Wednesday, August 21, 2019

सदोपदेश व सद्विचार

  • पैरों की सुरक्षा के लिए सम्पूर्ण धरा को ढँकना कठिन ही नहीं असम्भव है पर स्वयं के पैर को ढँकना अत्यन्त सरल।
  • योग्यता आपको ऊँचाई प्रदान करती है पर चरित्र आपको ऊँचाई पर बनाए रखती है।
  • प्रत्येक सफल व्यक्ति की एक दर्दनाक कहानी होती है और हर दर्दनाक कहानी के पीछे सफलता छुपी होती है। सफलता प्राप्त करना है तो दर्द को स्वीकार कीजिए।
  • गलती करना मनुष्यत्व है और क्षमा करना देवत्व।
  • जीवन की माप जीवन में ली गई साँसों की संख्या से नहीं होती बल्कि उन क्षणों की संख्या से होती है जो हमारी साँसें रोक देती हैं।
  • जो उदास रहते हैं उन पर जिन्दगी हँसती है३ जो खुश रहते हैं उन पर जिन्दगी मुस्कुराती है३ जो दूसरों को खुश रखते हैं उन पर जिन्दगी नाज करती है।
  • उन्नति के किसी भी अवसर को हाथ से नहीं निकलने देना चाहिए।
  • आपकी प्रवृति ही आपकी सफलता का मुख्य कारक है।
  • विचारों को कार्यरूप देना ही सफलता का रहस्य है।
  • स्वयं को हीन समझने के लिए कोई भी आपको तब तक विवश नहीं कर सकता जब तक कि उसके लिए आपकी स्वयं की सहमति न हो।
  • जहमत उठाए बिना कोई भी काम पूरा नहीं होता।



प्रज्ञा सुभाषित-1
1) इस संसार में प्यार करने लायक दो वस्तुएँ हैं-एक दुरूख और दूसरा श्रम। दुख के बिना हृदय निर्मल नहीं होता और श्रम के बिना मनुष्यत्व का विकास नहीं होता।

2) ज्ञान का अर्थ है-जानने की शक्ति। सच को झूठ को सच से पृथक् करने वाली जो विवेक बुद्धि है-उसी का नाम ज्ञान है।

3) अध्ययन, विचार, मनन, विश्वास एवं आचरण द्वार जब एक मार्ग को मजबूति से पकड़ लिया जाता है, तो अभीष्ट उद्द्ेश्य को प्राप्त करना बहुत सरल हो जाता है।

4) आदर्शों के प्रति श्रद्धा और कर्त्तव्य के प्रति लगन का जहाँ भी उदय हो रहा है, समझना चाहिए कि वहाँ किसी देवमानव का आविर्भाव हो रहा है।

5) कुचक्र, छद्म और आतंक के बलबूते उपार्जित की गई सफलताएँ जादू के तमाशे में हथेली पर सरसों जमाने जैसे चमत्कार दिखाकर तिरोहित हो जाती हैं। बिना जड़ का पेड़ कब तक टिकेगा और किस प्रकार फलेगा-फूलेगा।

6) जो दूसरों को धोखा देना चाहता है, वास्तव में वह अपने आपको ही धोखा देता है।

7) समर्पण का अर्थ है-पूर्णरूपेण प्रभु को हृदय में स्वीकार करना, उनकी इच्छा, प्रेरणाओं के प्रति सदैव जागरूक रहना और जीवन के प्रतयेक क्षण में उसे परिणत करते रहना।

8) मनोविकार भले ही छोटे हों या बड़े, यह शत्रु के समान हैं और प्रताड़ना के ही योग्य हैं। 9) सबसे महान् धर्म है, अपनी आत्मा के प्रति सच्चा बनना।

10) सद्व्यवहार में शक्ति है। जो सोचता है कि मैं दूसरों के काम आ सकने के लिए कुछ करूँ, वही आत्मोन्नति का सच्चा पथिक है।

11) जिनका प्रत्येक कर्म भगवान् को, आदर्शों को समर्पित होता है, वही सबसे बड़ा योगी है।

12) कोई भी कठिनाई क्यों न हो, अगर हम सचमुच शान्त रहें तो समाधान मिल जाएगा।

13) सत्संग और प्रवचनों का-स्वाध्याय और सुदपदेशों का तभी कुछ मूल्य है, जब उनके अनुसार कार्य करने की प्रेरणा मिले। अन्यथा यह सब भी कोरी बुद्धिमत्ता मात्र है।

14) सब ने सही जाग्रत् आत्माओं में से जो जीवन्त हों, वे आपत्तिकालीन समय को समझें और व्यामोह के दायरे से निकलकर बाहर आएँ। उन्हीं के बिना प्रगति का रथ रुका पड़ा है।

15) साधना एक पराक्रम है, संघर्ष है, जो अपनी ही दुष्प्रवृत्तियों से करना होता है।

16) आत्मा को निर्मल बनाकर, इंद्रियों का संयम कर उसे परमात्मा के साथ मिला देने की प्रक्रिया का नाम योग है।

17) जैसे कोरे कागज पर ही पत्र लिखे जा सकते हैं, लिखे हुए पर नहीं, उसी प्रकार निर्मल अंतरूकरण पर ही योग की शिक्षा और साधना अंकित हो सकती है।

18) योग के दृष्टिकोण से तुम जो करते हो वह नहीं, बल्कि तुम कैसे करते हो, वह बहुत अधिक महत्त्पूर्ण है।

19) यह आपत्तिकालीन समय है। आपत्ति धर्म का अर्थ है-सामान्य सुख-सुविधाओं की बात ताक पर रख देना और वह करने में जुट जाना जिसके लिए मनुष्य की गरिमा भरी अंतरात्मा पुकारती है।

20) जीवन के प्रकाशवान् क्षण वे हैं, जो सत्कर्म करते हुए बीते।

21) प्रखर और सजीव आध्यात्मिकता वह है, जिसमें अपने आपका निर्माण दुनिया वालों की अँधी भेड़चाल के अनुकरण से नहीं, वरन् स्वतंत्र विवेक के आधार पर कर सकना संभव हो सके।

22) बलिदान वही कर सकता है, जो शुद्ध है, निर्भय है और योग्य है।

23) जिस आदर्श के व्यवहार का प्रभाव न हो, वह फिजूल है और जो व्यवहार आदर्श प्रेरित न हो, वह भयंकर है।

24) भगवान जिसे सच्चे मन से प्यार करते हैं, उसे अग्नि परीक्षाओं में होकर गुजारते हैं।

25) हम अपनी कमियों को पहचानें और इन्हें हटाने और उनके स्थान पर सत्प्रवृत्तियाँ स्थापित करने का उपाय सोचें इसी में अपना व मानव मात्र का कल्याण है।

26) प्रगति के लिए संघर्ष करो। अनीति को रोकने के लिए संघर्ष करो और इसलिए भी संघर्ष करो कि संघर्ष के कारणों का अन्त हो सके।

27) धर्म की रक्षा और अधर्म का उन्मूलन करना ही अवतार और उसके अनुयायियों का कर्त्तव्य है। इसमें चाहे निजी हानि कितनी ही होती हो, कठिनाई कितनी ही उइानी पड़ती हो।

28) अवतार व्यक्ति के रूप में नहीं, आदर्शवादी प्रवाह के रूप में होते हैं और हर जीवन्त आत्मा को युगधर्म निबाहने के लिए बाधित करते हैं।

29) शरीर और मन की प्रसन्नता के लिए जिसने आत्म-प्रयोजन का बलिदान कर दिया, उससे बढ़कर अभागा एवं दुबुद्धि और कौन हो सकता है?

30) जीवन के आनन्द गौरव के साथ, सम्मान के साथ और स्वाभिमान के साथ जीने में है।

31) आचारनिष्ठ उपदेशक ही परिवर्तन लाने में सफल हो सकते हैं। अनधिकारी र्ध्मोपदेशक खोटे सिक्के की तरह मात्र विक्षोभ और अविश्वास ही भड़काते हैं।

32) इन दिनों जाग्रत् आत्मा मूक दर्शक बनकर न रहे। बिना किसी के समर्थन, विरोध की परवाह किए आत्म-प्रेरणा के सहारे स्वयंमेव अपनी दिशाधारा का निर्माण-निर्धारण करें।

33) जौ भौतिक महत्त्वाकांक्षियों की बेतरह कटौती करते हुए समय की पुकार पूरी करने के लिए बढ़े-चढ़े अनुदान प्रस्तुत करते और जिसमें महान् परम्परा छोड़ जाने की ललक उफनती रहे, यही है-प्रज्ञापुत्र शब्द का अर्थ।

34) दैवी शक्तियों के अवतरण के लिए पहली शर्त है- साधक की पात्रता, पवित्रता और प्रामाणिकता।

35) आशावादी हर कठिनाई में अवसर देखता है, पर निराशावादी प्रत्येक अवसर में कठिनाइयाँ ही खोजता है।

36) चरित्रवान् व्यक्ति ही किसी राष्ट्र की वास्तविक सम्पदा है।-वाङ्गमय

37) व्यक्तिगत स्वार्थों का उत्सर्ग सामाजिक प्रगति के लिए करने की परम्परा जब तक प्रचलित न होगी, तब तक कोई राष्ट्र सच्चे अर्थों में सामर्थ्यवान् नहीं बन सकता है।-वाङ्गमय

38) युग निर्माण योजना का लक्ष्य है-शुचिता, पवित्रता, सच्चरित्रता, समता, उदारता, सहकारिता उत्पन्न करना।-वाङ्गमय

39) भुजाएर् साक्षात् हनुमान हैं और मस्तिष्क गणेश, इनके निरन्तर साथ रहते हुए किसी को दरिद्र रहने की आवश्यकता नहीं।

40) विद्या की आकांक्षा यदि सच्ची हो, गहरी हो तो उसके रह्ते कोई व्यक्ति कदापि मूर्ख, अशिक्षित नहीं रह सकता।- वाङ्गमय

41) मनुष्य दुरूखी, निराशा, चिंतित, उदिग्न बैठा रहता हो तो समझना चाहिए सही सोचने की विधि से अपरिचित होने का ही यह परिणाम है।-वाङ्गमय

42) धर्म अंतरूकरण को प्रभावित और प्रशासित करता है, उसमें उत्कृष्टता अपनाने, आदर्शों को कार्यान्वित करने की उमंग उत्पन्न करता है।-वाङ्गमय

43) जीवन साधना का अर्थ है- अपने समय, श्रम ओर साधनों का कण-कण उपयोगी दिशा में नियोजित किये रहना।-वाङ्गमय

44) निकृष्ट चिंतन एवं घृणित कर्तृत्व हमारी गौरव गरिमा पर लगा हुआ कलंक है।-वाङ्गमय

