मानसी-वाकल
बांध
बांधों के निर्माण के साथ
ही शुरूआत होती है आबादी के मूल स्थान से विस्थापन की। पेयजल, सिंचाई, बाढ़ नियंत्राण,
ऊर्जा आदि को ध्यान में रखते हुए सरकार की ओर से नदियों/प्राकृतिक स्रोतों पर बांध
बनाकर लोगों को विकास की कड़ी से जोड़ने की दृष्टि से बांध परियोजनाओं का निर्माण होता
रहा है। लेकिन निर्दिष्ट लक्ष्यों की प्राप्ति की बजाय इन बांधों के निर्माण से तबाही,
विस्थापन के इतर कुछ खास हासिल हुआ नहीं है। बांधों के निर्माण से लोग विस्थापित होते
हैं, लाख कोशिशों के बावजूद उन्हें उचित मुआवजा नहीं मिल पाता है। अतः आर्थिक तंगी
और बेरोजगारी के चलते वे कहीं और अपना ठिकाना बना सकने में असमर्थ रहते हैं। प्रायः
देखने में यही आया है कि विस्थापित होने वालों में अधिकांशतः ग्रामीण समुदाय के, विशेषकर
ऐसे आदिवासी बन्धु ही होते हैं जिनके जीवन के मूल आधार उपलब्ध प्राकृतिक संसाधन, कृषि
या फिर मजदूरी ही होते हैं। बांधों से विस्थापित हुए कुछ ऐसे भी समुदाय हैं, जिन्हें
विस्थापन की इस त्रासदी के चार-पांच दौर देखने पड़े हैं, वे पूरी तरह तबाह हो चुके हैं,
परन्तु अभी तक कहीं भी जड़ें नहीं जमा सके हैं। बांध परियोजनाओं में निर्धारित सारे
दावे खोखले साबित होते रहे हैं। बांधों से अपेक्षित ऊर्जा, सिंचाई, पेयजल सरीखी आवश्यकताओं
की आपूर्ति हो पाना बहुत दूर की बात है, मगर बाढ़ के प्रकोप से क्षेत्रा को बचा सकना
प्रायः मुश्किल ही होता है। इन सबके चलते बांधों का निर्माण जारी है। इसी सिलसिले की
देन है राजस्थान के उदयपुर जिले की झाडौल तहसील में बनने वाला मानसी-वाकल बांध।
झाडौल तहसील उदयपुर जिले
से 50 किलोमीटर की दूरी पर अरावली की घाटियों के बीचों-बीच स्थित है। यह वह स्थान है
जहां महाराणा प्रताप ने हल्दीघाटी युद्ध के बाद शरण ली थी। हरियाली व नदी नाले इसकी
विशेषता है तथा अधिकांश लोग खेती पर निर्भर हैं। तहसील में 80 प्रतिशत जनसंख्या आदिवासियों
की है जो मोटे रूप से जंगल तथा बरसाती खेती पर निर्भर हैं तथा लगभग 15 प्रतिशत लोग
रोजगार की तलाश में शहरों में आ जाते हैं। झाडौल तहसील में सोप स्टोन की छोटी-मोटी
दो खानों के अलावा कोई उद्योग नहीं है।
झाडौल तहसील से निकल कर अन्य
बरसाती नदियों से मिलती हुई साबरमती नदी में विलीन हो जाने वाली दो बरसाती नदियां,
मानसी और वाकल के नाम से जानी जाती हैं। 1970 में उदयपुर शहर के लगभग पांच लाख लोगों
के लिए जल आपूर्ति की दृष्टि से राजस्थान सरकार ने मानसी और वाकल नदियों पर एक जलाशय
बनाने की योजना बनाई थी। 1989 में तत्कालीन मुख्यमंत्राी श्री शिवचरण माथुर ने मानसी-वाकल
परियेाजना का शिलान्यास किया। उक्त योजना के तहत राजस्थान सरकार ने उदयपुर की जल आपूर्ति
के साथ-साथ हिन्दुस्तान जिंक लिमिटेड को एक समझौता के तहत 30 प्रतिशत पानी देने का
वादा किया, तभी से सरकार फिर सक्रिय हुई तथा ग्रामवासियों की आफतें बढती गईं।
बांध के प्रभाव क्षेत्रा
में आने वाले चंदवास गांव के लोगों ने वर्ष 1989 में ही इस बांध निर्माण के कार्य का
विरोध करने हेतु ‘‘चन्द्रेश्वर किसान संघर्ष समिति’’ का गठन किया। 1991 में प्रस्तावित
मानसी बांध स्थल पर भारी जल भराव के पश्चात भी छिद्रण कार्य जारी रखा गया।
15.01.91 को झाडौल के जन प्रतिनिधि, सरकार के प्रतिनिधि एस.पी., एस.डी.ओ. तथा वकील
अधिकारियों सहित संघर्षरत चंद्रेश्वर किसान संघर्ष समिति के प्रतिनिधियों के बीच लिखित
