Thursday, July 3, 2008

मित्तल बनाम आदिवासी

मित्तल स्टील प्लांट को झारखंड में अपना उद्योग लगाने के लिए 10,000 हेक्टेयर जमीन चाहिए। इस प्लांट की वार्षिक उत्पादन क्षमता 12 मिलियन टन होगी। इसके अलावा बाजार-टाउनशिप आदि के लिए भी जमीन चाहिए। अधिग्रहण हेतु मित्तल स्टील प्लांट के सर्वे के आधार पर जिला खूंटी के तोरपा प्रखंड, रनिया प्रखंड, कर्रा प्रखंड; गुमला जिले के कमडरा प्रखंड के गांवों को विस्थापित किया जाना है।
यदि हम एक बार अर्जुन मुंडा के इस बयान को (जो उन्होंने करार के समय दिया) यदि मान भी लें कि मित्तल स्टील प्लांट औद्योगिक विकास को चार चांद लगायेगा और देश की अर्थव्यवस्था को सुदृढ करने में सहयोगी भी सिद्ध होगा, तो यह सवाल तो बना ही रहेगा कि उन लोगों का क्या होगा, जो पीढि़यों से इस क्षेत्र में रहते आ रहे हैं और उनके पास असाध्य खेती, मजदूरी, जंगली लकड़ी और जंगली जड़ी-बूटियों के अलावा जीवन-निर्वाह का कोई अन्य साधन भी नहीं है। फिर मुख्यमंत्री अर्जुन मुण्डा जी बतायें कि जिस विकास से हजारों परिवारों को अपना घर, द्वार, खेती, जंगल आदि सब कुछ छोड़ कर विस्थापित होना पड़ेगा; उनके लिए यह विकास किस काम का; क्योंकि इतिहास गवाह है कि देश में जितने भी विस्थापन हुए हैं, उन विस्थापनों से विस्थापित आज भी तबाही की भयंकर त्रासदी से उबर नहीं सके हैं, ऐसे में फिर ऐसी कौन सी जादुई छड़ी है अर्जुन मुण्डा जी के पास जिससे विस्थापितों को यह गारंटी मिल सके कि उनका कल सुहावना होगा?
पिछले विस्थापनों से स्पष्ट है कि विस्थापित परिवार को घर के बदले घर तथा मुआवजा दे दिये जाने लेकिन जीविका का स्थाई साधन मुहैया नहीं कराये जाने पर विस्थापन संबंधी सारी सुविधायें नाकाफी होती हैं। विस्थापित परिवार को रहने के लिए घर बनाना होता है। अतः मुआवजे से प्राप्त ज्यादातर रकम घर बनाने में खर्च हो जाती है। फिर से जि+ंदगी को ढर्रे पर लाने के लिए उसके पास कुछ नहीं होता है। ऐसे में एक सामान्य जि+ंदगी जीने वाला परिवार भी पूरी तरह से पिछड़ जाता है@बरबाद हो जाता है, क्योंकि उसके सारे संसाधन, आवास और पैठ वाला क्षेत्र जो छूट जाता है। चूंकि विस्थापित क्षेत्र उसके लिए नया होता है। अतः उसे सहज रोजगार और संबंधों की बिना पर मिलने वाले सहयोग की सौगात भी नहीं मिल पाती है। नए वातावरण, परिवेश तथा क्षेत्र में तालमेल बिठा पाने के लिए उन्हें बाजार की सुविधाओं, नौकरियों, उचित आवास और सामुदायिक व्यवस्था के सामंजस्य के अभाव को झेलना पड़ता है। अतः उसे संबंधों और सहज उपलब्ध रोजगार की बिना पर मिलने वाला सहयोग भी नहीं मिल पाता है। नए वातावरण, परिवेश तथा क्षेत्र में तालमेल बिठा पाने, रोजगार तलाशने और व्यवस्थित जीवन की तलाश में हर रोज भटकना पड़ता है, क्योंकि विस्थापित होने के बाद परिवार में केवल एक ही व्यक्ति को रोजगार दिये जाने का प्रावधान होता है, जो कि परिवार के भरण-पोषण और अन्य जरूरतों के हिसाब से नाकाफी है।
जहां तक विस्थापन के चलते जमीन के अधिग्रहीत होने का सवाल है तो जमीन के बदले जमीन पहली शर्त होनी चाहिए, क्योंकि सरकार अक्सर जमीन की कमी का रोना रोकर अपने आपको अलग कर लेती है। साथ ही करार में यह भी दिया रहता है कि विस्थापित होने वाले लोगों@परिवारों की अधिगृहीत की जाने वाली जमीन के बदले यदि सरकार के पास जमीन होगी तो दी जावेगी अन्यथा उन्हें मुआवजे और परिवार में एक सदस्य के रोजगार मात्र पर ही संतोष करना पड़ेगा। ऐसी स्थिति में परिवार के एक सदस्य को रोजगार मिलने मात्र से समस्या का समाधान नहीं होने वाला।
यहां विचारणीय बात यह भी है कि जब सरकार और निवेश करने वाली कंपनी प्लांट स्थल के आसपास ही अपने कर्मचारियों के लिए आवास मुहैया करवाती है, यातायात, पानी, पार्क, बिजली, बच्चों की शिक्षा, दूरसंचार आदि की यथावत् सुविधा मुहैया कराने की व्यवस्था करती हैं ताकि प्लांट के लिए अहम जरूरी मानव श्रम सहज और यथासमय उपलब्ध होता रह सके। तो फिर विस्थापितों की जिंदगी को यथाशीघ्र ढर्रे पर लाकर बेहतर बनाने की जिम्मेदारी सरकार की नहीं तो और किसकी है ?