45) आत्मा का परिष्कृत रूप ही परमात्मा है।-वाङ्गमय

46) हम कोई ऐसा काम न करें, जिसमें अपनी अंतरात्मा ही अपने को धिक्कारे।-वाङ्गमय

47) अपनी दुब्ताएँ दूसरों से छिपाकर रखी जा सकती हैं, पर अपने आप से कुछ भी छिपाया नहीं जा सकता।

48) किसी महान् उद्देश्य को न चलना उतनी लज्जा की बात नहीं होती, जितनी कि चलने के बाद कठिनाइयों के भय से पीछे हट जाना।

49) महानता का गुण न तो किसी के लिए सुरक्षित है और न प्रतिबंधित। जो चाहे अपनी शुभेच्छाओं से उसे प्राप्त कर सकता है।

50) सच्ची लगन तथा निर्मल उद्देश्य से किया हुआ प्रयत्न कभी निष्फल नहीं जाता।

51) खरे बनिये, खरा काम कीजिए और खरी बात कहिए। इससे आपका हृदय हल्का रहेगा।

52) मनुष्य जन्म सरल है, पर मनुष्यता कठिन प्रयत्न करके कमानी पड़ती है।

53) साधना का अर्थ है-कठिनाइयों से संघर्ष करते हुए भी सत्प्रयास जारी रखना।

54) सज्जनों की कोई भी साधना कठिनाइयों में से होकर निकलने पर ही पूर्ण होती है।

55) असत् से सत् की ओर, अंधकार से आलोक की और विनाश से विकास की ओर बढ़ने का नाम ही साधना है।

56) किसी सदुद्देश्य के लिए जीवन भर कठिनाइयों से जूझते रहना ही महापुरुष होना है।

57) अपना मूल्य समझो और विश्वास करो कि तुम संसार के सबसे महत्त्वपूर्ण व्यक्ति हो।

58) उत्कृष्ट जीवन का स्वरूप है-दूसरों के प्रति नम्र और अपने प्रति कठोर होना।

59) वही जीवति है, जिसका मस्तिष्क ठण्डा, रक्त गरम, हृदय कोमल और पुरुषार्थ प्रखर है।

60) चरित्र का अर्थ है- अपने महान् मानवीय उत्तरदायित्वों का महत्त्व समझना और उसका हर कीमत पर निर्वाह करना।

61) मनुष्य एक भटका हुआ देवता है। सही दिशा पर चल सके, तो उससे बढ़कर श्रेष्ठ और कोई नहीं।

62) अपने अज्ञान को दूर करके मन-मन्दिर में ज्ञान का दीपक जलाना भगवान् की सच्ची पूजा है।

63) जो बीत गया सो गया, जो आने वाला है वह अज्ञात है! लेकिन वर्तमान तो हमारे हाथ में है।

64) हर वक्त, हर स्थिति में मुस्कराते रहिये, निर्भय रहिये, कर्त्तव्य करते रहिये और प्रसन्न रहिये।

65) वह स्थान मंदिर है, जहाँ पुस्तकों के रूप में मूकय किन्तु ज्ञान की चेतनायुक्त देवता निवास करते हैं।

66) वे माता-पिता धन्य हैं, जो अपनी संतान के लिए उत्तम पुस्तकों का एक संग्रह छोड़ जाते हैं।

67) मनोविकारों से परेशान, दुरूखी, चिंतित मनुष्य के लिए उनके दुरूख-दर्द के समय श्रेष्ठ पुस्तकें ही सहारा है।

68) अपने दोषों की ओर से अनभिज्ञ रहने से बढ़कर प्रमाद इस संसार में और कोई दूसरा नहीं हो सकता।

69) विषयों, व्यसनों और विलासों में सुख खोजना और पाने की आशा करना एक भयानक दुराशा है।

70) कुकर्मी से बढ़कर अभागा और कोई नहीं हैय क्यांकि विपत्ति में उसका कोई साथी नहीं होता।

71) गृहसि एक तपोवन है जिसमें संयम, सेवा, त्याग और सहिष्णुता की साधना करनी पड़ती है।

72) परमात्मा की सृष्टि का हर व्यक्ति समान है। चाहे उसका रंग वर्ण, कुल और गोत्र कुछ भी क्यों न हो।

73) ज्ञान अक्षय है, उसकी प्राप्ति शैय्या तक बन पड़े तो भी उस अवसर को हाथ से नहीं जाने देना चाहिए।

74) वास्तविक सौन्दर्य के आधर हैं-स्वस्थ शरीर, निर्विकार मन और पवित्र आचरण।

75) ज्ञानदान से बढ़कर आज की परिस्थितियों में और कोई दान नहीं।

76) केवल ज्ञान ही एक ऐसा अक्षय तत्त्व है, जो कहीं भी, किसी अवस्था और किसी काल में भी मनुष्य का साथ नहीं छोड़ता।

77) इस युग की सबसे बड़ी शक्ति शस्त्र नहीं, सद्विचार है।

78) उत्तम पुस्तकें जाग्रत् देवता हैं। उनके अध्ययन-मनन-चिंतन के द्वारा पूजा करने पर तत्काल ही वरदान पाया जा सकता है।

79) शान्तिकुञ्ज एक विश्वविद्यालय है। कायाकल्प के लिए बनी एक अकादमी है। हमारी सतयुगी सपनों का महल है।

80) शांन्किञ्ज एक क्रान्तिकारी विश्वविद्यालय है। अनौचित्य की नींव हिला देने वाली यह संस्था प्रभाव पर्त की एक नवोदित किरण है।

81) गंगा की गोद, हिमालय की छाया, ऋषि विश्वामित्र की तपरूस्थली, अजस्त्र प्राण ऊर्जा का उद्भव स्त्रोत गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज जैसा जीवन्त स्थान उपासना के लिए दूसरा ढूँढ सकना कठिन है।

82) नित्य गायत्री जप, उदित होते स्वर्णिम सविता का ध्यान, नित्य यज्ञ, अखण्ड दीप का सान्निध्य, दिव्यनाद की अवधारणा, आत्मदेव की साधना की दिव्य संगम स्थली है-शांतिकुञ्ज गायत्री तीर्थ।

83) धर्म का मार्ग फूलों सेज नहीं, इसमें बड़े-बड़े कष्ट सहन करने पड़ते हैं।

84) मनुष्य कर्म करने में स्वतंत्र हैय परन्तु इनके परिणामों में चुनाव की कोई सुविधा नहीं।

85) सलाह सबकी सुनो, पर करो वह जिसके लिए तुम्हारा साहस और विवेक समर्थन करे।

86) हम क्या करते हैं, इसका महत्त्व कम हैय किन्तु उसे हम किस भाव से करते हैं इसका बहुत महत्त्व है।

87) संसार में सच्चा सुख ईश्वर और धर्म पर विश्वास रखते हुए पूर्ण परिश्रम के साथ अपना कर्त्तव्य पालन करने में है।

88) किसी को आत्म-विश्वास जगाने वाला प्रोत्साहन देना ही सर्वोत्तम उपहार है।

89) दुनिया में आलस्य को पोषण देने जैसा दूसरा भयंकर पाप नहीं है।

90) निरभिमानी धन्य हैय क्योंकि उन्हीं के हृदय में ईश्वर का निवास होता है।

91) दुनिया में भलमनसाहत का व्यवहार करने वाला एक चमकता हुआ हीरा है।

92) सज्जनता ऐसी विधा है जो वचन से तो कमय किन्तु व्यवहार से अधिक परखी जाती है।

93) अपनी महान् संभावनाओं पर अटूट विश्वास ही सच्ची आस्तिकता है।

94) श्अखण्ड ज्योतिश् हमारी वाणी है। जो उसे पढ़ते हैं, वे ही हमारी प्रेरणाओं से परिचित होते हैं।

95) चरित्रवान् व्यक्ति ही सच्चे अर्थों में भगवद् भक्त हैं।

96) ऊँचे उठो, प्रसुप्त को जगाओं, जो महान् है उसका अवलम्बन करो ओर आगे बढ़ो।

97) जिस आदर्श के व्यवहार का प्रभाव न हो, वह फिजूल और जो व्यवहार आदर्श प्रेरित न हो, वह भयंकर है।

98) परमात्मा जिसे जीवन में कोई विशेष अभ्युदय-अनुग्रह करना चाहता है, उसकी बहुत-सी सुविधाओं को समाप्त कर दिया करता है।

99) देवमानव वे हैं, जो आदर्शों के क्रियान्वयन की योजना बनाते और सुविधा की ललक-लिप्सा को अस्वीकार करके युगधर्म के निर्वाह की काँटों भरी राह पर एकाकी चल पड़ते हैं।

100) अच्छाइयों का एक-एक तिनका चुन-चुनकर जीवन भवन का निर्माण होता है, पर बुराई का एक हल्का झोंका ही उसे मिटा डालने के लिए पर्याप्त होता है।
प्रज्ञा सुभाषित-2
101) स्वार्थ, अंहकार और लापरवाही की मात्रा बढ़ जाना ही किसी व्यक्ति के पतन का कारण होता है।

102) बुद्धिमान् वह है, जो किसी को गलतियों से हानि होते देखकर अपनी गलतियाँ सुधार लेता है।

103) भूत लौटने वाला नहीं, भविष्य का कोई निश्चय नहींय सँभालने और बनाने योग्य तो वर्तमान है।

104) लोग क्या कहते हैं-इस पर ध्यान मत दो। सिर्फ यह देखो कि जो करने योग्य था, वह बनपड़ा या नहीं?

