पटरी से उतरती पंचायती राज व्यवस्था की रेल
भला हो महात्मा गांधी का जिन्होंने किसी सुनहरे पल में देश में पंचायती राज व्यवस्था की बात सोची। गांव में तमाम तरह की विषम परिस्थतियों को भोगते-ग्रास बनते निरीह जीवन बिताते लोगों की ज़िंदगी को खुशहाल बनाने की तमन्ना जो थी उनके मन में। मानुष से इंसान बनाने की ख्वाहिश के तहत ही गांधी जी की आत्मा ने उन्हें आत्मबोध कराया होगा कि काश निचले स्तर पर असली ताकत का संचार हो तो सारी व्यवस्था सुचारू ढंग से स्वतः संचालित होने लगेगी। पूरी तरह से संतुलन बनेगा, लोगों को न्याय मिलेगा, भूखे को भोजन और नंगे को कपड़ा। छुआछूत और ऊँच-नीच की खाई पट सकेगी। सामाजिक-आर्थिक स्तर समान होगा।
देश में सम्पन्न हुए पंचायत चुनावों में महिलाओं ने जिस तरह पर्दा और चहारदीवारी से निकल कर बढ़-चढ़ कर भागीदारी निभाई है उससे यह तो साबित ही हो गया है कि महिलाएं भी अब अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हुई हैं, उनमें आत्मविश्वास बढ़ा है और नए साहस से लवरेज नजर आने लगी हैं। उनमें अपार ऊर्जा का संचार हुआ है। पंचायत चुनावों में चयनित महिलाएं अब पुरुषों पर निर्भर नहीं रहना चाहती हैं। वे आत्मविश्वास के साथ अपने सभी कामों को स्वयं अपने बलबूते पर करना चाहती हैं। साथ ही वे अपने काम का आकलन भी जरूरी समझती हैं। आरक्षण की बिना पर ही महिलाएं पंचायत चुनावों में नए कीर्तिमान के साथ उभर कर आई हैं। यद्यपि प्रत्येक चुनाव की तरह ही इन चुनावों में भी धन की भूमिका काफी अहम रही फिर भी पैसे के अभाव में भी चुनाव जीतने के कीर्तिमान स्थापित हुए हैं। बिहार के कटिहार जिले के बलरामपुर ब्लॉक में कीरोरा पंचायत में एक भिखारिन हलीमा खातून मुखिया निर्वाचित हो गई हैं। इसी प्रकार पूर्णिया जिले में भी चाय का ठेला लगाने वाली शांति देवी भी पंचायत सदस्य चुनी गई हैं।
प्रायः सभी राज्यों में जिला स्तर पर मुख्यतः दो तरह की योजनाओं के माध्यम से काम होता है- एक, जिला विकास योजना, जो जिला विकास निधि से चलाई जाती है; और दूसरे, सांसद विकास योजना, जो सांसद विकास निधि से चलाई जाती है। ग्रामीण क्षेत्रों में कार्य कर रहे लोगों, समाचार-पत्रों, पत्र-पत्रिकाओं और मीडिया के माध्यम से मिल रही जानकारी के मुताबिक अपवाद स्वरूप कुछ मामलों को छोड़कर - जिला स्तर पर चलाई जा रही सभी विकास योजनाओं-परियोजनाओं के मामले में जिलाधिकारी को तीन फीसदी, दो से तीन फीसदी तक अन्य बिचौलियों- योजना के प्रभारियों या उनके कार्यालयों को, और ब्लॉक/प्रखंड स्तर पर बीडीओ को पांच फीसदी की राशि योजना को जिले में प्रशासनिक स्वीकृति के लिए भेजने और राशि स्वीकृत हो जाने पर चेक काटने के लिए रिश्वत के रूप में देनी होती है। सीईओ (जिला) भी लगभग तीन फीसदी लेता है।
इसके बाद विकास योजना को अमली जामा पहनाते समय तकनीकी मशीनरी की जरूरत होती है। यह वह दस्ता है जिसकी सही मायने में विकास योजना को मूर्त रूप प्रदान करने में अहम भूमिका होती है। अतः जिला अभियंता का तीन फीसद और अवर अभियंता का पांच फीसद भी तयशुदा ही रहता है।
