (खलिकवारी, संपा. डा. श्रीराम शर्मा, पृ. 2)।
ख्+ाुसरो ने अपनी रचनायें चाहे हिंदी में कीं या फिर उर्दू, फारसी, अरबी अथवा संस्कृत में, हर एक में हिन्दोस्तान, हिन्दी और यहां की संस्कृति, पक्षी, जानवर, लोगों और प्रचलित विभिन्न उपकरणों की तारीफ ही की। यहां की हर चीज से उन्हें बेहद लगाव था। इस प्रकार वे एक तुर्की मुसलमान होते हुए भी सच्चे भारतीय थे। उन्होंने साहित्य, दर्शन, संगीत तीनों को समन्वयवादी रूप में पेश करने का महान काम किया।
संगीत मानव को जातिगत, वर्गवादी एवं संप्रदायवादी संकुचित धारणाओं से ऊपर उठाकर विभिन्नताओं में साम्य बिठाकर मानवतावादी अनुभूति का सृजन करता है तथा मानव को मानव के करीब लाने का अभूतपूर्व कार्य करता है। ख्+ाुसरो का संगीत के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण योगदान रहा है।
अमीर ख्+ाुसरो लायब्रेरी और पार्क
जनता दल के राज्यसभा सांसद श्री वसीम अहमद ने वर्ष 1996-97 की अपनी सांसद निधि से ख्+ाुसरो साहब के नाम से तहसील के पास लायब्रेरी एवं पार्क की स्थापना करवायी थी। साझा संस्कृति के पैरोकार होने तथा ख्+ाुसरो साहब में दिलचस्पी होने के तहत ही उन्होंने ऐसा करवाया था। पटियाली से स्थानीय ताल्लुक नहीं होने के बावजूद उन्होंने ख्+ाुसरो लायब्रेरी और पार्क बनवाया। वे चाहते थे कि पटियाली, जो ख्+ाुसरो साहब की जन्मस्थली रही है, वहां ख्+ाुसरो साहब की पहचान बरकरार रह सके तथा साझा संस्कृति, जिसकी ख्+ाुसरो साहब तहे दिल से जीवनपर्यन्त साहित्य के माध्यम से बकालत करते रहे और आपसी प्रेम और सौहार्द के साथ रहने का संदेश देते रहे - उसे पुनस्र्थापित किया जा सके, ताकि क्षेत्र में बढ़ रही हिन्दू-मुस्लिम की खाई को पाटा जा सके। सांसद वसीम अहमद साहब की सोच तो बेहद सराहनीय थी मगर तमाम प्रयासों के बावजूद उस सोच सजीव नहीं होने दिया गया। कुछ सालों तक तो जिला एवं स्थानीय प्रशासन ने इसमें दिलचस्पी दिखलाई। परन्तु पिछले करीब पांच-छः सालों से स्थानीय अधिकारियों की लापरवाही एवं ढुलमुल नीति के चलते लायब्रेरी भूतिया महल में बदल चुकी है तथा पार्क जानवरों का चरागाह बन कर रह गया है। लायब्रेरी में न तो पुस्तकें ही हैं और न ही कर्मचारी लोग होते हैं। धीरे-धीरे लायब्रेरी असामाजिक तत्वों का शरणगाह बनती जा रही है। शर्म की बात है कि ख्+ाुसरो साहब अपने ही जन्म स्थान पर पहचान के लिए मोहताज हैं। और यह तब जब वे हिन्दु-मुस्लिम एकता के प्रबल समर्थक और सजीवता प्रदान करने वाले थे।
मकबरा
पटियाली बस्ती से उत्तर दिशा में लगभग एक किलोमीटर की दूरी पर स्थित अति प्राचीन मकबरे के बारे में लोगों में मतभेद है। कुछ लोग इसे अमीर ख्+ाुसरो के खानदान से संबंधित बताते हैं। कहते हैं कि ख्+ाुसरो साहब के खानदान के लोग वहां दफनाये गये थे। वहीं कुछ लोगों का मत है कि यह मकबरा मिश्री खानदान से ताल्लुक रखता है। मकबरे में की गयी दस्तकारी वास्तव में मिश्री दस्तकारी से मेल खाती है। इन लोगों ने लेखक को बताया कि मिश्री खानदान के लोग भी पटियाली में आकर बस गये थे, वे काफी धनाड्य थे। यह मकबरा उन्हीं के खानदानियों का है। यद्यपि इस बारे में कोई स्पष्ट प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं।
