Tuesday, August 5, 2014

राष्ट्रीय कृषि नीति

राष्ट्रीय कृषि नीति 
कृषि क्षेत्र की यतीमी 


भारत में शायद ही कोई ऐसा अर्थशास्त्राी अथवा राजनेता हुआ हो जिसने इस तथ्य का जाप न किया हो कि भारत की आत्मा गांवों में बसती है और यह एक कृषि प्रधान देश है। न तो यह तथ्य नया है और न इसके जाप की कहानी। यह बात और है कि भारत की आत्मा और इसके मुख्य व्यवसाय के साथ कभी भी न्याय नहीं किया गया लेकिन इसके लिए आंकड़े हमेशा जुटाए और पेश किए जाते रहे हैं। इसका अन्दाजा 1918 में मांटेग्यू चेम्सफोर्ड की रिपोर्ट में दिये गये आंकड़ों से लगाया जा सकता है; जिसके अनुसार इंग्लैण्ड जैसे विकसित देश के प्रत्येक 100 व्यक्ति में से 80 व्यक्ति उद्योग में और मात्रा 8 व्यक्ति खेती में लगे थे जबकि भारत में प्रत्येक 100 व्यक्ति में से 71 खेती या चरागाह में लगे थे। इससे यह साफ जाहिर हो जाता है कि भारत सदा कृषि प्रधान देश रहा है।
भारत में पहली बार 1881 में जनगणना हुई, जिसके द्वारा पेश आंकड़े बेहद अधूरे थे। तत्पश्चात् 1891 में जनगणना हुई।  इस जनगणना के अनुसार 61.1 प्रतिशत, 1901 के अनुसार 66.5 प्रतिशत, 1911 के अनुसार 72.3 प्रतिशत और 1921 के अनुसार 73.0 प्रतिशत व्यक्ति कृषि में लगे हुए थे।
बर्तानवी दौर के भारत के इतिहास का अवलोकन करने पर यह तथ्य उभर कर सामने आता है कि आयातित सस्ते यूरोपीय सामानों और बर्तनों तथा भारत में पश्चिमी देशों की तकनीक पर स्थापित होने वाली अनेक फैक्टरियों की वजह से अनेक उद्योग धंधे, खासकर लघु उद्योग समाप्त होते गये। इससे शहरों की बजाय ग्रामीण क्षेत्रा अधिक प्रभावित हुए। लोगों में बेरोजगारी बढ़ी और खेती से हुई पैदावार की चढ़ती कीमतों के फलस्वरूप गांवों के अनेक दस्तकारों ने अपनी खानदानी कारीगरी/पेशा छोड़ कर खेती करनी शुरू कर दी; क्योंकि उन्हें खेती अथवा खेती पर  निर्भरता ही जीवन निर्वाह का एकमात्रा साधन नजर आने लगी। कृषि पर लोगों की निर्भरता चरम सीमा तक पहुंच गयी। 1931 की जनगणना के आधार पर जहां आबादी में 12 प्रतिशत की वृद्धि हुई वहीं उद्योग धंधों में लगे लोगों की संख्या में 12 प्रतिशत की गिरावट आई। अतः उद्योग धंधों से हटे इन 12 प्रतिशत लोगों का भार खेती पर पड़ना स्वाभाविक था। पुराने भारतीय हस्तशिल्प उद्योगों के विनाश और नवीन हस्तशिल्प उद्योगों का विकास न होने की वजह से आबादी का दबाव निरंतर खेती पर बढ़ता गया। अतः ऊँची कीमतें दिलाने वाली निर्यातोन्मुखी नगदी फसलों - रेशम, जूट, कपास, चाय, तम्बाकू - की पैदावार पर निरंतर जोर दिया जाने लगा। भारत कच्चे माल के स्रोत तथा तैयार माल की मंडी बन कर रह गया। इसके परिणामस्वरूप खाद्यान्न के क्षेत्रा में आत्मनिर्भर भारत भुखमरी के कगार पर पहुंच गया।