105) जिनकी तुम प्रशंसा करते हो, उनके गुणों को अपनाओ और स्वयं भी प्रशंसा के योग्य बनो।

106) भगवान् के काम में लग जाने वाले कभी घाटे में नहीं रह सकते।

107) दूसरों की निन्दा और त्रूटियाँ सुनने में अपना समय नष्ट मत करो।

108) दूसरों की निन्दा करके किसी को कुछ नहीं मिला, जिसने अपने को सुधारा उसने बहुत कुछ पाया।

109) सबसे बड़ा दीन-दुर्बल वह है, जिसका अपने ऊपर नियंत्रयण नहीं।

110) यदि मनुष्य कुछ सीखना चाहे, तो उसकी प्रत्येक भूल कुछ न कुछ सिखा देती है।

111) मानवता की सेवा से बढ़कर और कोई काम बडΠा नहीं हो सकता।

112) जिसने शिष्टता और नम्रता नहीं सीखी, उनका बहुत सीखना भी व्यर्थ रहा।

113) शुभ कार्यों के लिए हर दिन शुभ और अशुभ कार्यों के लिए हर दिना अशुभ है।

114) किसी सदुद्देश्य के लिए जीवन भर कठिनाइयों से जूझते रहना ही महापुरुष होना है।

115) अपनी प्रशंसा आप न करें, यह कार्य आपके सत्कर्म स्वयं करा लेंगे।

116) भगवान् जिसे सच्चे मन से प्यार करते हैं, उसे अग्नि परीक्षाओं में होकर गुजारते हैं।

117) गुण, कर्म और स्वभाव का परिष्कार ही अपनी सच्ची सेवा है।

118) दूसरों के साथ वह व्यवहार न करो, जो तुम्हें अपने लिए पसन्द नहीं।

119) आज के काम कल पर मत टालिए।

120) आत्मा की पुकार अनसुनी न करें।

121) मनुष्य परिस्थितियों का गुलाम नहीं, अपने भाग्य का निर्माता और विधाता है।

122) आप समय को नष्ट करेंगे तो समय भी आपको नष्ट कर देगा।

123) समय की कद्र करो। एक मिनट भी फिजूल मत गँवाओं।

124) जीवन का हर क्षण उज्ज्वल भविष्य की संभावना लेकर आता है।

125) कर्त्तव्यों के विषय में आने वाले कल की कल्पना एक अंध-विश्वास है।

126) हँसती-हँसाती जिन्दगी ही सार्थक है।

127) पढ़ने का लाभ तभी है जब उसे व्यवहार में लाया जाए।

128) वह मत करो, जिसके लिए पीछे पछताना पड़े।

129) प्रकृति के अनुकूल चलें, स्वस्थ रहें।

130) स्वच्छता सभ्यता का प्रथम सोपान है।

131) भगवान् भावना की उत्कृष्टता को ही प्यार करता है।

132) सत्प्रयत्न कभी निरर्थक नहीं होते।

133) गुण ही नारी का सच्चा आभूषण है।

134) नर और नारी एक ही आत्मा के दो रूप है।

135) नारी का असली श्रृंगार, सादा जीवन उच्च विचार।

136) बहुमूल्य वर्तमान का सदुपयोग कीजिए।

137) जो तुम दूसरे से चाहते हो, उसे पहले स्वयं करो।

138) जो हम सोचते हैं सो करते हैं और जो करते हैं सो भुगतते हैं।

139) सेवा में बड़ी शक्ति है। उससे भगवान् भी वश में हो सकते हैं।

140) स्वाध्याय एक वैसी ही आत्मिक आवश्यकता है जैसे शरीर के लिए भोजन।

141) दूसरों के साथ सदैव नम्रता, मधुरता, सज्जनता, उदारता एवं सहृदयता का व्यवहार करें।

142) अपने कार्यों में व्यवस्था, नियमितता, सुन्दरता, मनोयोग तथा जिम्मेदार का ध्यान रखें।

143) धैर्य, अनुद्वेग, साहस, प्रसन्नता, दृढ़ता और समता की संतुलित स्थिति सदेव बनाये रखें।

144) स्वर्ग और नरक कोई स्थान नहीं, वरन् दृष्टिकोण है।

145) आत्मबल ही इस संसार का सबसे बड़ा बल है।

146) सादगी सबसे बड़ा फैशन है।

147) हर मनुष्य का भाग्य उसकी मुट्ठी में है।

148) सन्मार्ग का राजपथ कभी भी न छोड़े।

149) आत्म-निरीक्षण इस संसार का सबसे कठिन, किन्तु करने योग्य कर्म है।

150) महानता के विकास में अहंकार सबसे घातक शत्रु है।

151) श्स्वाध्यान्मा प्रमदरूश् अर्थात् स्वाध्याय में प्रमाद न करें।

152) श्रेष्ठता रहना देवत्व के समीप रहना है।

153) मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है।

154) परमात्मा की सच्ची पूजा सद्व्यवहार है।

155) आत्म-निर्माण का ही दूसरा नाम भाग्य निर्माण है।

156) आत्मा की उत्कृष्टता संसार की सबसे बड़ी सिद्धि है।

157) ज्ञान की आराधना से ही मनुष्य तुच्छ से महान् बनता है।

158) उपासना सच्ची तभी है, जब जीवन में ईश्वर घुल जाए।

159) आत्मा का परिष्कृत रूप ही परमात्मा है।

160) सज्जनता और मधुर व्यवहार मनुष्यता की पहली शर्ता है।

161) दूसरों को पीड़ा न देना ही मानव धर्म है।

162) खुद साफ रहो, सुरक्षित रहो और औरों को भी रोगों से बचाओं।

163) श्स्वर्गश् शब्द में जिन गुणों का बोध होता है, सफाई और शुचिता उनमें सर्वप्रमुख है।

164) धरती पर स्वर्ग अवतरित करने का प्रारम्भ सफाई और स्वच्छता से करें।

165) गलती को ढँÚूढ़ना, मानना और सुधारना ही मनुष्य का बड़प्पन है।

166) जीवन एक पाठशाला है, जिसमें अनुभवों के आधार पर हम शिक्षा प्राप्त करते हैं।

167) प्रशंसा और प्रतिष्ठा वही सच्ची है, जो उत्कृष्ट कार्य करने के लिए प्राप्त हो।

168) दृष्टिकोण की श्रेष्ठता ही वस्तुतरू मानव जीवन की श्रेष्ठता है।

169) जीवन एक परीक्षा है। उसे परीक्षा की कसौटी पर सर्वत्र कसा जाता है।

170) उत्कृष्टता का दृष्टिकोण ही जीवन को सुरक्षित एवं सुविकसित बनाने एकमात्र उपाय है।

171) खुशामद बड़े-बड़ों को ले डूबती है।

172) आशावाद और ईश्वरवाद एक ही रहस्य के दो नाम हैं।

173) ईर्ष्या न करें, प्रेरणा ग्रहण करें।

174) ईर्श्या आदमी को उसी तरह खा जाती है, जैसे कपड़े को कीड़ा।

175) स्वाधीन मन मनुष्य का सच्चा सहायक होता है।

176) अनासक्त जीवन ही शुद्ध और सच्चा जीवन है।

177) विचारों की पवित्रता स्वयं एक स्वास्थ्यवर्धक रसायन है।

178) सुखी होना है तो प्रसन्न रहिए, निश्चिन्त रहिए, मस्त रहिए।

179) ज्ञान की सार्थकता तभी है, जब वह आचरण में आए।

180) समय का सुदपयोग ही उन्नति का मूलमंत्र है।

181) एक सत्य का आधार ही व्यक्ति को भवसागर से पार कर देता है।

182) जाग्रत् आत्मा का लक्षण है- सत्यम्, शिवम् और सुन्दरम् की ओर उन्मुखता।

183) परोपकार से बढ़कर और निरापद दूसरा कोई धर्म नहीं।

184) जीवन उसी का सार्थक है, जो सदा परोपकार में प्रवृत्त है।

185) बड़प्पन सादगी और शालीनता में है।

186) चरित्रनिष्ठ व्यक्ति ईश्वर के समान है।

187) मनुष्य उपाधियों से नहीं, श्रेष्ठ कार्यों से सज्जन बनता है।

188) धनवाद् नहीं, चरित्रवान् सुख पाते हैं।

189) बड़प्पन सुविधा संवर्धन में नहीं, सद्गुण संवर्धन का नाम है।

190) भाग्य पर नहीं, चरित्र पर निर्भर रहो।

191) वही उन्नति कर सकता है, जो स्वयं को उपदेश देता है।

192) भलमनसाहत का व्यवहार करने वाला एक चमकता हुआ हीरा है।

193) प्रसुप्त देवत्व का जागरण ही सबसे बड़ी ईश्वर पूजा है।

194) चरित्र ही मनुष्य की श्रेष्ठता का उत्तम मापदण्ड है।

195) आत्मा के संतोष का ही दूसरा नाम स्वर्ग है।

196) मनुष्य का अपने आपसे बढ़कर न कोई शत्रु है, न मित्र।

197) फूलों की तरह हँसते-मुस्कराते जीवन व्यतीत करो।

198) उत्तम ज्ञान और सद्विचार कभी भी नष्ट नहीं होते है।

199) अपना सुधार संसार की सबसे बड़ी सेवा है।

200) भाग्य को मनुष्य स्वयं बनाता है, ईश्वर नहीं

वाह्य सूत्र
ऽसुभाषितमञ्जरी रू यहाँ अनेक संस्कृत सुभाषित एवं सूक्तियाँ अँग्रेजी में अर्थ सहित दी गयीं हैं।

प्रज्ञा सुभाषित-3
201) अवसर की प्रतीक्षा में मत बैठों। आज का अवसर ही सर्वोत्तम है।

202) दो याद रखने योग्य हैं-एक कर्त्तव्य और दूसरा मरण।

203) कर्म ही पूजा है और कर्त्तव्यपालन भक्ति है।

204) र्हमान और भगवान् ही मनुष्य के सच्चे मित्र है।

205) सम्मान पद में नहीं, मनुष्यता में है।

206) महापुरुषों का ग्रंथ सबसे बड़ा सत्संग है।

207) चिंतन और मनन बिना पुस्तक बिना साथी का स्वाध्याय-सत्संग ही है।

208) बहुमूल्य समय का सदुपयोग करने की कला जिसे आ गई उसने सफलता का रहस्य समझ लिया।

209) सबकी मंगल कामना करो, इससे आपका भी मंगल होगा।

210) स्वाध्याय एक अनिवार्य दैनिक धर्म कर्त्तव्य है।

211) स्वाध्याय को साधना का एक अनिवार्य अंग मानकर अपने आवश्यक नित्य कर्मों में स्थान दें।

212) अपना आदर्श उपस्थित करके ही दूसरों को सच्ची शिक्षा दी जा सकती है।

213) प्रतिकूल परिस्थितियों करके ही दूसरों को सच्ची शिक्षा दी जा सकती है।

214) प्रतिकूल परिस्थिति में भी हम अधीर न हों।

215) जैसा खाय अन्न, वैसा बने मन।

216) यदि मनुष्य सीखना चाहे, तो उसकी प्रत्येक भूल उसे कुछ न कुछ सिखा देती है।

217) कर्त्तव्य पालन ही जीवन का सच्चा मूल्य है।

218) इस संसार में कमजोर रहना सबसे बड़ा अपराध है।

219) काल(समय) सबसे बड़ा देवता है, उसका निरादर मत करा॥

220) अवकाश का समय व्यर्थ मत जाने दो।

221) परिश्रम ही स्वस्थ जीवन का मूलमंत्र है।

222) व्यसनों के वश में होकर अपनी महत्ता को खो बैठे वह मूर्ख है।

223) संसार में रहने का सच्चा तत्त्वज्ञान यही है कि प्रतिदिन एक बार खिलखिलाकर जरूर हँसना चाहिए।