इस प्रकार योजना राशि का लगभग 25 फीसदी हिस्सा बिचौलियों के हाथ से निकलर कर जनता के प्रत्यक्ष नेतृत्त्वकर्ता अर्थात् सरपंच के हाथ तक पहुंचते-पहुंचते खर्च हो चुका होता है। इस दौरान स्वीकृति से लेकर चेक मिलने तक की प्रक्रिया के दौरान सरपंच का यात्रा भत्ता का मीटर भी विकास योजना की गति से तीव्र गति से चल रहा होता है। अतः लगभग 10 फीसदी उनके यात्रा भत्ते में खर्च हो चुका होता है। अब जब सबने अपना मुंह सिरसा की तरह खोल दिया होता है तो सरपंच महाराज ही क्यों पीछे रहें, उनका तो शेष पूंजी पर पूरा हक सा ही बनता है, और फिर वे सभी देवी-देवालयों में उनका हिस्सा दे चुके होते हैं, अब बारी आती है क्षेत्रीय अभिकर्ता और सरपंच की सो वे ही क्यों पीछे रह जायें। अतः वे भी लगभग 15 से 20 फीसद राशि अपनी जेब खर्च के लिए तो निकाल ही लेते हैं।
इसके साथ ही स्थानीय दबंग अथवा रंगबाजों को भी लगभग 10 से 15 फीसदी खिलाना पड़ता है, क्योंकि क्षेत्र में काम करना है अथवा नहीं और फिर अगली बार जीत का जिम्मा इन्हीं ने लिया हुआ होता है। अब तक लगभग 50 फीसदी राशि खर्च हो चुकी होती है।
ग्राम पंचायतों में ग्राम प्रधानों व सेक्रेेटरियों की पौ-बारह है। ग्राम पंचायतों में हो रही धांधलियों पर शिकायत के बावजूद मिलीभगत के चलते प्रशासन द्वारा कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा है, जिसकी वजह से ग्राम प्रधान सेक्रेटरी के साथ मिल कर अपनी मनमानी कर रहे हैं। देश की तमाम ग्राम पंचायतों से विधवा पेंशन, रोजगार गारंटी योजना के जॉबकार्ड, मिड-डे मील वितरण तथा बीपीएल राशनकार्ड बनाने के तौरतरीकों में हो रही धांधलियों की शिकायत आने के बावजूद उनके निस्तारण पर कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा है। कुछ ऐसे संकेत मिले हैं कि तमाम जगह तो दंबगई और चौधराहट के चलते ग्राम प्रधान और सेक्रेटरियों की शिकायत करने का साहस तक नहीं जुटा पा रहे हैं। अगर कोई शिकायत करता भी है तो उनकी शिकायत को तरजीह देने के बजाय टरकाऊ भाषा-शैली के बल पर टाल दिया जाता है। लिहाजा, लोगों को मुँह की खानी पड़ती है।
गोवा के चोडन मड्डेल ग्राम पंचायत के हताश सरपंच शंकर चोडंकर ने पंचायत सचिव पर असहयोग करने का आरोप लगाते हुए अपने पद से इस्तीफा दे दिया। पंचायत निदेशक को सौंपे अपने त्याग पत्र में उसने बताया कि पंचायत सचिव ने न केवल अपनी जिम्मेदारियों को पूरा नहीं किया बल्कि गांव के विकास कार्य को भी रोकने की कोशिश की। सरपंच के अनुसार, ‘‘हमने बार-बार पंचायती राज विभाग को उनका तबादला करने के बारे में कहा, लेकिन इस मामले में कुछ नहीं किया गया।’’ (पं.रा. अप.)।
कर्नाटक के दावणगेरे जिला पंचायत में अध्यापकों के तबादलों में हुई अनियमितताओं की जांच के लिए बनी जांच समिति के अध्यक्ष वाई. रामप्पा ने बताया कि जिले में अध्यापकों के तबादलों को लेकर डीडीपीई ने नियमों का उल्लंघन किया है। यह भी आरोप है कि अध्यापकों ने स्थानांतरण आदेश प्राप्त करने के लिए 30 से लेकर 50 हजार रुपये तक की घंस दी। साथ ही छात्रावासों में अनाज की सप्लाई करने वाली एजेंसियों द्वारा घटिया किस्म का अनाज; जो खाने लायक नहीं होता है; का मामला भी उभर कर आया है। (पं.रा. अप.)।