जो भी हो, मकबरा बहुत पुराना है और एकदम जर्जर हालत में है। लोग इसके चूने को खुरच कर औषधि के रूप में प्रयोग करने के लिए ले जाते हैं। लोगों की मान्यता है कि पेट दर्द, शरीर दर्द सरीखे विकारों में यह चूना रामबाण सिद्ध हो रहा है। स्थानीय लोगों ने बताया कि लगभग 200 सालों से मकबरा बीच से फट गया है। मकबरे के बुर्ज पर गोदनी का एक बहुत मोटा पेड़ खड़ा है। इस पेड़ को लोग पीढ़ी-दर-पीढ़ी लगभग 200 सालों से ऐसा ही देखते आ रहे हैंं। निश्चित ही मकबरे के फटने का कारण ही बुर्ज पर खड़ा पेड़ रहा होगा। यह पेड़ इतना मोटा है कि इसका तना दो लोगों की कोली में भी नहीं समाता है।
कुआँ (बाबरी)
पटियाली से सिढ़पुरा-एटा मार्ग पर इण्टर काॅलेज के पास एक कुआं है जिसके बारे में लोगों की मान्यता है कि यह वही कुआं है जिस पर अमीर ख्+ाुसरो ने पानी भर रही 4 सखियों को उनकी शर्त के तहत गीत सुनाया था। यह कुआँ एकदम जर्जर हालत में है। उस समय घड़ों और कलसों का प्रचलन था। कुआं से पानी निकालने के लिए चरखी (गिर्री) और रस्सी का उपयोग किया जाता था। साथ ही बिना चरखी के भी पानी भरा जाता था। पानी भरने वाली रस्सी के निशान आज भी कुएं की सिलों पर मौजूद हैं, और पानी भरने के बर्तनों को रखने के स्थान भी काफी गहरे हो चले हैं। सखियों ने गीत सुनने के बाद ही ख्+ाुसरो को पानी पिलाया था। इस कुएँ के संबंध में कहा जाता है कि एक मर्तबा ख्+ाुसरो साहब बाहर से भ्रमण करके पटियाली वापस लौट रहे थे। गर्मियों की चिलचिलाती धूप से उकता चुके थे। बहुत तेज प्यास लगी थी। पटियाली के करीब ही बाग के किनारे पर स्थित कुआं था, जिस पर ख्+ाुसरो ने 4 सखियों को पानी भरते हुए देखा। सखियों की भी नजर ख्+ाुसरो पर पड़ी और वे आपस में कहने लगीं, कि अरी देखो ख्+ाुसरो साहब आ रहे हैं और वे हमारी तरफ ही बढ़ रहे हैं। ख्+ाुसरो ने कुएं के करीब पहुंच कर सखियों से पानी पिलाने का आग्रह किया। सखियों ने उनका आग्रह एक शर्त पर स्वीकार करने को कहा। वह अनुग्रह था कि ख्+ाुसरो साहब आप हमें गीत सुनाएं। प्यास के मारे उनका दम निकला जा रहा था। ख्+ाुसरो ने उनकी शर्त मंजूर कर ली। सखियों ने बारी-बारे से अपनी-अपनी इच्छा बतायी। पहली सखी ने खीर पर; दूसरी ने चरखा पर; तीसरी ने कुत्ता पर और चैथी ने ढोल पर गीत सुनाने को कहा। ख्+ाुसरो साहब गीत और कविता करने में माहिर थे ही। अतः उन्होंने सखियों से आग्रह किया कि यदि मैं चारों को एक ही गीत में कविता सुना दूं तो चलेगा। सखियां राजी हो गयीं। तत्पश्चात् ख्+ाुसरो साहब ने ये लाइनें सखियों को सुनायीं-
खीर पकाई जतन से चरखा दिया जलाय।
आया कुत्ता खा गया तूं बैठी ढोल बजाय।
गुम्बद@चबूतरा
कुएं से कुछ दूरी पर ही जर्जर हालत में एक गुम्बद हैं कहा जाता है कि ख्+ाुसरो साहब के जमाने में लोग इस गुम्बद में नमाज अदा करने के लिए आते थे।
क्या कहते हैं पटियालीवासी