इससे यह स्पष्ट होता है कि कृषि पर जबरदस्त दबाव और किसानों के शोषण की सामाजिक स्थितियां ही भारतीय किसानों की गरीबी की बुनियाद रही हैं। जब भारतीय अर्थव्यवस्था का आधार-स्तम्भ ‘किसान’ ही गरीब होगा तो आम जनता के संबंध में क्या कहना। सैकड़ों वर्षों के संघर्ष के बाद हासिल हुई आजादी के बाद किसानों को तमाम उम्मीदें थीं। उम्मीदों के मुताबिक उन्हें कुछ सुविधायें तो मिली थीं लेकिन वे ‘ऊँट के मुंह में जीरा के समान थीं।
एक तरफ जमीन पर लोगों के बढ़ते दबाव, जीवनयापन के लिए वैकल्पिक साधनों की अनुपलब्धता और वे प्रारंभिक परिस्थितियां जिसमें एक कमाने वाला और 10 खाने वाले हों,  इन सबके चलते किसान इस बात के लिए मजबूर हो गया है कि जहां भी और जिस भी शर्त पर संभव हो वह अनाज पैदा करे। दूसरी तरफ गैट समझौता, बहुराष्ट्रीय कंपनियों के खुले प्रवेश और बरबाद कर देने वाली राष्ट्रीय कृषि नीति के चलते वर्तमान खेती आबादी की बढ़ती हुई मांग को पूरा करने में अत्यधिक असमर्थ हो गई है और कृषि में जुटे लोग तबाह हो रहे हैं। यहां तक कि वे आत्महत्या तक करने को मजबूर हो रहे हैं।
प्राचीन काल में कृषि और घरेलू उद्योगों की बहुलता भारत की उत्पादन प्रणाली का आधार थी। साथ ही भारत में कुछ ऐसे संगठन भी थे जिनका जमीन पर साझा स्वामित्व था। अंग्रेजों ने इन छोटे-छोटे संगठनों को ध्वस्त करने के लिए शासकों और जमींदारों के रूप में अपनी प्रत्यक्ष राजनैतिक और आर्थिक दोनों ताकतों का इस्तेमाल किया। आज जिस प्रकार भारतीय बाज़ार में बहुराष्ट्रीय कंपनियों की पैठ बन रही है और हम राजनैतिक और आर्थिक उथल-पुथल के जिस दौर से गुज़र रहे हैं, उसकी तुलना 1660 में भारत आई ’ईस्ट इंडिया कंपनी’ से करना अतिशयोक्ति नहीं होगी। कृषि को उद्योग का दर्जा दिये जाने की बात कही जा रही है। खेती को बड़े-बड़े फार्मों में बदलने के प्रयास किये जा रहे हैं जिसके परिणाम स्वरूप फटेहाल होते किसान आत्महत्या करने को मजबूर हो रहे हैं। इस प्रकार भारत की पूरी अर्थव्यवस्था चरमरा जायेगी।
कृषि क्षेत्रा में गहराते संकट के कारण
1 बहुराष्ट्रीय कंपनियों, साहूकारों, महाजनों के हाथ अपनी जमीन गिरवी रखने एवं बेचने के लिए मजबूर होना।
2ण् नष्ट होते लघु उद्योग एवं हस्तशिल्प
3 जोतों का निरन्तर छोटे टुकड़ों में बंटते जाना।
4 खेती के विकास में आयी गिरावट, कृषि उपजों का गिरता स्तर, श्रम की बरबादी, कृषि योग्य जमीन का विकास न होना।
5 किसानों में खेती के प्रति बढ़ता असन्तोष एवं  क्षमता का ह्रास।
6 उर्वरकों की बढ़ती कीमतें एवं सिंचाई की समुचित व्यवस्था न होना।
7 राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में खेती की स्थिति का तेजी से असंतुलित होते जाना, खेती पर आबादी की बेतहाशा बढ़ती निर्भरता और जनसंख्या के अनुपात में विकास का न हो पाना।