224) विवेक और पुरुषार्थ जिसके साथी हैं, वही प्रकाश प्राप्त करेंगे।

225) अज्ञानी वे हैं, जो कुमार्ग पर चलकर सुख की आशा करते हैं।

226) जो जैसा सोचता और करता है, वह वैसा ही बन जाता है।

227) अज्ञान और कुसंस्कारों से छूटना ही मुक्ति है।

228) किसी को गलत मार्ग पर ले जाने वाली सलाह मत दो।

229) जो महापुरुष बनने के लिए प्रयत्नशील हैं, वे धन्य है।

230) भाग्य भरोसे बैठे रहने वाले आलसी सदा दीन-हीन ही रहेंगे।

231) जिसके पास कुछ भी कर्ज नहीं, वह बड़ा मालदार है।

232) नैतिकता, प्रतिष्ठाओं में सबसे अधिक मूल्यवान् है।

233) जो तुम दूसरों से चाहते हो, उसे पहले तुम स्वयं करो।

234) वे प्रत्यक्ष देवता हैं, जो कर्त्तव्य पालन के लिए मर मिटते हैं।

235) जो असत्य को अपनाता है, वह सब कुछ खो बैठता है।

236) जिनके भीतर-बाहर एक ही बात है, वही निष्कपट व्यक्ति धन्य है।

237) दूसरों की निन्दा-त्रुटियाँ सुनने में अपना समय नष्ट मत करो।

238) आत्मोन्नति से विमुख होकर मृगतृष्णा में भटकने की मूर्खता न करो।

239) आत्म निर्माण ही युग निर्माण है।

240) जमाना तब बदलेगा, जब हम स्वयं बदलेंगे।

241) युग निर्माण योजना का आरम्भ दूसरों को उपदेश देने से नहीं, वरन् अपने मन को समझाने से शुरू होगा।

242) भगवान् की सच्ची पूजा सत्कर्मों में ही हो सकती है।

243) सेवा से बढ़कर पुण्य-परमार्थ इस संसार में और कुछ नहीं हो सकता।

244) स्वयं उत्कृष्ट बनने और दूसरों को उत्कृष्ट बनाने का कार्य आत्म कल्याण का एकमात्र उपाय है।

245) अपने आपको सुधार लेने पर संसार की हर बुराई सुधर सकती है।

246) अपने आपको जान लेने पर मनुष्य सब कुछ पा सकता है।

247) सबके सुख में ही हमारा सुख सन्निहित है।

248) उनसे दूर रहो जो भविष्य को निराशाजनक बताते है।

249) सत्कर्म ही मनुष्य का कर्त्तव्य है।

250) जीवन दिन काटने के लिए नहीं, कुछ महान् कार्य करने के लिए है।

251) राष्ट्र को बुराइयों से बचाये रखने का उत्तरदायित्व पुरोहितों का है।

252) इतराने में नहीं, श्रेष्ठ कार्यों में ऐश्वर्य का उपयोग करो।

253) सतोगुणी भोजन से ही मन की सात्विकता स्थिर रहती है।

254) जीभ पर काबू रखो, स्वाद के लिए नहीं, स्वास्थ्य के लिए खाओ।

255) श्रम और तितिक्षा से शरीर मजबूत बनता है।

256) दूसरे के लिए पाप की बात सोचने में पहले स्वयं को ही पाप का भागी बनना पड़ता है।

257) पराये धन के प्रति लोभ पैदा करना अपनी हानि करना है।

258) ईर्ष्या और द्वेष की आग में जलने वाले अपने लिए सबसे बड़े शत्रु हैं।

259) चिता मरे को जलाती है, पर चिन्ता तो जीवित को ही जला डालती है।

260) पेट और मस्तिष्क स्वास्थ्य की गाड़ी को ठीक प्रकार चलाने वाले दो पहिए हैं। इनमें से एक बिगड़ गया तो दूसरा भी बेकार ही बना रहेगा।

261) आराम की जिन्गदी एक तरह से मौत का निमंत्रण है।

262) आलस्य से आराम मिल सकता है, पर यह आराम बड़ा महँगा पड़ता है।

263) ईश्वर उपासना की सर्वोपरि सब रोग नाशक औषधि का आप नित्य सेवन करें।

264) मन का नियन्त्रण मनुष्य का एक आवश्यक कर्त्तव्य है।

265) किसी बेईमानी का कोई सच्चा मित्र नहीं होता।

266) शिक्षा का स्थान स्कूल हो सकते हैं, पर दीक्षा का स्थान तो घर ही है।

267) वाणी नहीं, आचरण एवं व्यक्तित्व ही प्रभावशाली उपदेश है

268) आत्म निर्माण का अर्थ है-भाग्य निर्माण।

269) ज्ञान का अंतिम लक्ष्य चरित्र निर्माण ही है।

270) बच्चे की प्रथम पाठशाला उसकी माता की गोद में होती है।

271) शिक्षक राष्ट्र मंदिर के कुशल शिल्पी हैं।

272) शिक्षक नई पीढ़ी के निर्माता होत हैं।

273) समाज सुधार सुशिक्षितों का अनिवार्य धर्म-कर्त्तव्य है।

274) ज्ञान और आचरण में जो सामंजस्य पैदा कर सके, उसे ही विद्या कहते हैं।

275) अब भगवानड्ढ गंगाजल, गुलाबजल और पंचामृत से स्नान करके संतुष्ट होने वाले नहीं हैं। उनकी माँग श्रम बिन्दुओं की है। भगवान् का सच्चा भक्त वह माना जाएगा जो पसीने की बूँदों से उन्हें स्नान कराये।

276) जो हमारे पास है, वह हमारे उपयोग, उपभोग के लिए है यही असुर भावना है।

277) स्वार्थपरता की कलंक कालिमा से जिन्होंने अपना चेहरा पोत लिया है, वे असुर है।

278) मात्र हवन, धूपबत्ती और जप की संख्या के नाम पर प्रसन्न होकर आदमी की मनोकामना पूरी कर दिया करे, ऐसी देवी दुनिया में कहीं नहीं है।

279) दुनिया में सफलता एक चीज के बदले में मिलती है और वह है आदमी की उत्कृष्ट व्यक्तित्व।

280) जब तक तुम स्वयं अपने अज्ञान को दूर करने के लिए कटिबद्ध नहीं होत, तब तक कोई तुम्हारा उद्धार नहीं कर सकता।

281) सूर्य प्रतिदिन निकलता है और डूबते हुए आयु का एक दिन छीन ले जाता है, पर माया-मोह में डूबे मनुष्य समझते नहीं कि उन्हें यह बहुमूल्य जीवन क्यों मिला ?

282) दरिद्रता पैसे की कमी का नाम नहीं है, वरन् मनुष्य की कृपणता का नाम दरिद्रता है।

283) हे मनुष्य! यश के पीछे मत भाग, कर्त्तव्य के पीछे भाग। लोग क्या कहते हैं यह न सुनकर विवेक के पीछे भाग। दुनिया चाहे कुछ भी कहे, सत्य का सहारा मत छोड़।

284) कामना करने वाले कभी भक्त नहीं हो सकते। भक्त शब्द के साथ में भगवान् की इच्छा पूरी करने की बात जुड़ी रहती है।

285) भगवान् आदर्शों, श्रेष्ठताओं के समूच्चय का नाम है। सिद्धान्तों के प्रति मनुष्य के जो त्याग और बलिदान है, वस्तुतरू यही भगवान् की भक्ति है।

286) आस्तिकता का अर्थ है-ईश्वर विश्वास और ईश्वर विश्वास का अर्थ है एक ऐसी न्यायकारी सत्ता के अस्तित्व को स्वीकार करना जो सर्वव्यापी है और कर्मफल के अनुरूप हमें गिरने एवं उठने का अवसर प्रस्तुत करती है।

287) पुण्य-परमार्थ का कोई अवसर टालना नहीं चाहिएय क्योंकि अगले क्षण यह देह रहे या न रहे क्या ठिकाना।

288) अपनी दिनचर्या में परमार्थ को स्थान दिये बिना आत्मा का निर्मल और निष्कलंक रहना संभव नहीं।

289) जो मन की शक्ति के बादशाह होते हैं, उनके चरणों पर संसार नतमस्तक होता है।

290) एक बार लक्ष्य निर्धारित करने के बाद बाधाओं और व्यवधानों के भय से उसे छोड़ देना कायरता है। इस कायरता का कलंक किसी भी सत्पुरुष को नहीं लेना चाहिए।

291) आदर्शवाद की लम्बी-चौड़ी बातें बखानना किसी के लिए भी सरल है, पर जो उसे अपने जीवनक्रम में उतार सके, सच्चाई और हिम्मत का धनी वही है।

292) किसी से ईर्ष्या करके मनुष्य उसका तो कुछ बिगाड़ नहीं सकता है, पर अपनी निद्रा, अपना सुख और अपना सुख-संतोष अवश्य खो देता है।

293) ईर्ष्या की आग में अपनी शक्तियाँ जलाने की अपेक्षा कहीं अच्छा और कल्याणकारी है कि दूसरे के गुणों और सत्प्रयत्नों को देखें जिसके आधार पर उनने अच्छी स्थिति प्राप्त की है।

294) जिस दिन, जिस क्षण किसी के अंदर बुरा विचार आये अथवा कोई दुष्कर्म करने की प्रवृत्ति उपजे, मानना चाहिए कि वह दिन-वह क्षण मनुष्य के लिए अशुभ है।

295) किसी महान् उद्द्ेश्य को लेकर न चलना उतनी लज्जा की बात नहीं होती, जितनी कि चलने के बाद कठिनाइयों के भय से रुक जाना अथवा पीछे हट जाना।

296) सहानुभूति मनुष्य के हृदय में निवास करने वाली वह कोमलता है, जिसका निर्माण संवेदना, दया, प्रेम तथा करुणा के सम्मिश्रण से होता है।

297) असफलताओं की कसौटी पर ही मनुष्य के धैर्य, साहस तथा लगनशील की परख होती है। जो इसी कसौटी पर खरा उतरता है, वही वास्तव में सच्चा पुरुषार्थी है।

298) श्स्वर्गश् शब्द में जिन गुणों का बोध होता है, सफाई और शुचिता उनमें सर्वप्रमुख है।

299) जाग्रत आत्माएँ कभी चुप बैठी ही नहीं रह सकतीं। उनके अर्जित संस्कार व सत्साहस युग की पुकार सुनकर उन्हें आगे बढ़ने व अवतार के प्रयोजनों हेतु क्रियाशील होने को बाध्य कर देते हैं।

300) जाग्रत् अत्माएँ कभी अवसर नहीं चूकतीं। वे जिस उद्देश्य को लेकर अवतरित होती हैं, उसे पूरा किये बिना उन्हें चौन नहीं पड़ता।


प्रज्ञा सुभाषित-4
301) शूरता है सभी परिस्थितियों में परम सत्य के लिए डटे रह सकना, विरोध में भी उसकी घोषण करना और जब कभी आवश्यकता हो तो उसके लिए युद्ध करना।

302) सुख बाँटने की वस्तु है और दुरूखे बँटा लेने की। इसी आधार पर आंतरिक उल्लास और अन्यान्यों का सद्भाव प्राप्त होता है। महानता इसी आधार पर उपलब्ध होती है।

303) हम स्वयं ऐसे बनें, जैसा दूसरों को बनाना चाहते हैं। हमारे क्रियाकलाप अंदर और बाहर से उसी स्तर के बनें जैसा हम दूसरों द्वारा क्रियान्वित किये जाने की अपेक्षा करते हैं।