सांप्रदायिक उन्माद तथा दंगों को कैसे रोका जा सकता है ? इस बारे में लेखक ने स्थानीय लोगों से जब बातचीत की, तो लोगोें का कहना था कि यद्यपि यहां कोई बड़ा दंगा नहीं हुआ है। कभी-कभार सांप्रदायिक उन्माद जरूर पनपा है। लेकिन स्थानीय जनता के प्रयासों से स्थिति सामान्य बनती रही है। लेकिन कई बार स्थिति बेकाबू सी हो जाती है। इस स्थिति से निबटने के लिए एहतियात के तौर पर क्या कदम उठाये जा सकते हैं, इस संबंध में स्थानीय लोगों के साथ हुई बातचीत के अंश नीचे दिए जा रहे हैं-
यद्यपि दशकों से यहां पर सांप्रदायिक दंगे नहीं भड़के हैं। 6 दिसंबर, 1992 को बाबरी मस्जिद विध्वंस के समय शहर में तनाव तो काफी रहा लेकिन कोई अप्रिय घटना नहीं घटी। यहां के लोगों ने शांति मार्च निकाली। सेठ राम निवास जी का इसमें बहुत बड़ा सहयोग रहा। इस शांति मार्च में खासकर हिन्दू लोगों ने बढ़-चढ़ कर शिरकत की थी। फिर भी एक काम यह किया जा सकता है कि हर मोहल्ले में अमन कमेटियां बनें, जिनमें हिन्दू-मुस्लिम दोनों लोगों को शामिल किया जाय। ये लोग किसी भी वारदात या तनाव की स्थिति में वहां पहुंचकर उचित निदान ढूंढें। स्वयं हल निकाल सकने में समर्थ न हों तो शहर की अन्य कमेटियों की साझा बैठक कर उसका समाधान करें।
- पदम सिंह, पटियाली
मेरे खयाल से हिन्दू-मुस्लिम को एक दूसरे के व्यापार@काम में हाथ बंटाना चाहिए। ऐसा करने से आपसी प्यार और मेलमिलाप बढ़ेगा। साथ ही हिन्दू-मुस्लिम वाली सोच भी बदलेगी।
- संत राम, पटियाली
जनाब ख्+ाुसरो साहब से यहां की अवाम ने बहुत कुछ हासिल किया। उस समय जब हिन्दू-मुस्लिम का भेद परवान चढ़ा हुआ था, उस समय ख्+ाुसरो साहब ने साझी संस्कृति और सूफियाने ढंग से आपसी मेल और वर्गवाद से दूर रहने के लिए अपने साहित्य के माध्यम से यहां के लोगों में जागृति लाने का निरन्तर प्रयास जो किया उसकी बदौलत ही जब देश सांप्रदायिक आग जल रहा था, पटियाली में किसी भी प्रकार की अप्रिय घटना या दंगा नहीं हुआ। अतः ख्+ाुसरो साहब के साझा विरासत से ताल्लुक रखने वाले साहित्य की खोज होनी चाहिए और उसका संपादन कराके लोगों के बीच उसका वितरण किया जाना चाहिए। शुरू में यह काम विधिवत् किसी स्वतंत्र संगठन@निकाय को करना चाहिए। ख्+ाुसरो महोत्सव को पुजर्नीवित किया जाना चाहिए।
- अमर सिंह शाक्य, गंजडुन्डवारा

ख्+ाुसरो साहब के साहित्य पर शोध होना चाहिए। उनकी वे साहित्यिक रचनायें, जिनमें साझी विरासत का संदेश है, जो समाज में आज भी बिखरी पड़ी हैं, उनको एकत्रित किया जाय। संकलन हो। पटियाली में ‘अमीर ख्+ाुसरो’ स्मारक बनना चाहिए। यदि संभव हो तो उनके जन्म स्थान की भी की जानी चाहिए। यद्यपि जन्म स्थान की पहचान असंभव काम है। उनके साहित्य को शैक्षिक पाठ्य पुस्तकों में भी शामिल किया जाना चाहिए। उनके साहित्य के संकलन और संपादन से लोगों में आपसी प्यार और मौहब्बत बढ़ेगी, ऐसा मेरा विचार है।
- इसरत अली अंसारी, गंजडुन्डवारा
चेयरमेन आबिद हुसैन से बातचीत