8 किसानों के हाथ से जमीन के खिसकते जाने से खेतिहर सर्वहारा वर्ग में वृद्धि तथा समाप्त होते रोजगार के अवसरों का बोझ परोक्ष या अपरोक्ष रूप से खेती पर पड़ना।
9 पूंजी एवं श्रम लागत के अनुपात में कृषि उत्पादों के मूल्य का निर्धारण न होना।
10. दोषपूर्ण सरकारी ऋण वितरण प्रणाली।
11. किसान विरोधी नई राष्ट्रीय कृषि नीति।
12. उर्वरकों एवं कीटनाशकों की गुणवत्ता का जलवायु एवं मिट्टी के अनुरूप न होना।
13. बैंकों द्वारा दिये जाने वाले ऋण में कटौती और दोषपूर्ण ऋण वितरण व्यवस्था।
उपरोक्त संकट तो भारतीय कृषि में पहले से ही मौजूद थे। नई कृषि नीति में किये गये संशोधनों ने कृषि जगत में भयावह स्थितियां पैदा कर दी हैं। भारत में कृषि क्षेत्रा में बढ़ते संकट का कारण न तो प्राकृतिक परिस्थितियों की प्रतिकूलता है और न ही किसानों की अकुशलता। वास्तव में राष्ट्रीय कृषि नीति निर्धारकों के अनुत्तरदायित्वपूर्ण रवैये और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के कृषि जगत में प्रवेश के चलते भारतीय किसानों की मुश्किलें बढ़ती जा रही हैं। जनसंख्या में निरन्तर हो रही वृद्धि का असर भी कृषि क्षेत्रा एवं उसके विकास पर पड़ रहा है जिसके चलते कृषि विकास में गतिरोध पैदा हो गया है। फलस्वरूप कृषि के स्तर में लगातार गिरावट आती जा रही है। अतः किसान परेशान हैं। कुछ क्षेत्रों के किसान तो आधे पेट खाकर किसी तरह से जीवन को चला रहे हैं। इस प्रकार दिनोंदिन किसानों की परेशानियां बढ़ती जा रही हैं।
विश्व बैंक, मुद्राकोष और विश्व व्यापार संगठन के कसते शिकंजे के तहत हमारी सरकार और अर्थव्यवस्था आज पूरी तरह अपंगु हो गयी है। इनके निर्देशों पर ही नीतियों का निर्धारण एवं संचालन होता है। हमारी सरकार द्वारा घोषित राष्ट्रीय कृषि नीति भी पूरी तरह इसकी गिरफ्त में है। इसका अन्दाजा इसी बात से लग जाता है कि कृषि नीति में खेत मजदूरों, गरीब व सीमान्त किसानों की जरूरतों की पूर्ण उपेक्षा की गयी है, जिससे वे तबाही के कगार पर धकेल दिये गये हैं और इस तरह भारतीय कृषि में धीरे-धीरे पूरी तरह से धनी काश्तकारों, पूंजीवादी जमींदारों, बड़े व्यापारिक घरानों और बहुराष्ट्रीय निगमों का बोलबाला होता जा रहा है, अतः यह स्पष्ट हैं कि इस काम को अन्जाम देने की दृष्टि से ही राष्ट्रीय कृषि नीति में संशोधन किये गये हैं।