304) ज्ञानयोगी की तरह सोचें, कर्मयोगी की तरह पुरुषार्थ करें और भक्तियोगी की तरह सहृदयता उभारें।

305) परमात्मा जिसे जीवन में कोई विशेष अभ्युदय-अनुग्रह करना चाहता है, उसकी बहुत-सी सुविधाओं को समाप्त कर दिया करता है।

306) अंतरूकरण मनुष्य का सबसे सच्चा मित्र, निरूस्वार्थ पथप्रदर्शक और वात्सल्यपूर्ण अभिभावक है। वह न कभी धोखा देता है, न साथ छोड़ता है और न उपेक्षा करता है।

307) वासना और तृष्णा की कीचड़ से जिन्होंने अपना उद्धार कर लिया और आदर्शों के लिए जीवित रहने का जिन्होंने व्रत धारण कर लिया वही जीवन मुक्त है।

308) परिवार एक छोटा समाज एवं छोटा राष्ट्र है। उसकी सुव्यवस्था एवं शालीनता उतनी ही महत्त्वपूर्ण है जितनी बड़े रूप में समूचे राष्ट्र की।

309) व्यक्तिवाद के प्रति उपेक्षा और समूहवाद के प्रति निष्ठा रखने वाले व्यक्तियों का समाज ही समुन्नत होता है।

310) जिस प्रकार हिमालय का वक्ष चीरकर निकलने वाली गंगा अपने प्रियतम समुद्र से मिलने का लक्ष्य प्राप्त करने के लिए तीर की तरह बहती-सनसनाती बढ़ती चली जाती है और उसक मार्ग रोकने वाले चट्टान चूर-चूर होते चले जाते हैं उसी प्रकार पुस् षार्थी मनुष्य अपने लक्ष्य को अपनी तत्परता एवं प्रखरता के आधार पर प्राप्त कर सकता है।

311) ईमानदारी, खरा आदमी, भलेमानस-यह तीन उपाधि यदि आपको अपने अन्तस्तल से मिलती है तो समझ लीजिए कि आपने जीवन फल प्राप्त कर लिया, स्वर्ग का राज्य अपनी मुट्ठी में ले लिया।

312) सत्य का मतलब सच बोलना भर नहीं, वरन् विवेक, कर्त्तव्य, सदाचरण, परमार्थ जैसी सत्प्रवृत्तियों और सद्भावनाओं से भरा हुआ जीवन जीना है।

313) भगवान् भावना की उत्कृष्टता को ही प्यार करता है और सर्वोत्तम सद्भावना का एकमात्र प्रमाण जनकल्याण के कार्यों में बढ़-चढ़कर योगदान करना है।

314) भगवान् का अवतार तो होता है, परन्तु वह निराकार होता है। उनकी वास्तविक शक्ति जाग्रत् आत्मा होती है, जो भगवान् का संदेश प्राप्त करके अपना रोल अदा करती है।

315) प्रगतिशील जीवन केवल वे ही जी सकते हैं, जिनने हृदय में कोमलता, मस्तिष्क में तीष्णता, रक्त में उष्णता और स्वभाव में दृढ़ता का समुतिच समावेश कर लिया है।

316) दया का दान लड़खड़ाते पैरा में नई शक्ति देना, निराश हृदय में जागृति की नई प्रेरणा फूँकना, गिरे हुए को उठाने की सामर्थ्य प्रदान करना एवं अंधकार में भटके हुए को प्रकाश देना।

317) साहस और हिम्मत से खतरों में भी आगे बढ़िये। जोखित उठाये बिना जीवन में कोई महत्त्वपूर्ण सफलता नहीं पाई जा सकती।

318) अपने जीवन में सत्प्रवृत्तियों को प्रोतसाहन एवं प्रश्रय देने का नाम ही विवेक है। जो इस स्थिति को पा लेते हैं, उन्हीं का मानव जीवन सफल कहा जा सकता है।

319) जो मन का गुलाम है, वह ईश्वर भक्त नहीं हो सकता। जो ईश्वर भक्त है, उसे मन की गुलामी न स्वीकार हो सकती है, न सहन।

320) अपना काम दूसरों पर छोड़ना भी एक तरह से दूसरे दिन काम टालने के समान ही है। ऐसे व्यक्ति का अवसर भी निकल जाता है और उसका काम भी पूरा नहीं हीता।

321) आत्म-विश्वास जीवन नैया का एक शक्तिशाली समर्थ मल्लाह है, जो डूबती नाव को पतवार के सहारे ही नहीं, वरन् अपने हाथों से उठाकर प्रबल लहरों से पार कर देता है।

322) माँ का जीवन बलिदान का, त्याग का जीवन है। उसका बदला कोई भी पुत्र नहीं चुका सकता चाहे वह भूमंडल का स्वामी ही क्यों न हो।

323) स्वस्थ क्रोध उस राख से ढँकी चिंगारी की तरह है, जो अपनी ज्वाला से किसी को दग्ध तो नहीं करती, किन्तु आवश्यकता पड़ने पर बपित कुछ को जलाने की सामर्थ्य रखती है।

324) धन्य है वे जिन्होंने करने के लिए अपना काम प्राप्त कर लिया है और वे उसमें लीन है। अब उन्हें किसी और वरदान की याचना नहीं करना चाहिए।

325) परमार्थ के बदले यदि हमको कुछ मूल्य मिले, चाहे वह पैसे के रूप में प्रभाव, प्रभुत्व व पद-प्रतिष्ठा के रूप में तो वह सच्चा परमार्थ नहीं है। इसे कर्त्तव्य पालन कह सकते हैं।

326) समय की कद्र करो। प्रत्येक दिवस एक जीवन है। एक मिनट भी फिजूल मत गँवाओ। जिन्दगी की सच्ची कीमत हमारे वक्त का एक-एक क्षण ठीक उपयोग करने में है।

327) साहस ही एकमात्र ऐसा साथी है, जिसको साथ लेकर मनुष्य एकाकी भी दुर्गम दीखने वाले पथ पर चल पड़ते एवं लक्ष्य तक जा पहुँचने में समर्थ हो सकता है।

328) तुम सेवा करने के लिए आये हो, हुकूमत करने के लिए नहीं। जान लो कष्ट सहने और परिश्रम करने के लिए तुम बुलाये गये हो, आलसी और वार्तालाप में समय नष्ट करने के लिए नहीं।

329) जो लोग पाप करते हैं उन्हें एक न एक विपत्ति सवदा घेरे ही रहती है, किन्तु जो पुण्य कर्म किया करते हैं वे सदा सुखी और प्रसन्न रह्ते हैं।

330) दूसरों पर भरोसा लादे मत बैठे रहो। अपनी ही हिम्मत पर खड़ा रह सकना और आगे बढ़् सकना संभव हो सकता है। सलाह सबकी सुनो, पर करो वह जिसके लिए तुम्हारा साहस और विवेक समर्थन करे।

331) जो लोग डरने, घबराने में जितनी शक्ति नष्ट करते हैं, उसकी आधी भी यदि प्रस्तुत कठिनाइयों से निपटने का उपाय सोचने के लिए लगाये तो आधा संकट तो अपने आप ही टल सकता है।

332) समर्पण का अर्थ है- मन अपना विचार इष्ट के, हृदय अपना भावनाएँ इष्ट की और आपा अपना किन्तु कर्त्तव्य समग्र रूप से इष्ट का।

333) आज के कर्मों का फल मिले इसमें देरी तो हो सकती है, किन्तु कुछ भी करते रहने और मनचाहे प्रतिफल पाने की छूट किसी को भी नहीं है।

334) विपत्ति से असली हानि उसकी उपस्थिति से नहीं होती, जब मनरूस्थिति उससे लोहा लेने में असमर्थता प्रकट करती है तभी व्यक्ति टूटता है और हानि सहता है।

335) श्रद्धा की प्रेरणा है-श्रेष्ठता के प्रति घनिष्ठता, तन्मयता एवं समर्पण की प्रवृतित। परमेश्वर के प्रति इसी भाव संवेदना को विकसित करने का नमा है-भक्ति।

336) अच्छाइयों का एक-एक तिनका चुन-चुनकर जीवन भवन का निर्माण होता है, पर बुराई का एक हलका झोंका ही उसे मिटा डालने के लिए पर्याप्त होता है।

337) जब संकटों के बादल सिर पर मँडरा रहे हों तब भी मनुष्य को धैर्य नहीं छोड़ना चाहिए। धैर्यवान व्यक्ति भीषण परिस्थितियों में भी विजयी होते हैं।

338) ज्ञान का जितना भाग व्यवहार में लाया जा सके वही सार्थक है, अन्यथा वह गधे पर लदे बोझ के समान है।

339) नाव स्वयं ही नदी पार नहीं करती। पीठ पर अनेकों को भी लाद कर उतारती है। सन्त अपनी सेवा भावना का उपयोग इसी प्रकार किया करते है।

340) कोई अपनी चमड़ी उखाड़ कर भीतर का अंतरंग परखने लगे तो उसे मांस और हड्डियों में एक तत्व उफनता दृष्टिगोचर होगा, वह है असीम प्रेम। हमने जीवन में एक ही उपार्जन किया है प्रेम। एक ही संपदा कमाई है-प्रेम। एक ही रस हमने चखा है वह है प्रेम का।

341) हमारी कितने रातें सिसकते बीती हैं-कितनी बार हम फूट-फूट कर रोये हैं इसे कोई कहाँ जानता हैड्ढ? लोग हमें संत, सिद्ध, ज्ञानी मानते हैं, कोई लेखक, विद्वान, वक्ता, नेता, समझा हैं। कोई उसे देख सका होता तो उसे मानवीय व्यथा वेदना की अनुभूतियों से करुण कराह से हाहाकार करती एक उद्विग्न आत्मा भर इस हड्डियों के ढ़ाँचे में बैठी बिलखती दिखाई पड़ती है।

342) परिजन हमारे लिए भगवान की प्रतिकृति हैं और उनसे अधिकाधिक गहरा प्रेम प्रसंग बनाए रखने की उत्कंठा उमड़ती रहती है। इस वेदना के पीछे भी एक ऐसा दिव्य आनंद झाँकता है इसे भक्तियोग के मर्मज्ञ ही जान सकते है।

343) हराम की कमाई खाने वाले,भष्ट्राचारी बेईमान लोगों के विरुद्ध इतनी तीव्र प्रतिक्रिया उठानी होगी जिसके कारण उन्हें सड़क पर चलना और मुँह दिखाना कठिन हो जाये। जिधर से वे निकलें उधर से ही धिक्कार की आवाजें ही उन्हें सुननी पडें। समाज में उनका उठना-बैठना बन्द हो जाये और नाई, धोबी, दर्जी कोई उनके साथ किसी प्रकार का सहयोग करने के लिए तैयार न हों।