पटियाली के वर्तमान चेयरमेन आबिद हुसैन से काफी अच्छी बातचीत हुई। उन्होंने काफी जानकारियां उपलबध करवाईं। उन्होंने बताया कि ख्+ाुसरो साहब तुर्की महाजन थे। सब उन्हें तुर्क कहकर ही बुलाते थे। यहां तक कि उनके गुरू हजरत निजामुद्दीन साहब भी उन्हें तुर्क कह कर ही पुकारते थे। मोहल्ला शहन तुर्कियों का मोहल्ला रहा है। मुस्लिम शासकों के तख्ता पलटने पर काफी सम्पन्न तुर्क परिवार यहां से पलायन कर कहीं और चले गये। जो बचे थे वे भी जमींदारी प्रथा समाप्त होने पर तथा व्यापार और जीविका के साधनों के अभाव में यहां से जाकर बाहर कहीं बस गये। उनके जन्म स्थान के बारे में कुछ पता नहीं है। हां, इतना जरूर है कि जल निगम की पानी की टंकी जहां बनी हुई है, लोग संभावना व्यक्त करते हैं कि उनका जन्म स्थान वहीं था। यद्यपि इस बारे में कोई ठोस साक्ष्य मौजूद नहीं हैं। अदीबुर्रहमान नाम का केवल एक तुर्क परिवार ही बचा है। वह भी बदहाली की जि+ंदगी जी रहा है। वह भी गरीबी और साधनविहीन होने के कारण समाप्ति के कगार पर है। उनकी तहजीब ब्रज और गंगा-जमुनी थी।
अनवर अली (ईसार मियाँ), पटियाली
अनवर अली ने साक्षात्कार में लेखक को बताया कि अमीर ख्+ाुसरो कल्चरल सोसाइटी यहां पर काम कर रही है। इसका मुख्य उद्देश्य साझा संस्कृति से संबंधित कार्यक्रम पेश करना है। लेकिन अब इसमें भी कुछ शरारती लोगों ने टूट पैदा करवा दी है, जिसकी वजह से सोसाइटी ठीक से काम नहीं कर पा रही है। सोसाइटी राजनीतिक कूटनीति का शिकार हो गयी है। शेरवानी-अमीर ख्+ाुसरो इस्लामिया प्राइमरी स्कूल भी चल रहा है। सोसाइटी के प्लाट पर पिछले कई वर्षों से स्थानीय विधायक राजेन्द्र सिंह चैहान के कब्जे में है। राजेन्द्र सिंह जी वर्तमान में उ. प्र. की सपा सरकार में राज्य मंत्री हैं। उन्होंने इस प्लाट को यह कह कर कब्जाया था कि प्लाट पर हम सरकारी गेस्ट हाउस@विवाह स्थल बनवायेंगे, जो सीधे एसडीएम और तहसीलदार के अधिकार क्षेत्र में होगा। लेकिन राजेन्द्र सिंह चैहान ने इसे तत्कालीन एसडीएम नवाब अली के साथ मिलकर इसे व्यक्तिगत संपत्ति बना रखा है।
साझा संस्कृति को दृष्टि में रखते हुए शांति और आपसी प्यार कायम रखने के लिए एटा के तत्कालीन जिलाधिकारी श्री उमेश सिन्हा ने एटा जनपद में सांस्कृतिक उपलब्धियों को पुनस्र्थापित करके जनजागरण के मद्देनजर एटा जनपद के सोरों में ‘तुलसी महोत्सव’, एटा खास में ‘रंग महोत्सव’ (नुमाइश) तथा पटियाली में ‘ख्+ाुसरो महोत्सव’ के आयोजनों का शुभारम्भ करवाया था। तत्कालीन एसडीएम पटियाली श्री पी.सी. मिश्रा ने अगाध लगन और श्रद्धा से ‘ख्+ाुसरो महोत्सव’ का आयोजन करवाया था। आयोजन बड़ा ही सफल रहा। इस आयोजन में हिन्दुओं ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया था, लगभग 65 प्रतिशत हिन्दुओं ने शिरकत की थी। इस कार्यक्रम के लिए रु. 25,000 जनपद प्रशासन मुहैया कराता था, शेष खर्च की भरपाई चन्दा आदि से होती थी। लगभग पांच साल तक यह आयोजन चलता रहा। आयोजन एक बड़े मेले का रूप ले चुका था। पिछले दो साल से यह आयोजन बन्द है। इस कार्यक्रम को बन्द करवाने में एसडीएम नवाब अली की अहम भूमिका रही है। उन्हें हिन्दू-मुस्लिम एकता की यह अनूठी मुहिम गले नहीं उतरी और उन्होंने कुछ असामाजिक तत्वों के साथ मिल कर राजनीतिक कूटनीति के तहत इसे बन्द करवा दी।
हम चाहते हैं ये आयोजन पुनः शुरू होने चाहिए। इन आयोजनों से आपसी प्यार और मिश्रित संस्कृति को बढ़ावा मिलता है। हिन्दू-मुस्लिम का भेद मिटता है। सबसे ज्यादा तो नई पीढ़ी को एक नई सोच और संस्कृति मिलती है, जो वर्गभेद रहित होती है। साथ ही अमीर ख्+ाुसरो साहब का स्मारक भी बनना चाहिए।