यदि हम अपनी वर्तमान उत्पादकता 1.893 टन प्रति हैक्टेयर को विश्व की औसत उत्पादकता 2.58 टन प्रति हेक्टेयर के स्तर तक पहुंचाना चाहते हैं तो इसके लिए किसानों के हित में भूमि सुधारों में परिवर्तन जरूरी हैं। यह तय है कि जब किसान-मजदूर सुखी एवं समृद्ध होगें तभी गांव, शहर और देश को गरीबी, कुपोषण, अज्ञानता, बेकारी और बीमारी से बचा सकना संभव हो सकेगा। आजादी नसीब होने के समय चीन अत्यन्त पिछड़ा एवं अविकसित देश था। चीन के भूमि सुधारकों एवं कृषि नीति नियामकों ने इस बात को बहुत अच्छी तरह समझ लिया था कि भूमि सुधारों को किसानों के हित में लागू किये वगैर चीन का विकास संभव नहीं है। यही कारण है कि वहां किसानों के हित में किये गये भूमि सुधारों की बदौलत ही चीन आज हर क्षेत्रा में हमसे आगे है। भारत में चीन की तुलना में प्राकृतिक साधन, कृषि योग्य भूमि व जल प्रचुर मात्रा में मौजूद है। फिर भी, भारत का सकल कृषि क्षेत्रा 16.25 करोड़ हेक्टेयर ही है जबकि चीन का 12.42 करोड़ हेक्टेयर है। हमारा सिंचित क्षेत्रा 5.7 करोड़ हेक्टेयर है जबकि चीन का 4.9 करोड़ हेक्टेयर। खाद्यान्न की खेती का हमारा क्षेत्राफल 0ण्104 करोड़ हेक्टेयर है जबकि चीन का 0ण्074 करोड़ हेक्टेयर इस प्रकार हर क्षेत्रा में आगे होने के बावजूद भी भारत का कुल अन्न उत्पादन केवल 22.30 करोड़ टन है जबकि चीन का हमसे दो गुना 44.38 करोड़ टन है। अर्थात् प्रति हैक्टेयर के हिसाब से भारत का 2232 किलोग्राम और चीन का 4844 किलोग्राम बैठता है। हमारे यहां प्रति व्यक्ति अन्न की सालाना उपलब्धता 232.4 किलोग्राम है जबकि चीन में 356.8 किलोग्राम। इससे यह स्पष्ट होता है कि भारत में प्रति व्यक्ति अन्न की वार्षिक उपलब्धता चीन की तुलना में दो-तिहाई से भी कम है और प्रति हेक्टेयर उत्पादकता चीन की तुलना में आधी है। हमारे यहां भी भूमि सुधारों से गांव और कृषि का नक्शा बदला जा सकता था, परन्तु आजादी के बाद से ही केन्द्र और राज्यों में सत्तारूढ़ दल इन कदमों को उठाने में नाकामयाब रहे हैं।
बड़े फार्मों में निजी पूंजी निवेश को प्रोत्साहित करने के लिए कृषि को उद्योग का दर्जा देने पर सरकार गम्भीरता से विचार कर रही है जबकि हमारा 87 फीसदी किसान तो 2.3 हैक्टेयर का मालिक है और आमदनी के हिसाब से बेहद गरीब है। इस जमीन से वह किसी तरह अपने परिवार को तो पाल सकता है पर कृषि को आधुनिकीकरण और मशीनीकरण की कड़ी से जोड़ने के लिए उसके पास साधन नहीं है। इसके साथ ही सरकार अपनी किसान विरोधी नीतियों के कारण उसका शोषण करती जा रही है। कृषि सब्सिडी समाप्त की जा रही है। बिजली और पानी का निजीकरण किया जा रहा है। खाद, बीज, कीटनाशक दवायें महंगी से महंगी होती जा रही हैं। फसल की प्रति एकड़ लागत लगातार बढ़ती जा रही है लेकिन लागत के अनुपात में किसान को अपनी फसल की उचित कीमत नहीं मिल पा रही है।