344) जटायु रावण से लड़कर विजयी न हो सका और न लड़ते समय जीतने की ही आशा की थी फिर भी अनीति को आँखो से देखते रहने और संकट में न पड़ने के भय से चुप रहने की बात उसके गले न उतरी और कायरता और मृत्यु में से एक को चुनने का प्रसंग सामने रहने पर उसने युद्ध में ही मर मिटने की नीति को ही स्वीकार किया।

345) गाली-गलौज, कर्कश, कटु भाषण, अश्लील मजाक, कामोत्तेजक गीत, निन्दा, चुगली, व्यग्, क्रोध एवं आवेश भरा उच्चारण, वाणी की रुग्णता प्रकट करते हैं। ऐसे शब्द दूसरों के लिए ही मर्मभेदी नहीं होते वरन् अपने लिए भी घातक परिणाम उत्पन्न करते है।

346) अंतरूमन्थन उन्हें खासतौर से बेचौन करता है, जिनमें मानवीय आस्थाएँ अभी भी अपने जीवंत होने का प्रमाण देतीं और कुछ सोचने करने के लिये नोंचती-कचौटती रहती हैं।

347) जिस भी भले बुरे रास्ते पर चला जाये उस पर साथी-सहयोगी तो मिलते ही रहते हैं। इस दुनियाँ में न भलाई की कमी है, न बुराई की। पसंदगी अपनी, हिम्मत अपनी, सहायता दुनियाँ की।

348) लोकसेवी नया प्रजनन बंद कर सकें, जितना हो चुका उसी के निर्वाह की बात सोचें तो उतने भर से उन समस्याओं का आधा समाधान हो सकता है जो पर्वत की तरह भारी और विशालकाय दीखती है।

349) उनकी नकल न करें जिनने अनीतिपूर्वक कमाया और दुर्व्यसनों में उड़ाया। बुद्धिमान कहलाना आवश्यक नहीं। चतुरता की दृष्टि से पक्षियों में कौवे को और जानवरों में चीते को प्रमुख गिना जाता है। ऐसे चतुरों और दुस्साहसियों की बिरादरी जेलखानों में बनी रहती है। ओछों की नकल न करें। आदर्शों की स्थापना करते समय श्रेष्ठ, सज्जनों को, उदार महामानवों को ही सामने रखें।

350) अज्ञान, अंधकार, अनाचार और दुराग्रह के माहौल से निकलकर हमें समुद्र में खड़े स्तंभों की तरह एकाकी खड़े होना चाहिये। भीतर का ईमान, बाहर का भगवान् इन दो को मजबूती से पकड़ें और विवेक तथा औचित्य के दो पग बढ़ाते हुये लक्ष्य की ओर एकाकी आगे बढ़ें तो इसमें ही सच्चा शौर्य, पराक्रम है। भले ही लोग उपहास उड़ाएं या असहयोगी, विरोधी रुख बनाए रहें।

351)चोर, उचक्के, व्यसनी, जुआरी भी अपनी बिरादरी निरंतर बढ़ाते रहते हैं । इसका एक ही कारण है कि उनका चरित्र और चिंतन एक होता है। दोनों के मिलन पर ही प्रभावोत्पादक शक्ति का उद्भव होता है। किंतु आदर्शों के क्षेत्र में यही सबसे बड़ी कमी है।

352)दुष्टता वस्तुतरू पह्ले दर्जे की कायरता का ही नाम है। उसमें जो आतंक दिखता है वह प्रतिरोध के अभाव से ही पनपता है। घर के बच्चें भी जाग पड़े तो बलवान चोर के पैर उखड़ते देर नहीं लगती। स्वाध्याय से योग की उपासना करे और योग से स्वाध्याय का अभ्यास करें। स्वाध्याय की सम्पत्ति से परमात्मा का साक्षात्कार होता है।

353)धर्म को आडम्बरयुक्त मत बनाओ, वरन् उसे अपने जीवन में धुला डालो। धर्मानुकूल ही सोचो और करो। शास्त्र की उक्ति है कि रक्षा किया हुआ धर्म अपनी रक्षा करता है और धर्म को जो मारता है, धर्म उसे मार डालता है, इस तथ्य को

354)ध्यान में रखकर ही अपने जीवन का नीति निर्धारण किया जाना चाहिए।

355)मनुष्य को एक ही प्रकार की उन्नति से संतुष्ट न होकर जीवन की सभी दिशाओं में उन्नति करनी चाहिए। केवल एक ही दिशा में उन्नति के लिए अत्यधिक प्रयत्न करना और अन्य दिशाओं की उपेक्षा करना और उनकी ओर से उदासीन रहना उचित नहीं है।

356)विपन्नता की स्थिति में धैर्य न छोड़ना मानसिक संतुलन नष्ट न होने देना, आशा पुरूषार्थ को न छोड़ना, आस्तिकता अर्थात् ईश्वर विश्वास का प्रथम चिन्ह है।

357)दृढ़ आत्मविश्वास ही सफलता की एकमात्र कुज्ी है।

358)आत्मीयता को जीवित रखने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि गलतियों को हम उदारतापूर्वक क्षमा करना सीखें।

359)समस्त हिंसा, द्वेष, बैर और विरोध की भीषण लपटें दया का संस्पर्श पाकर शान्त हो जाती हैं।

प्रज्ञा सुभाषित-5
1) यह संसार कर्म की कसौटी है। यहाँ मनुष्य की पहचान उसके कर्मों से होती है।

2) दुष्ट चिंतन आग में खेलने की तरह है।

3) जो अपनी राह बनाता है वह सफलता के शिखर पर चढ़ता हैय पर जो औरों की राह ताकता है सफलता उसकी मुँह ताकती रहती है।

4) जीवनोद्देश्य की खोज ही सबसे बड़ा सौभाग्य है। उसे और कहीं ढूँढ़ने की अपेक्षा अपने हृदय में ढूँढ़ना चाहिए।

5) वह मनुष्य विवेकवान् है, जो भविष्य से न तो आशा रखता है और न भयभीत ही होता है।

6) बुद्धिमान् बनने का तरीका यह है कि आज हम जितना जानते हैं भविष्य में उससे अधिक जानने के लिए प्रयत्नशील रहें।

7) जीवन उसी का धन्य है जो अनेकों को प्रकाश दे। प्रभाव उसी का धन्य है जिसके द्वारा अनेकों में आशा जाग्रत हो।

8) तुम्हारा प्रत्येक छल सत्य के उस स्वच्छ प्रकाश में एक बाधा है जिसे तुम्हारे द्वारा उसी प्रकार प्रकाशित होना चाहिए जैसे साफ शीशे के द्वारा सूर्य का प्रकाश प्रकाशित होता है।

9) मनुष्य जीवन का पूरा विकास गलत स्थानों, गलत विचारों और गलत दृष्टिकोणों से मन और शरीर को बचाकर उचित मार्ग पर आरूढ़ कराने से होता है।

10) जीवन एक परख और कसौटी है जिसमें अपनी सामर्थ्य का परिचय देने पर ही कुछ पा सकना संभव होता है।

11) सेवा का मार्ग ज्ञान, तप, योग आदि के मार्ग से भी ऊँचा है।

12) अधिक इच्छाएँ प्रसन्नता की सबसे बड़ी शत्रु हैं।

13) मस्तिष्क में जिस प्रकार के विचार भरे रहते हैं वस्तुतरू उसका संग्रह ही सच्ची परिस्थिति है। उसी के प्रभाव से जीवन की दिशाएँ बनती और मुड़ती रहती हैं।

14) संघर्ष ही जीवन है। संघर्ष से बचे रह सकना किसी के लिए भी संभव नहीं।

15) अपने हित की अपेक्षा जब परहित को अधिक महत्त्व मिलेगा तभी सच्चा सतयुग प्रकट होगा।

16) सत्य, प्रेम और न्याय को आचरण में प्रमुख स्थान देने वाला नर ही नारायण को अति प्रिय है।

17) ज्ञान और आचरण में बोध और विवेक में जो सामञ्जस्य पैदा कर सके उसे ही विद्या कहते हैं।

18) संसार में हर वस्तु में अच्छे और बुरे दो पहलू हैं, जो अच्छा पहलू देखते हैं वे अच्छाई और जिन्हें केवल बुरा पहलू देखना आता है वह बुराई संग्रह करते हैं।

19) सलाह सबकी सुनो पर करो वह जिसके लिए तुम्हारा साहस और विवेक समर्थन करे।

20) फल के लिए प्रयत्न करो, परन्तु दुविधा में खड़े न रह जाओ। कोई भी कार्य ऐसा नहीं जिसे खोज और प्रयत्न से पूर्ण न कर सको।

21) अपने दोषों की ओर से अनभिज्ञ रहने से बड़ा प्रमाद इस संसार में और कोई नहीं हो सकता।

22) वही उन्नति कर सकता है, जो स्वयं को उपदेश देता है।

23) स्वार्थ, अहंकार और लापरवाही की मात्रा बढ़ जाना ही किसी व्यक्ति के पतन का कारण होता है।

24) अवसर की प्रतीक्षा में मत बैठो। आज का अवसर ही सर्वोत्तम है।

25) पाप अपने साथ रोग, शोक, पतन और संकट भी लेकर आता है।

26) ईमानदार होने का अर्थ है-हजार मनकों में अलग चमकने वाला हीरा।

27) वही जीवित है, जिसका मस्तिष्क ठंडा, रक्त गरम, हृदय कोमल और पुरुषार्थ प्रखर है।

28) सद्गुणों के विकास में किया हुआ कोई भी त्याग कभी व्यर्थ नहीं जाता।

29) जो आलस्य और कुकर्म से जितना बचता है, वह ईश्वर का उतना ही बड़ा भक्त है।

30) वयúं राष्ट्रे जागृयाम पुरोहितारू। हम पुरोहितगण अपने राष्ट्र में जाग्रत (जीवन्त) रहें।

31) सत्कर्म की प्रेरणा देने से बढ़कर और कोई पुण्य हो ही नहीं सकता।

32) नरक कोई स्थान नहीं, संकीर्ण स्वार्थपरता की और निकृष्ट दृष्टिकोण की प्रतिक्रिया मात्र है।

33) सद्भावनाओं और सत्प्रवृत्तियों से जिनका जीवन जितना ओतप्रोत है, वह ईश्वर के उतना ही निकट है।

34) असत् से सत् की ओर, अंधकार से आलोक की ओर तथा विनाश से विकास की ओर बढ़ने का नाम ही साधना है।

35) सच्चाई, ईमानदारी, सज्जनता और सौजन्य जैसे गुणों के बिना कोई मनुष्य कहलाने का अधिकारी नहीं हो सकता।

36) किसी आदर्श के लिए हँसते-हँसते जीवन का उत्सर्ग कर देना सबसे बड़ी बहादुरी है।

37) उदारता, सेवा, सहानुभूति और मधुरता का व्यवहार ही परमार्थ का सार है।

38) गायत्री उपासना का अधिकर हर किसी को है। मनुष्य मात्र बिना किसी भेदभाव के उसे कर सकता है।