समझौता हुआ था कि छिद्रण कार्य के पश्चात ज्योलोजिकल सर्वे ऑफ इण्डिया की रिपोर्ट संघर्षरत
ग्रामीणों को दी जायेगी। लेकिन वह रिपोर्ट सरकार ने अभी तक नहीं सौंपी है जबकि इसके
लिए कई बार संबंधित अधिकारियों से मौखिक और लिखित रूप में मांग की जा चुकी है। लोगों
के कड़े रूख के चलते सरकार को मुंह की खानी पड़ी और काम को बीच में ही रोकना पड़ा। यदि
उस समय इस बांध का निर्माण किया गया होता तो लगभग 60 करोड़ रूपये खर्च होते और 6 गांवों
के लगभग 7000 लोगों को विस्थापित होना पड़ता। लगभग 3.5 वर्ग कि.मी. क्षेत्रा पानी में
डूब जाता। मानसी नदी पर बनने वाले बांध के तीसरे चरण अर्थात 5-6 वर्ष बाद मुख्य वाकल
बांध का निर्माण होना प्रस्तावित था जिससे 36 गांव के 35000 लोगों के विस्थापित होने
की आशंका थी।
उदयपुर के जनतांत्रिक अधिकार
व मानवाधिकार संगठनों के प्रतिनिधियों ने आयुक्त जनजाति विकास, उदयपुर को 16 जून,
2000 को एक ज्ञापन दिया जिसमें स्पष्ट किया गया था कि राजस्थान सरकार तथा एक राजनीतिक
पार्टी विशेष के लोग किसी भी हालत में बांध का कार्य शुरू कराने को आमादा हैं। लगता
है राजस्थान के गृहमंत्राी ने मानसी और वाकल बांध का मुद्दा प्रतिष्ठा का मुद्दा बना
लिया है। प्रदेश कांग्रेस की अध्यक्षा डॉ. गिरिजा व्यास जो उदयपुर की ही हैं उन्होंने
इस बांध से अपने राजनीतिक स्वार्थों को जोड़ते हुए हाल ही में मानसी-वाकल बांध को
40 महिनों में पूरा करने का अफसरों को वक्तव्य जारी किया है। स्थिति साफ है, क्योंकि
राजस्थान में आगमी विधान सभा चुनावों के लिए भी 40 महीने ही शेष बचे हैं। लेकिन बड़े
शर्म की बात है कि इस मुद्दे पर अन्य राजनीतिक पार्टियां या तो मौन हैं या फिर केवल
जिला स्तर पर वक्तव्य देकर ही संतुष्ट हो जाती हैं।
मानसी और वाकल का मकसद झाडौल
तहसील में सिंचाई तथा पेयजल की व्यवस्था करना नहीं है बल्कि उदयपुर शहर के लिये
202 मीटर पम्प करके पाईप लाईन द्वारा फिल्टर हाउस तक पानी लाना है। उदयपुर की पेयजल
समस्या के मद्देनजर 1969 में देवास नदी पर बांध बनाने केकाम का शिलान्यास तत्कालीन
मुख्यमंत्राी स्व. मोहनलाल सुखाड़िया द्वारा किया गया था जिसका पहला चरण 1973 में पूरा
भी हो गया। लेकिन मोहनलाल सुखाड़िया जी की मृत्यु के बाद काम बीच में ही रोक दिया गया।
बताया जाता है कि इसके दो मुख्य कारण थे, पहला, कांग्रेस में दो गुट थे, विरोधी गुट
देवास योजना से मोहनलाल सुखाड़िया का नाम ही मिटा देना चाहते थे। दूसरा, जलदाय विभाग
और सिंचाई विभाग के इंजीनियर, अफसरों एवं ठेकेदारों में चल रही खींचतान। इसमें से
30 प्रतिशत पानी हिन्दुस्तान जिंक लिमिटेड नामक सार्वजनिक उपक्रम को दिया जायेगा तथा
शेष पानी अन्य उद्योगों तथा पेयजल के लिए दिया जाना प्रस्तावित था।
सामान्य से कम बरसात होने
या फिर अकाल की स्थिति में ही मानसी-वाकल परियोजना का मुद्दा जोर पकड़ता है अन्यथा सदा
भरे रहने वाले फतहसागर, स्वरूपसागर, पिछोला आदि से उदयपुर शहर की पेयजल की आवश्यकता
बाआसानी पूरी हो जाती है। लेकिन बढ़ती जनसंख्या के मद्देनजर पेयजल की आवश्यकता की दृष्टि
से मानसी-वाकल योजना पर ध्यान केन्द्रित है। सरकार का मानना है कि इन बांधों से
2021 तक पेयजल आपूर्ति हो सकेगी। लेकिन उसके बाद में पेयजल की आपूर्ति कैसे होगी? आखिर
कब तक शहरों के हितों के लिए गरीब और आदिवासियों को नेस्तनाबूद किया जाता रहेगा?