झारखंड राज्य की स्थापना सन् 2000 में हुई। यहां लगभग 85 प्रतिशत जनसंख्या खेती और जंगलों पर निर्भर है। आदिवासियों में यह 92 प्रतिशत से भी अधिक है। फिर भी राज्य में खेती की हालत खस्ता है। खेती को सुधारने की मंशा से बिजली और सिंचाई के लिए लगभग 50,000 हेक्टेयर जमीन को बांधों और जलाशयों के लिए घेर दिया गया है। बावजूद इसके कुल खेती योग्य क्षेत्र का मात्र 9 प्रतिशत भाग ही सिंचित हो सका है। लगता है कि खनिज पदार्थों की अकूत संपदा भरपूर होना यहां के निवासियों के दुर्भाग्य का अहम कारण है जिसकी वजह से लोगों को जमीन और घर-द्वार से अलग होना पड़ रहा है और मजबूर होना पड़ रहा है संस्कार स्वरूप मिली सदियों पुरानी प्रकृति, संस्कृति को छोड़ने के लिए।
झारखंड की यह मेरी पहली यात्रा थी। जैसा कि नाम से ही लगता है- झाड़-झंखाड़ का खण्ड, यानी क्षेत्र। अस्तु ! वैसा ही कौतूहल मेरे मन में था- पहाड़, घने जंगल, जंगली जानवर और आदिवासियों वाला यह खंड आखिर अनेकानेक विशेषताएं लिए प्राकृतिक छटा का मनोहारी संगम होगा। झारखण्ड में प्रवेश करते ही धीरे-धीरे मेरी धारणा को ठेस लगनी शुरू हुई और मेरी निगाहें रूकी तो एकदम विपरीत दृश्य पर जाकर। यानी कि नंगी छोटी-छोटी पहाडि़यां, जो अपनी नग्नता की कहानी स्वयं बयां करती नज+र आयीं। यद्यपि इस यात्रा के दौरान मैं रांची के आस-पास के क्षेत्र को ही देखने जा सका। परंतु रेल यात्रा के दौरान जितने क्षेत्र से रेलगाड़ी गुजरती चली गयी उतने-उतने क्षेत्र का जो दृश्य पटल पर आता गया उसने मेरे भ्रम को चूर-चूर कर दिया। आहत मन से मैंने इंसाफ की अध्यक्षा एवं उक्त क्षेत्र की सक्रिय कार्यकर्ता दयामनी बारला जी से निवेदन कर आस-पास के गांवों के उन लोगों से मिलने गया, जो मित्तल स्टील कंपनी के अधिग्रहण के चलते विस्थापित होने वाले हैं। बातचीत में वहां के बाशिन्दों की जो समस्यायें और दर्द सुनने को मिला, उसी के आधार पर मैंने उजडने वाले लोगों की समस्याओं और वास्तविकता से आम लोगों को वाकिफ कराने के उद्देश्य से यहां कुछ बातें उठायी हैं।
आदिवासियों की जमीन हथियाने के लिए सरकार ने पहली कोशिश 1907 में की थी, जब कालीमाटी क्षेत्र में टाटा को अपनी फैक्टरी लगानी थी। यह क्षेत्र आदिवासियों के शक्तिशाली संघर्ष के इतिहास के रूप में जाना जाता हैं जिनमें बिरसा मुंडा के नेतृत्व में 1895 और 1900 के बीच चला संघर्ष प्रमुख है। इन्हीं संघर्षों से मजबूर होकर ब्रिटिश सरकार को छोटानागपुर टैनेन्सी एक्ट बनाना पड़ा। इस अधिनियम के तहत आदिवासी जमीन गैरआदिवासियों को हस्तांतरित नहीं की जा सकती। फिर भी इन कानूनों का सुरक्षात्मक उल्लंघन होता रहा है। राष्ट्रीय मिनरल पाॅलिसी 1993 के तहत खनन वाले क्षेत्रों में 100 प्रतिशत विदेशी निवेश संभव है। तेरह ऐसे खनिज हैं जिन्हें पहले सार्वजनिक क्षेत्र के लिए सुरक्षित रखा गया था, लेकिन उन्हें अब निजी क्षेत्रों के लिए खोल दिया गया है। अब सरकार इन उद्योगों के लिए पर्यावरण और वन मंत्रालय से अनुमति लेने की प्रक्रिया को आसान बनाने और खनिजों के लिए अनुदान देने की कोशिश में लगी है।