39) भगवान् को घट-घट वासी और न्यायकारी मानकर पापों से हर घड़ी बचते रहना ही सच्ची भक्ति है।

40) अस्त-व्यस्त रीति से समय गँवाना अपने ही पैरों कुल्हाड़ी मारना है।

41) अपने गुण, कर्म, स्वभाव का शोधन और जीवन विकास के उच्च गुणों का अभ्यास करना ही साधना है।

42) जो टूटे को बनाना, रूठे को मनाना जानता है, वही बुद्धिमान है।

43) समाज का मार्गदर्शन करना एक गुरुतर दायित्व है, जिसका निर्वाह कर कोई नहीं कर सकता।

44) नेतृत्व पहले विशुद्ध रूप से सेवा का मार्ग था। एक कष्ट साध्य कार्य जिसे थोड़े से सक्षम व्यक्ति ही कर पाते थे।

45) सारी शक्तियाँ लोभ, मोह और अहंता के लिए वासना, तृष्णा और प्रदर्शन के लिए नहीं खपनी चाहिए।

46) निश्चित रूप से ध्वंस सरल होता है और निर्माण कठिन है।

47) अपने देश का यह दुर्भाग्य है कि आजादी के बाद देश और समाज के लिए निरूस्वार्थ भाव से खपने वाले सृजेताओं की कमी रही है।

48) उच्चस्तरीय महत्त्वाकांक्षा एक ही है कि अपने को इस स्तर तक सुविस्तृत बनाया जाय कि दूसरों का मार्गदर्शन कर सकना संभव हो सके।

49) शक्ति उनमें होती है, जिनकी कथनी और करनी एक हो, जो प्रतिपादन करें, उनके पीछे मन, वचन और कर्म का त्रिविध समावेश हो।

50) व्यक्ति का चिंतन और चरित्र इतना ढीला हो गया है कि स्वार्थ के लिए अनर्थ करने में व्यक्ति चूकता नहीं।

51) संसार का सबसे बड़ानेता है-सूर्य। वह आजीवन व्रतशील तपस्वी की तरह निरंतर नियमित रूप से अपने सेवा कार्य में संलग्न रहता है।

52) नेतृत्व ईश्वर का सबसे बड़ा वरदान है, क्योंकि वह प्रामाणिकता, उदारता और साहसिकता के बदले खरीदा जाता है।

53) किसी का अमंगल चाहने पर स्वयं पहले अपना अमंगल होता है।

54) महात्मा वह है, जिसके सामान्य शरीर में असामान्य आत्मा निवास करती है।

55) जिसका हृदय पवित्र है, उसे अपवित्रता छू तक नहीं सकता।

56) स्वर्ग और मुक्ति का द्वार मनुष्य का हृदय ही है।

57) यथार्थ को समझना ही सत्य है। इसी को विवेक कहते हैं।

58) अहंकार के स्थान पर आत्मबल बढ़ाने में लगें, तो समझना चाहिए कि ज्ञान की उपलब्धि हो गयी।

59) समय को नियमितता के बंधनों में बाँधा जाना चाहिए।

60) अपनापन ही प्यारा लगता है। यह आत्मीयता जिस पदार्थ अथवा प्राणी के साथ जुड़ जाती है, वह आत्मीय, परम प्रिय लगने लगती है।

61) चेतना के भावपक्ष को उच्चस्तरीय उत्कृष्टता के साथ एकात्म कर देने को श्योगश् कहते हैं।

62) कुकर्मी से बढ़कर अभागा कोई नहीं, क्योंकि विपत्ति में उसका कोई साथी नहीं रहता।

63) जिसने जीवन में स्नेह, सौजन्य का समुचित समावेश कर लिया, सचमुच वही सबसे बड़ा कलाकार है।

64) अपने को मनुष्य बनाने का प्रयत्न करो, यदि उसमें सफल हो गये, तो हर काम में सफलता मिलेगी।

65) जीवन का अर्थ है समय। जो जीवन से प्यार करते हों, वे आलस्य में समय न गँवाएँ।

66) जो बच्चों को सिखाते हैं, उन पर बड़े खुद अमल करें, तो यह संसार स्वर्ग बन जाय।

67) बुराई मनुष्य के बुरे कर्मों की नहीं, वरन् बुरे विचारों की देन होती है।

68) सब कुछ होने पर भी यदि मनुष्य के पास स्वास्थ्य नहीं, तो समझो उसके पास कुछ है ही नहीं।

69) अपनी विकृत आकांक्षाओं से बढ़कर अकल्याणकारी साथी दुनिया में और कोई दूसरा नहीं।

70) सत्य एक ऐसी आध्यात्मिक शक्ति है, जो देश, काल, पात्र अथवा परिस्थितियों से प्रभावित नहीं होती।

71) सत्य ही वह सार्वकालिक और सार्वदेशिक तथ्य है, जो सूर्य के समान हर स्थान पर समान रूप से चमकता रहता है।

72) जो प्रेरणा पाप बनकर अपने लिए भयानक हो उठे, उसका परित्याग कर देना ही उचित है।

73) कोई भी साधना कितनी ही ऊँची क्यों न हो, सत्य के बिना सफल नहीं हो सकती।

74) उतावला आदमी सफलता के अवसरों को बहुधा हाथ से गँवा ही देता है।

75) ज्ञान अक्षय है। उसकी प्राप्ति मनुष्य शय्या तक बन पड़े तो भी उस अवसर को हाथ से न जाने देना चाहिए।

76) अवांछनीय कमाई से बनाई हुई खुशहाली की अपेक्षा ईमानदारी के आधार पर गरीबों जैसा जीवन बनाये रहना कहीं अच्छा है।

77) आवेश जीवन विकास के मार्ग का भयानक रोड़ा है, जिसको मनुष्य स्वयं ही अपने हाथ अटकाया करता है।

78) मनुष्यता सबसे अधिक मूल्यवान् है। उसकी रक्षा करना प्रत्येक जागरूक व्यक्ति का परम कर्त्तव्य है।

79) ज्ञान ही धन और ज्ञान ही जीवन है। उसके लिए किया गया कोई भी बलिदान व्यर्थ नहीं जाता।

80) असफलता केवल यह सिद्ध करती है कि सफलता का प्रयास पूरे मन से नहीं हुआ।

81) गृहस्थ एक तपोवन है, जिसमें संयम, सेवा और सहिष्णुता की साधना करनी पड़ती है।

82) असत्य से धन कमाया जा सकता है, पर जीवन का आनन्द, पवित्रता और लक्ष्य नहीं प्राप्त किया जा सकता।

83) शालीनता बिना मूल्य मिलती है, पर उससे सब कुछ खरीदा जा सकता है।

84) मनुष्य परिस्थितियों का दास नहीं, वह उनका निर्माता, नियंत्रणकर्त्ता और स्वामी है।

85) जिन्हें लम्बी जिन्दगी जीना हो, वे बिना कड़ी भूख लगे कुछ भी न खाने की आदत डालें।

86) कायर मृत्यु से पूर्व अनेकों बार मर चुकता है, जबकि बहादुर को मरने के दिन ही मरना पड़ता है।

87) आय से अधिक खर्च करने वाले तिरस्कार सहते और कष्ट भोगते हैं।

88) दुरूख का मूल है पाप। पाप का परिणाम है-पतन, दुरूख, कष्ट, कलह और विषाद। यह सब अनीति के अवश्यंभावी परिणाम हैं।

89) अस्वस्थ मन से उत्पन्न कार्य भी अस्वस्थ होंगे।

90) आसक्ति संकुचित वृत्ति है।

91) समान भाव से आत्मीयता पूर्वक कर्त्तव्य-कर्मों का पालन किया जाना मनुष्य का धर्म है।

92) पाप की एक शाखा है-असावधानी।

93) जब तक मनुष्य का लक्ष्य भोग रहेगा, तब तक पाप की जड़ें भी विकसित होती रहेंगी।

94) मनुष्य को आध्यात्मिक ज्ञान और आत्म-विज्ञान की जानकारी हुए बिना यह संभव नहीं है कि मनुष्य दुष्कर्मों का परित्याग करे।

95) ईश्वर अर्थात् मानवी गरिमा के अनुरूप अपने को ढालने के लिए विवश करने की व्यवस्था।

96) मनुष्य बुद्धिमानी का गर्व करता है, पर किस काम की वह बुद्धिमानी-जिससे जीवन की साधारण कला हँस-खेल कर जीने की प्रक्रिया भी हाथ न आए।

97) जब अंतराल हुलसता है, तो तर्कवादी के कुतर्की विचार भी ठण्डे पड़ जाते हैं।

98) मनुष्य के भावों में प्रबल रचना शक्ति है, वे अपनी दुनिया आप बसा लेते हैं।

99) पग-पग पर शिक्षक मौजूद हैं, पर आज सीखना कौन चाहता है?

100) इस संसार में अनेक विचार, अनेक आदर्श, अनेक प्रलोभन और अनेक भ्रम भरे पड़े हैं।

101) पादरी, मौलवी और महंत भी जब तक एक तरह की बात नहीं कहते, तो दो व्यक्तियों में एकमत की आशा की ही कैसे जाए?

102) जीवन की सफलता के लिए यह नितांत आवश्यक है कि हम विवेकशील और दूरदर्शी बनें।

103) विवेकशील व्यक्ति उचित अनुचित पर विचार करता है और अनुचित को किसी भी मूल्य पर स्वीकार नहीं करता।

104) धर्मवान् बनने का विशुद्ध अर्थ बुद्धिमान, दूरदर्शी, विवेकशील एवं सुरुचि सम्पन्न बनना ही है।

105) मानव जीवन की सफलता का श्रेय जिस महानता पर निर्भर है, उसे एक शब्द में धार्मिकता कह सकते हैं।

106) मांसाहार मानवता को त्यागकर ही किया जा सकता है।

107) परमार्थ मानव जीवन का सच्चा स्वार्थ है।

108) समय उस मनुष्य का विनाश कर देता है, जो उसे नष्ट करता रहता है।

109) अशख्रील, अभद्र अथवा भोगप्रदधान मनोरंजन पतनकारी होते हैं।

110) परोपकार से बढ़कर और निरापत दूसरा कोई ध्धर्म नहीं।

111) परावलम्बी जीवित तो रहते हैं, पर मृत तुल्य ही।

112) अंध श्रद्धा का अर्थ है, बिना सोचे-समझे, आँख मूँदकर किसी पर भी विश्वास।

113) एकांगी अथवा पक्षपाती मस्तिष्क कभी भी अच्छा मित्र नहीं रहता।

114) सबसे बड़ा दीन दुर्बल वह है, जिसका अपने ऊपर नियंत्रण नहीं।

115) जो जैसा सोचता है और करता है, वह वैसा ही बन जाता है।

116) भगवान् की दण्ड संहिता में असामाजिक प्रवृत्ति भी अपराध है।

117) करना तो बड़ा काम, नहीं तो बैठे रहना, यह दुराग्रह मूर्खतापूर्ण है।

118) डरपोक और शक्तिहीन मनुष्य भाग्य के पीछे चलता है।

119) मानवता की सेवा से बढ़कर और कोई बड़ा काम नहीं हो सकता।

120) प्रकृतितरू हर मनुष्य अपने आप में सुयोग्य एवं समर्थ है।

121) व्यक्तित्व की अपनी वाणी है, जो जीभ या कलम का इस्तेमाल किये बिना भी लोगों के अंतराल को छूती है।