बांध स्थल तक पहुंच मार्ग
का निर्माण प्रस्तावित था लेकिन लोगों ने इसका यह कहकर विरोध किया कि विस्थापित होने
वाले लोगों की समस्याओं का निराकरण किये बगैर वहां किसी भी प्रकार का निर्माण कार्य
अथवा उसकी तैयारी नहीं की जानी चाहिए। इस बावत लोगों ने शांतिपूर्ण जुलूस निकाला। इसमें
भारी संख्या में शामिल स्त्राी, पुरूष एवं बच्चों पर पुलिस ने अचानक गोलियां बरसानी
शुरू कर दीं, लोगों में भगदड़ मच गयी जिससे 16 लोग घायल हुए। एक महिला को गोली भी लगी।
इसीके साथ शुरू हुआ लोगों को झूठे केसों में
फसा कर प्रताड़ित करने का सिलसिला।
सरकार तथा पुलिस का अपना
आतंक राज जारी है। चंद्रेश्वर किसान संघर्ष समिति और उसके सहयोगी संगठन, समूह, संस्थाएं
आदि शान्तिपूर्ण प्रदर्शन में संलग्न हैं। इन सबके बावजूद झाडौल के एस.डी.ओ. ने क्षेत्रा
के 11 गांवों में 21 जून, 2000 को आधी रात के बाद धारा 144 लागू कर दी। झाडौल तहसील
की तरफ जाने वाले सभी मार्ग सील कर दिये गये। इतना ही नहीं डूब क्षेत्रा के हालात कर्फ्यू
जैसे हो गये और घर-घर पर पुलिस का पहरा बिठा दिया गया। किसी तरह घरों से भागे नेता
तथा दूरदराज के गांवों के लोगों ने इकट्ठा होकर प्रदर्शन करने की कोशिश भी की, पुलिस के सामने लोगों की एक न चली। 852 परिवारों
के विरूद्ध एक हजार से ज्यादा हथियारबंद पुलिस जवान तैनात कर दिये। घटना का जायजा लेकर
हकीकत बयां करने के लिए उदयपुर से जाने वाले
पत्राकारों के दल को भी पुलिस व अधिकारियों
ने बीच में ही रोक लिया। कमिश्नर क राय से शांति कायम करने की दृष्टि से रवाना हुए
दल को भी झाडौल से आगे नहीं जाने दिया। यदि वे समय रहते उदयपुर के लिए रवाना नहीं हुए होते तो उन्हें भी
गिरफ्तार कर लिया जाता।
ड्रिलिंग कार्य की भी अपनी
अलग ही कहानी है। पूरी प्रशासनिक मशीनरी के जोर लगा देने के बावजूद भी 22.06.2000 को
प्रातः शुरू होने वाला ड्रिलिंग कार्य दोपहर बाद ही शुरू हो सका। मशीनें बीच में ही
खराब हो गयीं। बरसात आ जाने के कारण काम पूरा नहीं हो सका, फिर भी सरकार काम पूरा होने
की गलत बयानी कर रही है। ऐसे में एक सवाल उठता है कि क्या झूठी घोषणाएं करने वाली सरकार
से विस्थापितों को पुनर्वास सुविधा और न्याय मिल सकेगा?
