Thursday, November 13, 2014

आस्था और विकास के नाम पर प्रदूषित व गुम होते जल स्रोत


उत्सव और मेले हमारी संस्कृति के प्रतीक हैं और हमारी आंतरिक खुशी तथा प्रसन्नता की अभिव्यक्ति के माध्यम भी। उत्सवों से हमें एकजुटता का संदेश मिलता है। सामाजिक समरसता पैदा करना संस्कृति का सहज और स्वाभाविक कार्य है। लेकिन जिस तरह धार्मिक उत्सव कर्मकांडी और आडंबरपूर्ण बनते जा रहे हैं, उसके चलते उत्सव और आस्था के नाम पर अपसंस्कृति, विकृतियों तथा रूढ़ियों को बढ़ावा मिल रहा है, जिसके कारण सांस्कृतिक तथा धार्मिक अवसरों पर देश भर में नदी-तालाबों में साल-दर-साल मूर्तियों के विसर्जन से हजारों किलोग्राम मिट्टी, फूल, हवन सामग्रियों की राख तथा बचे हुए अन्य पदार्थ, केरोसिन तेल, ऑइल पेंट, तारपीन तेल, प्लास्टिक, पॉलिथीन, लकड़ी, प्लास्टर ऑफ पेरिस, पुआल, बांस, सिंदूर, अभ्रक, धागे, कपड़े, सिक्के, तेल और कई तरह के अन्य हानिकारक पदार्थ भी डाले जाते हैं। साथ ही दिन-प्रतिदिन के विसर्जन में भी तमाम तरह के हानिकारक तथा गंदे पदार्थ विसर्जित किये जाते हैं।

देश की राजधानी दिल्ली में यमुना में विसर्जित की जाने वाली सामग्री का आकलन जब हमने किया तो अचंभित रह गए। मूर्तिकारों व सजावटकर्ताओं से चर्चा में पता चला कि शहर में लाखों की संख्या में मूर्तियां स्थापित की जाती हैं, जो एक किलोग्राम से पांच सौ किलोग्राम तथा कुछ तो इससे भी अधिक की होती हैं। इनमें करीब सैकड़ों टन मिट्टी तथा प्लास्टर ऑफ पेरिस, ऑयल पेंट तथा तारपीन तेल व मिट्टी तेल प्रयोग किया जाता है। इसके साथ ही हजारों किलो पुआल, लकड़ी, बांस, रस्सियां, कांच, पॉलीथिन, प्लास्टिक और थर्मोकोल, फूल मालायें, कपड़े, तथा दूसरे खराब और बचे हुए पदार्थ भी पानी में विसर्जित होते हैं। इससे यमुना का पानी एकदम प्रदूषित हो जाता है। पानी की कमी के चलते बहाव में भी रुकावट आती है।

नदियों-तालाबों में प्रदूषण का एक महत्वपूर्ण कारण उनमें विभिन्न धार्मिक अवसरों, शोभा यात्राओं पर डाली जाने वाली सामग्रियां है। इनमें प्रवाहित किए जाने वाले पदार्थों की संख्या भी कम नहीं है। हम सब धार्मिक नागरिक कहलाना पसंद करते हैं जिसके कारण विभिन्न धर्मो में पूजा व उपासना की अलग-अलग मान्यताएं विकसित होती चली गई हैं। सभी धर्मावलंबियों में आस्था के प्रदर्शन की सार्वजनिक एवं व्यक्तिगत रुचि बढ़ती जा रही है।
देश में नदियों और तालाबों की बहुलता रही है जिससे यहां का भूजल स्तर भी काफी अच्छा रहा है। लेकिन पिछले कुछ दशकों में नदियों के मार्ग प्रायः अवरूद्ध होते जा रहे हैं तथा तालाबों की संख्या में भी बेतहाशा कमी आई है। वे उथले और प्रदूषित भी होते जा रहे हैं। विकास तथा शहरीकरण के नाम पर अनेक बड़े-बड़े तालाब अदृश्य हो गये हैं तथा नदी तटों को पाट कर कॉम्प्लेक्स बनाने हेतु भूमि पर अतिक्रमण के कारण ज्यादातर नदियों के तट भी सिमटते जा रहे हैं। कुछ गलत सामाजिक परंपराओं के अनुसरण के कारण भी नदियां और तालाब प्रदूषित तथा उथले होते जा रहे है। कुछ नदियां; जिनमें पानी का जल स्तर बरसात के बाद प्रायः स्थिर सा रहता है उनमें तथा तालाबों में जलकुंभी फैलने और आसपास की फैक्ट्रियों से खतरनाक रसायनों के प्रवाह के कारण आसपास के बाशिन्दे बुरी तरह बीमार हो रहे हैं।