122) प्रस्तुत उलझनें और दुष्प्रवृत्तियाँ कहीं आसमान से नहीं टपकीं। वे मनुष्य की अपनी बोयी, उगाई और बढ़ाई हुई हैं।

123) दीनता वस्तुतरू मानसिक हीनता का ही प्रतिफल है।

124) जीवनी शक्ति पेड़ों की जड़ों की तरह भीतर से ही उपजती है।

125) सत्कर्मों का आत्मसात होना ही उपासना, साधना और आराधना का सारभूत तत्व है।

126) जनसंख्या की अभिवृद्धि हजार समस्याओं की जन्मदात्री है।

127) अंतरंग बदलते ही बहिरंग के उलटने में देर नहीं लगती है।

128) सद्विचार तब तक मधुर कल्पना भर बने रहते हैं, जब तक उन्हें कार्य रूप में परिणत नहीं किया जाय।

129) नेतृत्व का अर्थ है वह वर्चस्व जिसके सहारे परिचितों और अपरिचितों को अंकुश में रखा जा सके, अनुशासन में चलाया जा सके।

130) आत्मानुभूति यह भी होनी चाहिए कि सबसे बड़ी पदवी इस संसार में मार्गदर्शक की है।

131) नेता शिक्षित और सुयोग्य ही नहीं, प्रखर संकल्प वाला भी होना चाहिए, जो अपनी कथनी और करनी को एकरूप में रख सके।

132) सफल नेता की शिवत्व भावना-सबका भला श्बहुजन हिताय-बहुजन सुखायश् से प्रेरित होती है।

133) जो व्यक्ति कभी कुछ कभी कुछ करते हैं, वे अन्ततरू कहीं भी नहीं पहुँच पाते।

134) विपरीत प्रतिकूलताएँ नेता के आत्म विश्वास को चमका देती हैं।

135) सच्चे नेता आध्यात्मिक सिद्धियों द्वारा आत्म विश्वास फैलाते हैं। वही फैलकर अपना प्रभाव मुहल्ला, ग्राम, शहर, प्रांत और देश भर में व्याप्त हो जाता है।

136) सफल नेतृत्व के लिए मिलनसारी, सहानुभूति और कृतज्ञता जैसे दिव्य गुणों की अतीव आवश्यकता है।

137) हर व्यक्ति जाने या अनजाने में अपनी परिस्थितियों का निर्माण आप करता है।

138) अनीति अपनाने से बढ़कर जीवन का तिरस्कार और कुछ हो ही नहीं सकता।

139) काम छोटा हो या बड़ा, उसकी उत्कृष्टता ही करने वाले का गौरव है।

140) निरंकुश स्वतंत्रता जहाँ बच्चों के विकास में बाधा बनती है, वहीं कठोर अनुशासन भी उनकी प्रतिभा को कुंठित करता है।

141) दिल खोलकर हँसना और मुस्कराते रहना चित्त को प्रफुल्लित रखने की एक अचूक औषधि है।

142) नास्तिकता ईश्वर की अस्वीकृति को नहीं, आदर्शों की अवहेलना को कहते हैं।

143) श्रेष्ठ मार्ग पर कदम बढ़ाने के लिए ईश्वर विश्वास एक सुयोग्य साथी की तरह सहायक सिद्ध होता है।

144) मरते वे हैं, जो शरीर के सुख और इन्द्रिय वासनाओं की तृप्ति के लिए रात-दिन खपते रहते हैं।

145) राष्ट्र के उत्थान हेतु मनीषी आगे आयें।

146) राष्ट्र निर्माण जागरूक बुद्धिजीवियों से ही संभव है।

147) राष्ट्रोत्कर्ष हेतु संत समाज का योगदान अपेक्षित है।

148) राष्ट्र का विकास, बिना आत्म बलिदान के नहीं हो सकता।

149) राष्ट्र को समृद्ध और शक्तिशाली बनाने के लिए आदर्शवाद, नैतिकता, मानवता, परमार्थ, देश भक्ति एवं समाज निष्ठा की भावना की जागृति नितान्त आवश्यक है।

150) सामाजिक, राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्रों में जो विकृतियाँ, विपन्नताएँ दृष्टिगोचर हो रही हैं, वे कहीं आकाश से नहीं टपकी हैं, वरन् हमारे अग्रणी, बुद्धिजीवी एवं प्रतिभा सम्पन्न लोगों की भावनात्मक विकृतियों ने उन्हें उत्पन्न किया है।

151) राष्ट्रीय स्तर की व्यापक समस्याएँ नैतिक दृष्टि धूमिल होने और निकृष्टता की मात्रा बढ़ जाने के कारण ही उत्पन्न होती है।

152) राष्ट्र के नव निर्माण में अनेकों घटकों का योगदान होता है। प्रगति एवं उत्कर्ष के लिए विभिन्न प्रकार के प्रयास चलते और उसके अनुरूप सफलता-असफलताएँ भी मिलती हैं।

153) राष्ट्रों, राज्यों और जातियों के जीवन में आदिकाल से उल्लेखनीय धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक क्रान्तियाँ हुई हैं। उन परिस्थितियों में श्रेय भले ही एक व्यक्ति या वर्ग को मार्गदर्शन को मिला हो, सच्ची बात यह रही है कि बुद्धिजीवियों, विचारवान् व्यक्तियों ने उन क्रान्तियों को पैदा किया, जन-जन तक फैलाया और सफल बनाया।

154) धर्म का मार्ग फूलों की सेज नहीं है। इसमें बड़े-बड़े कष्ट सहन करने पड़ते हैं।

155) अवसर उनकी सहायता कभी नहीं करता, जो अपनी सहायता नहीं करते।

156) ज्ञान के नेत्र हमें अपनी दुर्बलता से परिचित कराने आते हैं। जब तक इंद्रियों में सुख दीखता है, तब तक आँखों पर पर्दा हुआ मानना चाहिए।

157) जो सच्चाई के मार्ग पर चलता है, वह भटकता नहीं।

158) किसी का मनोबल बढ़ाने से बढ़कर और अनुदान इस संसार में नहीं है।

159) बड़प्पन सुविधा संवर्धन का नहीं, सद्गुण संवर्धन का नाम है।

160) संसार का सबसे बड़ा दीवालिया वह है, जिसने उत्साह खो दिया।

161) मनुष्य की संकल्प शक्ति संसार का सबसे बड़ा चमत्कार है।

162) अपने दोषों से सावधान रहोय क्योंकि यही ऐसे दुश्मन है, जो छिपकर वार करते हैं।

163) आत्मविश्वासी कभी हारता नहीं, कभी थकता नहीं, कभी गिरता नहीं और कभी मरता नहीं।

164) उनकी प्रशंसा करो जो धर्म पर दृढ़ हैं। उनके गुणगान न करो, जिनने अनीति से सफलता प्राप्त की।

165) जिनके अंदर ऐय्याशी, फिजूलखर्ची और विलासिता की कुर्बानी देने की हिम्मत नहीं, वे अध्यात्म से कोसों दूर हैं।

166) ऊँचे सिद्धान्तों को अपने जीवन में धारण करने की हिम्मत का नाम है-अध्यात्म।

167) स्वाधीन मन मनुष्य का सच्चा सहायक होता है।

168) प्रतिभावान् व्यक्तित्व अर्जित कर लेना, धनाध्यक्ष बनने की तुलना में कहीं अधिक श्रेष्ठ और श्रेयस्कर है।

169) दरिद्रता कोई दैवी प्रकोप नहीं, उसे आलस्य, प्रमाद, अपव्यय एवं दुर्गुणों के एकत्रीकरण का प्रतिफल ही करना चाहिए।

170) शत्रु की घात विफल हो सकती है, किन्तु आस्तीन के साँप बने मित्र की घात विफल नहीं होती।

171) अंध परम्पराएँ मनुष्य को अविवेकी बनाती हैं।

172) जब हम किसी पशु-पक्षी की आत्मा को दुरूख पहुँचाते हैं, तो स्वयं अपनी आत्मा को दुरूख पहुँचाते हैं।

173) हम आमोद-प्रमोद मनाते चलें और आस-पास का समाज आँसुओं से भीगता रहे, ऐसी हमारी हँसी-खुशी को धिक्कार है।

174) दूसरों की सबसे बड़ी सहायता यही की जा सकती है कि उनके सोचने में जो त्रुटि है, उसे सुधार दिया जाए।

175) ठगना बुरी बात है, पर ठगाना उससे कम बुरा नहीं है।

176) प्रतिभा किसी पर आसमान से नहीं बरसती, वह अंदर से जागती है और उसे जगाने के लिए केवल मनुष्य होना पर्याप्त है।

177) संकल्प जीवन की उत्कृष्टता का मंत्र है, उसका प्रयोग मनुष्य जीवन के गुण विकास के लिए होना चाहिए।

178) पुण्य की जय-पाप की भी जय ऐसा समदर्शन तो व्यक्ति को दार्शनिक भूल-भुलैयों में उलझा कर संसार का सर्वनाश ही कर देगा।

179) अपने दोषों की ओर से अनभिज्ञ रहने से बड़ा प्रमाद इस संसार में और कोई दूसरा नहीं हो सकता।

180) अव्यवस्थित जीवन, जीवन का ऐसा दुरुपयोग है, जो दरिद्रता की वृद्धि कर देता है। काम को कल के लिए टालते रहना और आज का दिन आलस्य में बिताना एक बहुत बड़ी भूल है। आरामतलबी और निष्क्रियता से बढ़कर अनैतिक बात और दूसरी कोई नहीं हो सकती।

181) किसी समाज, देश या व्यक्ति का गौरव अन्याय के विरुद्ध लड़ने में ही परखा जा सकता है।

182) दुष्कर्म स्वतरू ही एक अभिशाप है, जो कर्त्ता को भस्म किये बिना नहीं रहता।

183) कर्त्तव्य पालन करते हुए मौत मिलना मनुष्य जीवन की सबसे बड़ी सफलता और सार्थकता है।

184) बड़प्पन बड़े आदमियों के संपर्क से नहीं, अपने गुण, कर्म और स्वभाव की निर्मलता से मिला करता है।

185) पुण्य-परमार्थ का कोई भी अवसर टालना नहीं चाहिए। अगले क्षण यह देह रहे या न रह ेक्या ठिकाना?

186) शुभ कर्यों को कल के लिए मत टालिए, क्योंकि कल कभी आता नहीं।