इसी प्रकार पंचायतों के माध्यम से चलाई जा रही अनेक योजनाओं; जैसे रोजगार गारंटी योजना सरीखी योजनाओं में भी फर्जीवाड़ा बड़े स्तर पर चल रहा है। ज्यादातर राज्यों में पंचायत कर्मचारियों का अभाव है साथ ही योजनाओं के लिए स्वीकृत फन्ड को रिलीज कराने में तमाम कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है। तमाम पंचायतों में पटवारी पंचायत में ही नहीं आते हैं। वे अपना कोई खास अड्डा बना लेते हैं, लोगों को अगर उनकी जरूरत होती है पटवारी के चक्कर काटने होते हैं। ऐसा ही राजस्थान के बाड़मेर जिले की ग्राम पंचायत राणासर कला के किसानों के साथ भी हुआ। हुआ यों कि बेमौसम की बरसात एवं ओला वृष्टि से किसानों की खड़ी फसल बर्बाद हो गयी। कुछ राहत पाने के लिए किसानों ने मुआवजा पाने की दृष्टि से गिरदावरी रिपोर्ट बनवाने के लिए पटवारी को तलाशा; क्योंकि मौके की गिरदावरी रिपोर्ट पटवारी ही बनाता है। उसी रिपोर्ट के आधार पर ही किसानों को मुआवजा मिलता है। किसान उसके घर गये, तहसील गये, पर वह नहीं मिला। बाद में पता चला कि वह तो अपना निजी स्कूल चला रहा है, और उसने अपनी मनमर्जी से गिरदावरी रिपोर्ट बना ली है, जिसकी वजह से अनेक गरीब किसान मुआवजा पाने से वंचित रह गये। इसी तरह अन्य पंचायत कार्मी भी मौके से या तो गायब रहते हैं या फिर अपनी मनमर्जी से ही आते हैं, वो भी नियमित नहीं। तमाम जगह पंचायत सरपंचों एवं ग्राम प्रधानों की धांधलियां भी उजागर हुई हैं। राजस्थान के सिरोही जिले के ग्राम बूजा में बंजारा फली से वीराफली तक हो रहे सड़क निर्माण कार्य पर मस्टररोल में दर्ज 100 मजदूरों में से 35 मजदूर अनुपस्थित पाये गये। साथ ही कई जगह मजदूरी के लिए दिए जाने वाले पारिश्रमिक में अंतर देखने को मिला। इसी जिले की आमथला ग्राम पंचायत के सरपंच की पत्नी की हाजिरी भरने के बावजूद उनके काम पर नहीं आने की शिकायतें मिलीं।
आंध्र प्रदेश के अनन्तपुर जिले के नरपला पंचायत की सरपंच एन स्वातिलता रेड्डी के अनुसार ‘‘मैं जब सरपंच चुनी गयी तो मैं सोचती थी कि मैं अपने गांव के लिए बहुत-कुछ करूँगी लेकिन जल्दी ही पता चल गया कि मैं बहुत कुछ नहीं कर सकती। लोगों की महत्वाकांक्षाएं बहुत अधिक हैं लेकिन सरपंच के अधिकार बहुत सीमित हैं।’’ (डाउन टू अर्थ से)। साथ ही उन्होंने बताया कि सोलह हजार की जनसंख्या वाली पंचायत से उनको सरपंच चुने हुए तीन महीने हो गए थे। उनके अनुसार हमारी ड्यूटी रोज सुबह 6.30 बजे से शुरू हो जाती है। सुबह जल्दी ही लोग, खासकर महिलाएं मेरे निवास पर पीने के पानी और झील की सफाई, राशनकार्ड और अन्य पेंशन इत्यादि विभिन्न तरह के कामों के लिए मुझसे मिलने हेतु मेरे निवास पर आने लगती हैं लेकिन पंचायत ऑफिस 10.30 बजे से प्रारंभ होता है। वह बताती है कि वह स्कूल एजूकेशन कमेटी, प्राइमरी हेल्थ सेंटर एडवाइजरी बोडी, विलेज