पहले जब सार्वजनिक उत्सवों की परंपरा स्थापित हुई थी तब नदी-तालाब बड़े व गहरे हुआ करते थे। नदियों के बहाव तेज होते थे। तब नदी-तालाब के तटों पर न इतनी भीड़ होती थी, न ही इतनी अधिक मात्रा में मूर्तियां ही विसर्जित की जाती थीं। भक्तगण मूर्तियां भी छोटी बनाते थे तथा उन्हें रंगने के लिए प्राकृतिक रंगों का ही सहारा लेते थे। इन छोटी मूर्तियों को बड़ी नदी, तालाब आसानी से बिना किसी नुकसान के अपने में समाहित कर लेते थे। साथ ही इन मूर्तियों का स्थापन तथा विसर्जन बड़े समूहों में होता था। लेकिन आज की परिस्थितियां भिन्न हैं। नदी-तालाब सिकुड़ते जा रहे हैं जबकि प्रतिमाएं व आस्था के धार्मिक प्रतीक बड़े होते चले जा रहे हैं। पहले सामूहिक स्तर पर मूर्ति स्थापन व विसर्जन हुआ करता था लेकिन ये समूह भी अब बेहद छोटे होते जा रहे हैं, इस कारण नदी-तालाबों में विसर्जन सामग्री की मात्रा प्रतिवर्ष बढ़ती ही जा रही है। मूर्तियों के विसर्जन से नदी-तालाब में प्लास्टर ऑफ पेरिस जल में पहुंचकर उसके छोटे-छोटे छिद्रों को बंद कर देता है। इससे नदियों-तालाबों की जल सोखने (रिचार्जिंग) की क्षमता कम हो जाती है। ऑइल पेंट, तारपीन, मिट्टी तेल जल में अशुद्धि पैदा कर उसे उपयोग के लायक रहने नहीं देते। प्लास्टिक, कांच, थर्मोकोल, पॉलिथीन और प्लास्टिक की रस्सियां पानी में घुलनशील नहीं हैं। इसलिए जल जन्तु जैसे, मछलियां, सरीसृप तथा अन्य जीव इन्हें खा भी नहीं सकते। गलती से यदि वे इन्हें खा भी लेते हैं तो इसके बदले में उन्हें मिलती है मौत। अभ्रक, आर्सेनिक, सिंदूर, लेड, कपूर, क्रोमियम, जस्ता, मैंगनीज, अगरबŸाी आदि नदी-तालाब के पानी के प्राकृतिक गुण को ही समाप्त कर देते हैं। इस प्रकार प्रदूषित पानी से न केवल मनुष्यों बल्कि पानी जीने जाने वाले पशुओं को भी विभिन्न प्रकार के रोग, संक्रमण हो जाते हैं, जिनमें स्नायु रोग, एलर्जी, खुजली, पेट रोग प्रमुख हैं। घटते जल स्तर के चलते बड़े-बड़े शहरों तथा निचले जल स्तर वाले क्षेत्रों में पीने के पानी के मुख्य स्रोत भी ये नदी-तालाब ही हैं। यद्यपि इनका पानी शोधित करके पीने लायक बनाकर जल आपूर्ति की जाती है, बावजूद इसके यह शोधित जल पीने के मानकों पर खरा नहीं उतरता है। इस जल का उपयोग ऐसे क्षेत्रों के लोगों की मजबूरी है। इस जल के उपयोग से लोगों में तरह-तरह की बीमारियां पनपती जा रही हैं, इसके कारण लोग अस्वास्थ्यकर जीवन जीने के लिए अभिशप्त हैं।

सार्वजनिक व धार्मिक कार्यक्रमों में नदियों तथा तालाबों के प्रदूषण की समस्या न सिर्फ बड़े शहरों की है, बल्कि समूचे देश की समस्या बन गयी है। एक पत्रिका के हवाले से कुछ वर्ष पूर्व मुंबई में गणेशोत्सव में किए जाने वाले विसर्जन के संबंध में पता चला कि विसर्जन के बाद समुद्र तट पर करीब 50 हजार से भी अधिक थैलियां तैरती हुई पाई गईं। ‘‘जिद न्यास ट्रस्ट’’ के अध्ययन से पता चला कि अकेले मुंबई में गणेश विसर्जन के जरिए 175 मीट्रिक टन का कार्बनिक कचरा पानी में छोड़ा जाता है। इसी तरह कोलकाता विश्वविद्यालय के जीव रसायन विभाग ने सन् 1990 से 95 के बीच हुगली नदी में प्रदूषण की स्थिति का अध्ययन करके बताया था कि जलस्रोत विसर्जन से ही सर्वाधिक प्रदूषित होते है। फिर चाहे विसर्जन मुख्य त्यौहारों-अवसरों के समय पर हांे अथवा पूजा सामग्री आदि के रूप में नियमित किया जाने वाला हो।