झारखंड सरकार भी देशी और विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को पूंजी निवेश के लिए न्यौता देती जा रही है। पूंजी निवेशकों को आकर्षित करने के लिए सरकार सभी तरह का प्रशासनिक और ढांचागत सहयोग दे रही है और यहां तक कि कानूनों में बदलाव भी कर रही है, बड़े उद्योगों की 30 साल की लीज को बढ़ाकर 90 साल तक किया जा रहा है और 3 महीने में लीज देने का वादा किया जा रहा है। ऐसे में तमाम सवाल खड़े होते हैं। ये सवाल निम्न हैं-
Û क्या विकास के नाम पर विस्थापन चाहिए ?
Û यदि विकास जनता के लिए किया जाता है तो जनता को ही विस्थापित क्यों किया जाता है ?
Û मित्तल स्टील कंपनी को लीज पर दी जाने वाली जमीन के बारे में उजड़ने वाले गांवों के लोगों को क्या जानकारी दी गयी है और क्या उनके साथ इस पर राय-मशविरा किया गया है या नहीं ?
Û यदि इस क्षेत्र से गांवों को उजाड़ा जाना है तो क्या विस्थापन के पक्के इंतजाम कर लिये गये हैं यदि हां तो क्या विस्थापित होने वाले लोगों को इसकी पूर्व सूचना दे दी गयी है ?
{जैसा कि हर बार होता है कि विस्थापित होने वाले लोगों को ठीक से पता तक नहीं होता है कि उन्हें पीढि़यों से रहते आये अपने घर, द्वार, जमीन, जंगल से दूर जाना पड़ेगा। अचानक ही आदेश आता है। यह सब इतनी जल्दी होता है कि उजाड़ क्षेत्र के निवासी समझ भी नहीं पाते हैं कि यह क्या और क्यों होने जा रहा है। उनमें कई तरह के भ्रम फैलाये जाते हैं। विकास के नाम पर लोगों को विस्थापित किया जाता है।}
Û अधिग्रहण की बदौलत विस्थापित होने वाले परिवारों के लोगों को विस्थान की त्रासदी के दंश से बचाने के लिए कौन-कौन सी सुविधाएं मुहैया कराई जाएंगी, इनकी जानकारी क्या उन्हें दे दी गयी है?
Û कितने एकड़ जमीन का अधिग्रहण किया जाना है ?
Û कितने गांव और परिवार तथा आबादी विस्थापित होगी ?
Û अधिग्रहण की जाने वाली जमीन में कितनी जमीन आबादी वाली है ? कितनी खेती खोग्य है ? कितनी जमीन जंगली क्षेत्र है ? कितने क्षेत्र में नदियां, झील और तालाब हैं ?
Û वर्तमान में शिक्षा का स्तर क्या है ? और विस्थापन के बाद शिक्षा की कैसी व्यवस्था होगी ?
Û परिवार में कितने सदस्यों को नौकरी पर रखा जाएगा, और नौकरी पर रखे जाने के मानक क्या होंगे?
Û कितनी जमीन पर रोजगार का प्रावधान रहेगा ? रोजगार खेती लायक जमीन पर मिलेगा अथवा पट्टा और आबादी जमीन पर भी?
Û रोजगार@नौकरी मित्तल स्टील कंपनी के प्रतिष्ठापित संस्थान में ही दी जावेगी या फिर सरकार की ओर से भी कुछ लोगों को रोजगार@नौकरी देने का काम किया जावेगा?