सार्वजनिक बैंकों ने सस्ती दर पर ऋण देना लगभग बन्द कर दिया है। बैंकों ने अपने कुल ऋण का 40 प्रतिशत ऋण कृषि क्षेत्रा को देने का वायदा किया था, लेकिन वह 11 प्रतिशत तक ही सीमित रह गया है। इस 11 प्रतिशत का फायदा भी कृषि उद्योग और बड़े किसान ले जाते हैं। छोटे व सीमान्त किसानों को तो फिर भी अपनी जरूरतों के लिए साहूकारों और सूदखोरों से ही कर्ज लेना पड़ रहा है। इतना ही नहीं, सरकार उसकी पैदावार को खरीदने के लिए भी तैयार नहीं होती है। इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पिछले दिनों आंध्र प्रदेश की सरकार ने बयान दिया है कि किसान अब धान पैदा करना बंद कर दें; क्योंकि सरकार खरीद नहीं सकती। भारत के कृषि मन्त्राी संसद में घोषणा कर चुके हैं कि हम न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित तो कर सकते हैं पर उस मूल्य पर खरीददारी नहीं कर सकते। ऐसे में लाभकारी दामों की बात तो भूल जाईये उस न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा का भी क्या अर्थ रह जाता है, जब केन्द्रीय खरीददारी एजेंसियों द्वारा पर्याप्त वित्तीय धन के साथ सही समय पर बाजार में हस्तक्षेप की गारंटी न हो। ऐसे में किसान के पास आढ़तियों (बिचौलिये व्यापारियों) के हाथों अपनी फसल कोड़ियों के भाव बेचने के सिवाय और कोई विकल्प नहीं बचता है। एक तरफ तो सरकार अपने देश की पैदावार को खरीदने में अपनी असमर्थता दिखा रही है और दूसरी तरफ बड़े-बड़े व्यापारिक संस्थानों और बहुराष्ट्रीय निगमों के हितों के लिए आयात-प्रतिबन्ध हटाकर स्वदेशी बाजार को सस्ते विदेशी मालों के लिए खोलने को तैयार है, ऐसे में कृषि उद्योगों तथा दस्तकारी का विनाश तो अवश्यंभावी है। मार्च 1999 में जिन 714 आइटमों (वस्तुओं) पर से प्रतिबन्ध हटा लिया गया है उनमें 339 कृषि उत्पादित वस्तुए हैं; जो गरीब उत्पादकों की रोजी-रोटी को प्रभावित करती हैं अन्य 150 चीजें छोटे उद्योगो में उत्पादित होने वाली थीं।
विश्व बैंक, मुद्राकोष और विश्व व्यापार सगठंन की पहल पर सरकार ने भूमंडलीकरण और उदारीकरण की जो नीतियां अपनाई हैं उनसे निश्चित ही भारतीय उद्योगो का; विशेष कर लघु उद्योगों का विनाश तो तय ही है; क्योंकि वस्त्रा उद्योग, चीनी उद्योग, तेल उद्योग और लघु उद्योग आदि सभी किसी न किसी तरह कृषि क्षेत्रा से जुड़े हुए है।
लागत खर्च भी नहीं मिल पाने के कारण किसान लगातार कंगाल और कर्ज़दार होते जा रहे हैं और बिचौलिये व सटोरिये अनाप-शनाप मुनाफा कमा रहे हैं। यह क्रम लगातार जारी है। कंगाली और कर्ज से निजात पाने के लिए किसान अपने गुर्दे बेच रहे हैं और आत्म हत्याएं कर रहे हैं। एक अनुमान के अनुसार पंजाब, हरियाणा जैसे समृद्ध राज्यों में ही किसानों पर इस वक्त लगभग क्रमशः 6 हजार और 5 हजार करोड़ का कर्ज है। 2 हेक्टेयर से नीचे के किसान अपनी जमीनें गवां रहे हैं। 3 लाख एकड़ प्रति वर्ष बिक्री होने वाली जमीन को किसान नहीं खरीद रहे हैं, इसे खरीद रहे हैं बड़े व्यापारिक संस्थान और बहुराष्ट्रीय निगम। अतः बातें हो रही हैं निजीकरण की और किया जा रहा है निगमीकरण। यही है इस कृषि नीति का मुखौटे के अंदर छिपा असली चेहरा।