आधुनिक चकाचौंध दौर में सामाजिक बदलाव का असर दुर्भाग्यवश धार्मिक उत्सवों पर भी पड़ा है। धार्मिक उत्सवों में विकृतियों का प्रकोप नित नये स्वरूप में बढ़ता ही जा रहा है. इस प्रकोप से हमारी संस्कृति तथा समाज को क्षति पहुंच रही है। बदलते दौर की मांग के चलते धार्मिक उत्सव धार्मिकता से भटक कर एक तमाशे की श्रेणी में बदलते जा रहे हैं। आधुनिक पीढ़ी द्वारा उत्सवों को अपने अंदाज में मनाने से धार्मिक आस्था और ईश्वर के प्रति आस्था की बजाय फूहड़ता का प्रदर्शन भारी मात्रा में बढ़ता जा रहा है। नगरों, कस्बों में ही नहीं अब गांवों में भी ये विकृतियां पहुंच चुकी हैं, जो हमारे धर्म, संस्कृति पर प्रश्नचिन्ह खड़ा करती हैं। झांकियों के नाम पर किसी भी गली, मोहल्ले में टेंट, तंबू लगाकर प्रतिमाओं की स्थापना के जरिये अपने वर्चस्व को प्रदर्शित करने का माध्यम बना लेना, उत्सव के दौरान आधुनिक फिल्मी गानों पर कानफोडू संगीत का सायंकाल से देर रात्रि तक प्रसारण, बिजली, सजावट, माईक लगाने में प्रतिस्पर्धा करना, डीजे जैसे ध्वनिविस्तारक यंत्रों का बहुतायत प्रयोग, चंदा वसूली में दादागिरी पर उतर आना, राजनीतिक संरक्षण प्राप्त कर अधिकारियों, कर्मचारियों और व्यापारियों पर दबाव बनाना, यातायात को बाधित करने में कोई संकोच नहीं करना जैसे मामले दिन-पर-दिन बढ़ते ही जा रहे हैं। अस्तु आज इन उत्सवों को मनाने के तरीकों पर समाज को पुनर्विचार करने की जरूरत है।

जल स्रोत-धाराएं सैकड़ों-हजारों साल की प्रक्रिया के बाद ही नदियों का स्वरूप लेती हैं। यदि ये एक बार बुरी तरह प्रदूषित हो जायें, तो इन्हे पूरी तरह प्रदूषण मुक्त करना कई दशक लम्बी सतत् प्रकिया के बगैर संभव नहीं होता। गलतियां पहले भी र्हुइं थीं लेकिन अमृतमंथन कर जहर को उससे अलग करने के बाद भारत के धर्मशास्त्रों ने नदी की शुचिता के लिए अमृत और जहर को हमेशा अलग-अलग रखने का सिद्धांत प्रतिपादित किया था। मेरी समझ से समुद्र मंथन की प्रस्तुति इसी दृष्टि से की गयी होगी ताकि अमृत (शुद्धता) और विष (अशुद्धता) से समुद्र को शुद्ध रखा जाय जिससे सारी सृष्टि सुखी और स्वस्थ जीवन जी सके ताकि सृष्टि चक्र अबाध गति से चलता रह सके। यदि समुद्र और जल स्रोत शुद्ध होंगे तो सृष्टि के शेष सारे अवयव- ‘चल’ अथवा ‘अचल’ भी व्यवस्थित रहेंगे। स्पष्ट है कि सृष्टि चक्र की गति को रोकना अथवा उसमें परिवर्तन लाने का मतलब है विनाश को आमंत्रण देना।