वाटरशेड कमेटी, ज्वाइन्ट फोरेस्ट मेनेजमेंट बोडी तथा ग्रामसभा की सदस्या हैं, इन सबके काम वे ठीक से पूरे करती हैं। पंचायत के माध्यम से चलाई जा रही विभिन्न योजनाओं में शिरकत करने में लगभग 200 दिन लग जाते हैं। महीने में चार बार मंडल और जिला परिषद कार्यालय जाती हूं। सरपंच रेड्डी महसूस करती हैं कि दिन का ज्यादातर समय फन्ड को रिलीज कराने और बकाया फन्ड को भिजवाने की पहल के लिए अधिकारियों से मिलने-मिलाने में ही निकल जाता है। इस सबके लिए उन्हें मात्र 600 रुपये मासिक भत्ता मिलता है जबकि सरकारी कर्मचारी श्रीनिवास जो नरपला पंचायत सेक्रेटरी हैं उन्हें 14,000 रुपये मासिक वेतन मिलता है। महिला सरपंच रेड्डी का कहना है कि वे सीधे जनता के लिए काम करती हैं जबकि सेक्रेटरी श्रीनिवास, महिला सरपंच रेड्डी के लिए काम करते हैं लेकिन उनका वेतन सीधे राज्य सरकार से आता है वह भी मोटी रकम के रूप में जबकिं सरपंच रेड्डी को बेहद कम भत्ता मिलता है। इस बात से वे बेहद खिन्न हैं। यह सवाल केवल सरपंच रेड्डी ने ही नहीं उठाया है वरन् देश की अन्य पंचायतों से भी इस तरह का सवाल उठाया जा रहा है। उठे भी क्यों नहीं, क्योंकि बहुत-कुछ सीमा तक ग्राम पंचायत की योजनाओं की सफलता और असफलता में अहम भूमिका और जिम्मेदारी कुल मिलाकर सरपंच या पंचायत के अन्य अवैतनिक नियुक्त पदधारियों की ही होती है। बावजूद इसके लिए उन्हें नाममात्र का भत्ता ही मिलता है, दूसरी ओर मोटी रकम वेतन के रूप में पाने वाले सरकारी कर्मियों की कोई खास जिम्मेदारी भी नहीं होती है। ऊपर से सरकारी कर्मी चढ़ावा का प्रतिशत मांगते हैं, सो अलग।
पंचायत चुनावों में नवनिर्वाचित महिलाएं यद्यपि पूरी तरह से ऊर्जान्वित हैं। अब देखना यह है कि रचनात्मक रूप में इस ऊर्जा का किस हद तक उपयोग हो पाता है; क्योंकि क्षेत्र पंचायत में काम करने के दौरान नई-नई कठिनाईयों एवं बाधाओं से जूझना पड़ेगा, वह भी ऐसे हालात में जब पंचायत चुनावों में निर्वाचित व्यक्तियां में जन सेवा करने का भाव गायब होता जा रहा हो और चौधराहट दिखाने की भावना बल पकड़ती जा रही हो।
भारत में पंचायती राज संस्थाएं साधारण लोगों की उनके अपने शासन में भागीदारी को और ज्यादा बढ़ाने की नीयत से केन्द्र सरकार की शक्तियों को विकेन्द्रित करने का देश में विकसित किया गया एक प्रयास है। प्रयास तो अच्छा है, पर इसको प्रभावी बनाने तथा पूरी तरह सफल बनाने की राह में तमाम रोड़े हैं। भारत की पूर्ण प्रगति की राह में सबसे बड़ी बाधा अशिक्षा है। साथ ही भ्रष्टाचार, जातिवाद, खराब प्रशासन की भी अहम भूमिका है। पंच, सरपंचों में उनके और सरकारी पंचायत कर्मियों के वेतन के बड़े अंतर तथा उनकी कार्य शैली के प्रति दिन-प्रतिदिन असंतोष बढ़ता जा रहा है। यदि समय रहते इस पर ध्यान नहीं दिया गया तो निकट भविष्य में स्थिति नियंत्रण से बाहर हो सकती है। ऐसे में विकास की सारी योजनाएं मात्र कागजी दस्तावेज बन कर ही रह जाएंगी।
- अहिवरन सिंह, नामाबर मार्च 2007
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