Û जिन परिवारों के पास जमीन नहीं है उनके लिए रोजगार और विस्थापन की सुविधा के क्या मानक होंगे? और यदि नहीं तो क्यों?
Û संयुक्त परिवार के मुखिया के अलावा घर में अन्य परिवारों के सदस्यों को क्या नौकरी पर रखा जाएगा ? यदि उन्हें नौकरी दी जाएगी तो उसकी शर्तें क्या होंगी ? और यदि नहीं, तो क्यों नहीं ?
{क्योंकि परिवार में एक व्यक्ति को रोजगार मिल जाने से परिवार का भरण-पोषण का खर्च नहीं चलने वाला। ऐसे में परिवारों में बिखराव की स्थिति पैदा होगी और रोजगार@नौकरी प्राप्त व्यक्ति को अपने व्यक्तिगत परिवार को लेकर परिवार के अन्य सदस्यों से अलग होना उसकी मजबूरी होगी; ऐसे में बेचारे परिवार के शेष बचे उन सदस्यों का भरण-पोषण हो पाना मुश्किल ही नहीं असंभव सा होगा।}
Û विस्थापित होने वाले लोगों को रहने के लिए आवास की व्यवस्था दी जाएगी अथवा नहीं ? और यदि दी जाएगी तो उसके मानक क्या होंगे ?
Û नौकरी और आवास संबंधी व्यवस्था के अलावा क्या उन्हें किसी अन्य प्रकार की सुविधा, यथा- शिक्षा, खेती, बागान संबंधी सुविधाएं भी मुहैया कराई जाएंगी ?
Û आदिवासियों से प्रत्यक्ष बातचीत में पता चला कि आदिवासियों में अभी तक यह परम्परा चली आ रही है कि खानदान में किसी एक व्यक्ति के नाम पर जमीन होती है। इस प्रकार एक खानदान में कई सामूहिक परिवार रह रहे होते हैं। ऐसे में सवाल है कि बेचारे उन परिवारों का क्या होगा जिनके नाम पर कोई आबादी पट्ठा या खेती लायक जमीन नहीं है। क्या सरकार अथवा मित्तल स्टील कंपनी ने ऐसे लोगों के बारे में भी कुछ रणनीति बनाई है, यदि नहीं तो क्यों? क्योंकि रोजगार का हक तो उन्हें भी मिलना चाहिए।
उपरोक्त सवालों के अलावा मित्तल स्टील कंपनी की स्थापना से सबसे ज्यादा क्षति यहां के पर्यावरण की होगी। कारखाना क्षेत्र से जंगल को पूरी तरह से साफ कर दिया जावेगा। प्लांट स्थापित हो जाने के बाद आस-पास का जंगल भी नष्ट होगा। पर्यावरण प्रदूषित होगा। साथ ही मित्तल कंपनी के सहयोगी छोटे-छोटे प्लांट या व्यवसायी भी पनपेंगे, जिससे जंगल का सफाया होगा, जमीन का और ज्यादा अधिग्रहण होगा।
इन सवालों को लेकर क्षेत्रीय जनसंगठनो, समितियों, युवा संगठनों, महिला संगठनों, आदिवासी संगठनों ने गोलबन्द होकर मित्तल स्टील प्लांट के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है। सभी संगठनों ने आदिवासी अस्तित्व रक्षा के बैनर तले विस्थापन के खिलाफ सभा-सम्मेलन, गोष्ठियां, शिविर आदि करना शुरू कर दिया है और किसी भी कीमत पर नहीं हटने के लिए एकजुट हो रहे हैं।
विकास तो जनता के लिए होना चाहिए न कि जनता की कीमत पर। सरकारें भी इसी बात का ढिंढोरा पीटती हैं कि विकास जनता के लिए किया जाना है। लेकिन देखने में यह आया है कि जो कुछ हो रहा है वो एकदम इसके विपरीत है। अर्थात् विकास के नाम पर गरीब आदिवासी@किसान जनता को तबाह कर उन्हें बेमौत मरने के लिए मजबूर किया जा रहा है। संदेह होने लगा है दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की चकाचैंधपूर्ण ओढ़नी ओढ़ने वाले देश भारत की वास्तविकता पर। क्या वास्तव में भारत में लोकतंत्र जि+ंदा है ? लगता है भारत देश में लोक पर तंत्र भारी पड़ता जा रहा है। विकास किया जाना तो जायज है पर विस्थापन और विनाश की बिना पर नही।

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