इस प्रकार भाजपा गठबंधन सरकार की मंशा साफ नजर आने लगी है। सरकार विषम परिस्थितियां पैदा कर किसानों को इसलिए मजबूर करना चाहती है कि वे अपनी जमीनें बड़े-बड़े व्यापारिक संस्थानों और बहुराष्ट्रीय निगमों को हर हाल में बेच दें या फिर अनुबन्धों के तहत ठेके पर सौंप दें। इन अनुबन्धों के तहत किसान अपनी जमीन पर अपने परिवार तथा अपने साधनों सहित खेती करेगा और उसकी फसल व्यापारिक संस्थान या बहुराष्ट्रीय कंपनी मनमाने दामों पर खरीदेगी। जैसा कि पंजाब में देखने में आ रहा है। वहां पेप्सी की टमाटर सॉस की फैक्टरी के लिए टमाटर की खेती, आलू चिप्स के लिए आलू की खेती तथा चीनी उद्योग के लिए गन्ने की खेती का ग्रहण किसानों को लग गया है। इससे कौन फायदा उठायेगा? निश्चित तौर पर उद्योग का मालिक। क्योंकि उद्योग में निर्मित वस्तुओं के लागत मूल्य का कृषि पैदावार की लागत मूल्य के साथ कोई निश्चित रिश्ता या अनुपात तय करके वस्तुओं के दाम तय नहीं किये जाते। उद्योग वाला तो ज्यादा से ज्यादा फायदा उठाने के लिए पैदावार को कम से कम मूल्य पर खरीदेगा।
एक तरफ देश में भुखमरी की स्थिति है और दूसरी ओर गोदामों में अनाज सड़ रहा है। सरकार उसे सस्ती दर पर या काम के बदले अनाज के रूप में गरीबों को देने की बजाय घाटा उठा कर निर्यात कर रही है। एक सर्वेक्षण के अनुसार यदि सरकार एक लाख टन अनाज 2 किलो की दिहाड़ी के हिसाब से सार्वजनिक निर्माण/विकास कार्य पर खर्च करे तो उसकी एवज में करीब 5 लाख लोगों को प्रति व्यक्ति सौ दिन का रोजगार मुहैया कराया जा सकता है।
भाजपा गठबन्धन सरकार सार्वजनिक क्षेत्रा की सम्पत्तियों और संस्थानों को निजीकरण के नाम पर बड़े पूंजीपतियों, बहुराष्ट्रीय कंपनियों को कोड़ियों के भाव इसलिए सौंप रही है ताकि आर्थिक क्षेत्रा में ये बेरोकटोक प्रवेश कर सकें। अब कृषि क्षेत्रा में भी इनके प्रवेश के लिए सरकार ने हरी झण्डी दिखा दी है। भूमण्डलीकरण और कृषि नीतियों में सुधार के नाम पर इन कंपनियों के लिए कृषि क्षेत्रा में प्रवेश का मार्ग खोला जा रहा है। ये कंपनियां हमारे किसानों का हर तरह से शोषण कर रही हैं जिससे हमारे देश की खाद्य सुरक्षा को खतरा पैदा हो गया है। पूंजीपति एवं बहुराष्ट्रीय कंपनियां बड़े-बड़े कृषि फार्म स्थापित कर रहे हैं, कृषि का मशीनीकरण होता जा रहा है, गरीब और सीमान्त किसान अपनी जमीनें बेचकर खेत मजदूरों की कतारों में शामिल हो रहे हैं और इस तरह मशीनीकरण के कारण वे बेरोजगार हो रहे हैं। निजी उद्योगों में नौकरियां पहले ही नहीं बढ़ रहीं हैं। लाखों लघु इकाईयां इन नीतियों की मार से बन्द होती जा रही हैं और लाखों मजदूर बेरोजगार हो रहे हैं।