यह सही है कि समय की मांग के अनुसार हर रीति-रिवाज में परिवर्तन वांछनीय है जिसे स्वीकार करना सभी धर्मों व नागरिकों के लिए स्वाभाविक है। लेकिन साथ ही हमें अपने प्रिय जल स्रोतों पर बढ़ते प्रदूषण के खतरे को गंभीरता से लेना होगा, क्योंकि यह स्वस्थ सामाजिक जीवन से जुड़ा बहुत महत्वपूर्ण मुद्दा है। विसर्जन के वैकल्पिक स्थानों व उपयोग पर तुरन्त विचार हो, प्रतिमाओं में प्लास्टर ऑफ पेरिस की जगह साधारण मिट्टी के उपयोग तथा उनकी सजावट में हानिप्रद रसायनों, ऑइल पेंट और तारपीन के तेल के उपयोग पर सख्त प्रतिबंध लगे। विसर्जन की जाने वाली मूर्तियों तथा पूजा सामग्री में केवल प्राकृतिक पदार्थों और रंगों के उपयोग कर सकने की छूट हो। पूजा सामग्री को पॉलिथिन में भरकर प्रवाहित करने की बजाय उसे पृथक रूप से इकट्ठा कर उसके निस्तारण के प्रबंध हों। ऐसी सामग्री जिसे रि-साइकिल करके पुनः उपयोग में लाया जा सकता है, उसकी रि-साइक्लिंग हो तथा कुछ अवशिष्ट पदार्थों को जो कंपोस्ट खाद के अच्छे स्रोत हो सकते हैं उन्हें खाद के रूप में उपयोग कर सकने योग्य बनाने की प्रक्रिया को स्थापित किया जाय। अर्थात् विसर्जन योग्य सामग्री को एकत्रित करके उसके शोधन के उचित प्रबंध हों। उसकी स्वास्थ्यकर मानकों के तौर पर रिसाइक्लिंग करके पुनः उपयोग लायक बनाया जाय। इस संबंध में मुंबई में एक अच्छी शुरूआत हुई है। ऐसा करने से एक सबसे बड़ी बात तो यह होगी कि हमारे जल के स्रोत सुरक्षित, संरक्षित तथा स्वच्छ हो जायेंगे। जब जल स्रोत सुरक्षित, संरक्षित तथा स्वच्छ होंगे तो हमारा वातावरण भी स्वस्थ, सुरक्षित तथा संरक्षित होगा, जो सृष्टि के सभी चर-अचर जीवों-अवयवों के लिए लाभप्रद होगा। आज की परिस्थितियों में जब जलस्तर लगातार गिरता जा रहा है, पानी की कमी के मामले जगह-जगह उठाये जा रहे हैं, तब संचयित जल का महत्व और अधिक बढ़ जाता है। ऐसे में इसको प्रदूषण से बचाने से बड़ा कोई धर्म नहीं हो सकता।

आज हम गंगा में पहले जहर मिला रहे है, फिर उन्हें अलग करने के नाम पर करोड़ों बर्बाद कर रहे हैं। अतः नदियों व इनके किनारों को मैले नालों व मल शोधन संयत्रों से दूर रखना जरूरी है। रिवर और सीवर को अलग रखे वगैर काम चलने वाला नहीं। मल को खुले में बहाकर ले जाना और नदियों/जल स्रोतों में मिलाना एक वैज्ञानिक अपराध है। इस सिद्धांत को आधार मानकर प्रदूषण के स्रोत पर ही निपटारा करने की नीति बनानी होगी। वर्तमान सीवरेज प्रणाली दुरूस्त नहीं है। इसमें तुरंत सुधार की जरूरत है। यदि नदियों को और जीवन को बचाना है, तो सामाजिक जवाबदारी व हकदारी दोनों साथ-साथ सुनिश्चित करनी ही पड़ेंगी। इसीलिए जरूरी है कि सभी राज्यों द्वारा अपने-अपने स्तर पर स्थानीय भूसांस्कृतिक विविधता का सम्मान करते हुए नदी नीतियां बनाई जाएं। तालाब और झरने भी जल संरक्षण और पानी के अच्छे स्रोत हैं। अतः पुराने बेकार पड़े तालाबों-झरनों का पुनरूद्धार करके उन्हें फिर से चालू किया जाय। इनके फायदों तथा उपयोगिता के बारे में विस्तृत जानकारी देकर नये तालाबों-झरनों के निर्माण के लिए लोगों को प्रोत्साहित किया जाय।

जीव व पृथ्वी के जीवन की सर्वोपरि आवश्यकताओं में अहम है जल। जल है तो जीवन है और तभी पृथ्वी सुरक्षित है। अतः हमें जल संरक्षण और सुरक्षा को सर्वोपरि प्रधानता के तौर पर लेना चाहिए। यदि समय रहते विसर्जन पद्धति में बदलाव नहीं आया, तालाबों-झरनों का पुनरूद्धार और पुनर्सृजन नहीं हुआ तो निकट भविष्य में मानव जाति से लेकर सभी जीव-जन्तु तथा प्रकृति विकृति का शिकार होकर नष्ट प्रायः या फिर सदा-सदा के लिए विकृतिपूर्ण जीवन जीने के लिए अभिशप्त होंगे।

-अहिवरन सिंह
नामाबर दिसंबर 2014 में प्रकाशित