15 वर्ष पहले प्रस्तावित
योजना के आंकड़ों तथा योजना पर पुनर्विचार और पुनर्समीक्षा के लिए भी सरकार को लिखा
जा चुका है। लेकिन सरकार न तो जवाब दे रही है और न ही तार्किकता के आधार पर चर्चा कराने
के लिए तैयार है। यहां तक कि सरकार मानसी-वाकल परियोजना तथा पुनर्वास से संबंधित किसी
भी तरह की जानकारी देने से मुकर रही है।
मानसी-वाकल डूब क्षेत्रा
में पंचायती राज अधिनियम में ग्राम सभा की शक्तियों को धत्ता बताते हुए चंदवास ग्रामसभा
में दिनांक 02.06.99 की जनसभा में उपस्थित
लोगों की अस्वीकृति के बावजूद झाडौल एस.डी.ओे. ने स्वयं ग्रामसभा की तरफ से यह लिख
दिया कि ‘‘ग्रामवासियों को बांध बनाने में कोई आपत्ति नहीं है।’’ जब ग्रामीणों को असलियत
पता चली तो उन्होंने पुनः प्रस्ताव संख्या 10 लिखकर पहले के गलत प्रस्ताव को रद्द किया।
यहां सवाल यह उठता है कि जहां सचेत व संघर्षशील ग्रामसभा है, वहां भी ये सरकारी अधिकारी
मनमर्जी पर उतरकर चाहे जो लिखते और बोलते रहते हैं तो वहां का क्या हाल होगा जहां लोग
अभी तक ग्रामसभा का महत्व तक नहीं समझ पाये हैं।
जनता अपने प्रतिनिधियों का
चुनाव दुख-दर्द दूर करने, सोच-विचार कर भावी रणनीतियां बनाने, क्षेत्रा का विकास करने
तथा न्याय प्रक्रिया कायम रखने की दृष्टि से करती है। लेकिन सत्तासीन होते ही वह सारे
वायदे, इरादे और कायदे उठा कर खूंटी पर टांग देता है और भूल जाता है अपने द्वारा बयां
किये गये कर्म को। आजकल के नेता और अधिकारियों की यह मान्यता है कि ‘‘आज की आज सोचो,
कल की कल देखी जायेगी।’’ स्थिति साफ है, क्योंकि वे हमेशा इतने ज्यादा भयग्रस्त रहते
हैं कि आज तो सत्ता पर काबिज हैं, कल का किसको पता। इसी मंशा से वे लूटने-खसोटने में
लग जाते हैं। अतः वे पानी की भी काम चलाऊ योजनाएं बनाते हैं। बार-बार बनाते हैं बनाते
ही जाते हैं। स्थाई हल के बारे में नहीं सोचते पानी के संबंध में भी अकाल राहत में
मिट्टी डालने की योजनाओं की तरह की योजनाएं बनाते हैं, जिस तरह बरसात में मिट्टी बह
जाती है; अकाल खत्म, राहत खत्म। अब जब अकाल पड़ेगा तब देखा जायेगा। अतः जिस प्रकार वे
स्थाई हल के बारे में नहीं सोचते हैं उसी प्रकार उदयपुर के पीने के पानी के लिए बनाई
जाने वाली योजनाओं का हाल है, जो जनसंख्या बढ़ते ही फेल हो जाएंगी।
आखिर विकल्प क्या है? यहॉ
हम तब सोचने की बजाय अब से क्यों नहीं सोचते? ऐसे में हमें शहर में बढ़ते जनसंख्या घनत्व
को रोकने के लिए गांवों से पलायन को रोकने के लिए कारगर उपाय करने होंगे। शहरों में
बढते उद्योगीकरण को विकेन्द्रित करना पड़ेगा। उपलब्ध पानी के सदुपयोग के साथ ही बरसाती
पानी के सदुपयोग के उपायों को सख्ती से लागू करना पड़ेगा। ऐसा करने के लिए कुल मिलाकर
शहर केन्द्रित, उद्योगों तथा पर्यटन को ध्यान में रखकर बनायी जाने वाली विकास योजनाओं
को तिलांजली देकर गांवों के विकास को केन्द्र में रखकर कृषि आधारित उद्योगों को गांवों
में विकसित करने की तरफ कदम बढ़ाने पड़ेंगे। जमीन के सवालों को प्राथमिकता से हल करना
पड़ेगा अन्यथा पानी और जमीन का सवाल बोलीविया जैसे गृहयुद्धों की हालत पैदा कर सकता
है। समस्याओं का असली हल तो गांवों का विकास है तथा पानी का हल चैक डेम्स है। तभी
‘‘गांव का पानी गांव में, खेत का पानी खेत में, घर का पानी घर में’’ नारा प्रभावी हो
सकेगा। आशा है राजस्थान सरकार इससे अवश्य सबक लेगी तथा मानसी और वाकल जैसी योजनाओं
की जिद छोड़ देगी।
-अहिवरन सिंह, नामाबर, सितंबर 2000
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