हमारी खेती की बरबादी के संकेत मिलने लगे हैं। पता नहीं, इस राह पर आगे हम कहां जाकर रूकेंगे? शायद हमारी खेती का संपूर्ण घ्वंस ही इसकी आखिरी मंजिल होगी। गरीबी, कगांली और भुखमरी से लोग त्रास्त हैं, अमीर और गरीब के बीच का अंतर निरंतर बढ़ता जा रहा है। भय, आशंका, अनिश्चितता और हताशा से लोग ग्रसित हैं। लोग अपने आपको असुरक्षित महसूस कर रहे हैं। यह सरकार पहले ही ग्रामीण विकास और रोजगार की सभी योजनाओं, सार्वजनिक वितरण प्रणाली, शिक्षा, स्वास्थ्य व कृषि में सार्वजनिक निवेश, सार्वजनिक संस्थाओं से सस्ती दर पर ऋण उपलब्धता, सस्ती दर पर खाद, बीज, पानी मुहैया करवाने के लिए कृषि को दी जाने वाली सभी तरह की सब्सिडी लगभग समाप्त करने की इच्छा जाहिर कर चुकी है। इसलिए गांव, कृषि, कृषि आधारित उद्योग व उनसे जुड़े गरीब किसान-मजदूर अब इन्हीं कम्पनियों और निगमों के रहमोकरम पर होंगे। आर्थिक नीतियों से तो लोग पहले ही ठगे जाते रहे हैं; अब नई कृषि नीति से किसान, मजदूर और गांव पूरी तरह तबाह हो जायेंगे और हमारी खेती पूरी तरह बरबाद हो जायेगी।
सरकार की किसान विरोधी नीतियों एवं बहुराष्ट्रीय कंपनियों के प्रवेश के भय के चलते कृषि जगत में आज ऐसी परिस्थितियां पैदा हो रही हैं जिनका एकमात्रा निराकरण दूरगामी प्रभावयुक्त क्रांति ही हो सकती है। अब कृषि के क्षेत्रा में बढ़ते संकट पर विचार किया जाना और उसके निराकरण के उपाय ढूंढ़ना अत्यन्त आवश्यक हो गया है, तभी कृषि जगत पर छाये संकट को समूल नष्ट कर पाने में हम सफल हो सकेंगे। इस प्रकार इसके विरोध के अलावा दूसरा कोई विकल्प नहीं रह गया है।
अपनी रोजी-रोटी, स्वाधीनता व स्वाभिमान की रक्षा की लड़ाई, अपने और अपने बच्चों के उज्ज्वल भविष्य की रक्षा की लड़ाई लड़ना समय और परिस्थितियों की मांग है। यह लड़ाई अकेले किसानों की नहीं बल्कि किसानों, खेत मजदूरों, मशीनीकरण के चलते बेरोजगार होते औद्योगिक मजदूरों, बेरोजगारों, और नौजवानों की लड़ाई है। तो फिर देर क्यों, आज ही हम सब संगठित होकर बहुराष्ट्रीय कंपनियों के प्रवेश को रोकने और सरकार की गलत नीतियों में परिवर्तन, रोजी-रोटी, स्वाधीनता एवं स्वाभिामान की रक्षा के लिए, अपने बच्चों के उज्ज्वल भविष्य की लड़ाई लड़ने के लिए एकजुट हों।
यदि आज हमने इन सबका एकजुट होकर विरोध नहीं किया तो 1660 में व्यापार के नाम पर भारत आई ’ईस्ट इंडिया कंपनी’ वाली कहानी पुनः दोहराई जायेगी, इसमें कोई शक नहीं।
- अहिवरन सिंह, नामाबर मई 2001

No comments: