Wednesday, July 2, 2014

व्यक्तित्व

अनलि चौधरी का साठा सफर

जीवन का फलसफा भी कुछ अजीब ही है। कभी लगता है कि जीवन हमारी मुठ्ठी में उन रेत-कणों की तरह है जो प्रतिपल फिसल रहे हैं। साल-दर-साल हमारी मुठ्ठी खाली होती जा रही है। लेकिन आज लग रहा है कि जीवन कदम-दर-कदम हर एक पड़ाव को पार करते रहने का नाम है। इन्हीं पड़ावों को पार करता हुआ शख़्स अपनी चाही हुई मंजिल तक जा पहुंचता है। एक-एक सीढ़ी चढ़कर पर्वत को लांघता है। आज अनिल चौधरी आप को भी कुछ ऐसा ही लग रहा होगा, साठा होकर। साठ वर्ष जीवन में बहुत मायने रखते हैं। कोई कहता है कि बस अब हम थक गए हैं, दुनिया भी कहती है कि तुम अब चुक गए हो, बस आराम करो। लेकिन कैसा आराम? मुझे तो लग रहा है कि अनिल चौधरी आपके सफर की तो अब सही रूप में शुरूआत हुयी है। अभी तक तो सीढ़ी-दर-सीढ़ी चढ़ते हुए एक खासमखास मंजिल तक पहुंचे हैं आप। वह मंजिल है साठ बरस का पहाड़। जैसे एक पर्वतारोही पर्वत पर जाकर चैन की सांस लेता है और वहाँ से दुनिया को देखने की कोशिश करता है बस वैसे ही आज लग रहा है कि साठ बसंत देख लेने पर अपनी मंजिल तक पहुंच पूरी करके पवर्तासीन हो गये हैं और यहाँ से अब अपने चश्मे से दुनिया को निहार रहे हैं। सारी दुनिया अब स्पष्टतः दिखायी दे रही होगी, नज़र आ रहे होंगे दुनिया के सारे रंग, क्योंकि भांति-भांति के अनुभवों का चश्मा जो है आपके पास। तय की गयी तलहटी में बचपन, युवा और प्रौढ़ावस्था के जो अवशेष पीछे छूट गए हैं, वे दिखायी दे रहे होंगे साफ-साफ, और शायद अब वे पल-पल गुदगुदा भी रहे होंगे।

जैसा आम शख्सियतों के साथ होता है, शायद वैसा ही बचपन खेलते-कूदते, डाँट-फटकार खाते, सपने देखते चुटकी बजाते ही बीत गया होगा। हर तरफ से सुनाई देने लगा होगा कि अब तुम बच्चे नहीं रहे, बड़े हो गए हो। घण्टों-घण्टों सपने देखे होंगे बड़े होने के, कभी नींद नहीं आयी होगी, बस जीवन के सपने ही आँखों में तैरते रहे होंगे।

हम क्या बनेंगे, यह सपने हमारे पास नहीं थे। क्योंकि शायद हमारी पीढ़ी में ऐसे सपने देखने की जिम्मेदारी हमारे माता-पिता की थी। बस मेरी तुच्छ समझ और विश्वास में तो यही संतोष है कि अनिल के माता-पिता ने शिक्षा दिलाने का सपना देखा, बुद्धिमान बनाने का सपना देखा। यदि वे यह सपना नहीं देखते तो अनिल जी भी आज न जाने किस मुकाम पर जा पहुंचते? कौन से पर्वत पर खड़े होते? आज शिक्षा के सहारे ना केवल मजबूती से उम्र के इस पड़ाव पर पैर सीधे किये खड़े हैं अपितु सारे परिवार को भी थामने का साहस इन पैरों में मजबूती से मौजूद है।

हां, पर्वत से झांकते हुए युवावस्थात के फलदार वृक्ष दिखायी दे रहे होंगे। पेड़ के फल कैसे हैं बस इसी से पेड़ की ख्याति होती है। मीठे फल लगे हैं तो दूर-दूर तक लोग कहते हैं कि फलां पेड़ के फल बहुत मीठे हैं। यदि फल मीठे नहीं हैं तो लोग उस तरफ झांकते भी नहीं। फलों से विरल कभी पेड़ की भी अपनी खुशबू होती है, जैसे चन्दन की। ऐसे ही हैं हमारे अनिल चौधरी। ये जिधर भी जाते हैं इनकी खुशबू चारों तरफ फैल जाती है और बरबस ही अपनी ओर खींच लेती है।

साठ वर्ष पार कर लेने पर ठहराव की प्रतीति हो रही होगी, शायद। मन के आनन्द को बाहर निकालकर उससे साक्षात्कार करने की चाहत हो रही होगी। अनुभवों के निचोड़ से जीवन को सींचने का मन हो रहा होगा। खुले आसमान के नीचे, अपने ही बनाए पर्वत पर बैठकर जीवन की पुस्तिका के पृष्ठ उलट-पुलटकर पढ़ने का मन हो रहा होगा। अब तो जीवन स्पष्ट होगा, सभी कुछ स्पष्ट दिख भी रहा होगा। बस इसके आनन्द में उतर जाइए। बहुत कुछ पाया है इस जीवन से। खोया क्या है? लेकिन खोने को कुछ था ही नहीं, इसलिए पाया ही पाया है।

भावी जीवन की सुखमय मंगल कामनाओं के साथ।

- अहिवरन सिंह, 14 जुलाई, 2012

Tuesday, July 1, 2014

कविताएं: 

 (पुष्प  :  सीख      :   गांधी स्मृति    :    आत्मा-परमात्मा)


                 पुष्प    


उपवन में कोई कुछ कह रहा . . . . . . .।2।
खुशी-खुशी अंधड़, वर्षा
सर्दी, गर्मी सह रहा
उपवन में कोई कुछ कह रहा . . . . . . .।2।

था प्यार उस पर,
सबका अगाध
उठाये सिर को
मन को मुदित कर
किलकारियां वह कर रहा।
उपवन में कोई कुछ कह रहा . . . . . . .।2।

देखो कोई प्रसन्न मन,
जड़ जननी, जनक तना
भ्रातृ पत्ता, भगिनी डाली से
विलग सदा को कर रहा।
उपवन में कोई कुछ कह रहा . . . . . . .।2।

फिर भी, वह,
आदर्श बनकर
खुशबू से वायु शुद्ध कर
चेहरे पर मुस्कान लिए
कर्म कर समझा रहा।
उपवन में कोई कुछ कह रहा . . . . . . .।2।

जब तक रहे शेष,
आखिरी श्वांस घट में
तब तक न छोड़िए
सद्मार्ग मित्र मानव।
मौनव्रती पुष्प
सुगन्धि से मुखरित कर रहा।
उपवन में कोई कुछ कह रहा . . . . . . .।2।

-अहिवरन सिंह




सीख


पत्तों से सीखो चेतना, मुस्कुराना पुष्प से,
द्रवीभूत जल की परिणिति को वाष्प से।

वीणा से सीखो मधुरता, एकाग्रता को योग से,
स्वस्थ रहना है अगर तो दूर रहो अति भोग से।

परिचय दो नम्रता से, समाचार कुशल-क्षेम से,
क्रोधी के क्रोध को जीतिए सदा ही प्रेम से।

चन्द्रमा से चांदनी को, प्रकाश को सूर्य से,
शत्रु की शत्रुता को खण्डित करो शौर्य से।

ईश्वर को भक्ति से, स्वयं को दिव्य विभूतियों से,
आदर्श को तो सीखिए चाणक्य की नीतियों से।

ध्रुव से सीखो अडिगता, स्वाभिमान हिमाद्रि से,
सुगन्धि को नासिका से, स्वाद चखो जीभ से।

हवा से संचार को, सदाचार को सत्संग से
मन चलों को मोड़िये लुभावने व्यंग्यों से।

नदियों से परोपकार को, नम्रता को वृक्ष से
वचनबद्धता को निभाने हेतु प्रण लो वक्ष से।

{जीतिए} पाप को पुण्य से, असत्य को सत्य से।
उद्यम से काम करो फिर अछूते नहीं लक्ष्य से।।

-अहिवरन सिंह



       गांधी स्मृति


हुए स्वतंत्र रहा अभी बाकी
सपना गांधी महान का।
स्मृति तो अनुगमन अछूता
कैसे कल्याण जहान का।।

उजड़ा बाग लगाने फिर से
कमी है एकजुट होने की।
छुआ-छूत ऊँच-नीच भुला
मिलकर कदम बढ़ाने की।।

आज ज़रूरत है भारत कों
गांधी के अवतार की।
यही नहीं तब हर्षित होगी
धरा समस्त संसार की।।

आजा भोले-भाले आजा,
हम सभी मिल बुला रहे।
फिर से तेरे आने को
आशा की ज्योति जला रहे।।

राम राज्य का छूटा सपना
प्रण लो पूरण करने को।
राष्ट्रपिता गांधी जी द्वारा
दिखालाये मार्ग पर चलने को।।

है नहीं कुछ पास हमारे
अर्पण-तर्पण करने को।
हे राष्ट्रपिता माफ करके
आजा मार्ग दिखाने को।।

-अहिवरन सिंह




आत्मा-परमात्मा


मैंने उसको कुछ नहीं दिया है
उसने ही मुझको सबकुछ दिया है
मैं पास थी दूर उसने किया है
उपकार कर मानव तन दिया है।

गर्भ में कुछ प्रण उससे किया है
आ भू पर मोड़ मुख को लिया है
भू पर आ याद उसकी थी सताती
मगर भव बंधनों में रही मैं विचरती।

धन, वैभव कितना सारा दिया है
सांसारिक बंधनों का पिटारा दिया है
बड़ी लगन-श्रद्धा से तन रच दिया है
अति सूक्ष्मता से वास अपना किया है।

मानवी घट को अति सुसज्जित किया है
अंग-प्रत्यंग को कर्म सुनिश्चित दिया है
गुरू रूप में आ ज्ञान चक्षु दिया है
भक्ति दे मुक्ति मारग बता दिया है।

बुद्धि का भण्डार अतिशय दिया है
भव पार होने का इक अवसर दिया है।
हमने तो सबको दिया तो बस दुख ही दिया है
परेशान जग को कर अपमान उसका किया है।

मैं तो हूं उसकी, उसकी ही रहूंगी
अकेली बिना उसके इक पल न रहूंगी
अब वह पास मेरे, हूं मैं पास उसके
सदा ही रही रहना है पास जिसके।

कल था आज है और कल भी रहेगा
अजर है, अमर है, अटल ही रहेगा
हर युग में था, है, हमेशा ही रहेगा
बिन तेरे पत्ता इक भी हिल न सकेगा।।

-अहिवरन सिंह




सारी रात मिमियानी, पर एक ही बच्चे से बियानी


क्षमा चाहता हूं, क्योंकि मैं लेखक, पत्रकार, बुद्धिजीवी, बुद्धिमान आदि-आदि की जमात से ताल्लुक तो नहीं रखता हूं फिर भी कुछ अपने दिल की बात बयां करने की हिमाकत कर रहा हूं। ‘उनकी’ बत-कही की हकीकत को अपने शब्दों में पेश करने की जुर्रत कर रहा हूं। बयार ही कुछ ऐसी चल रही है, मैं क्या करूँ, मन है कि मानता ही नहीं।
वैसे ए मन तूं है बहुत ही कुत्ती चीज, पता नहीं कहां-कहां तक चला जाता है, आनन-फानन में क्या-क्या कर डालता है, क्या-क्या सोचता है, क्या-क्या कर गुजरने की प्यास पैदा करता है, सोचता है कि सारे जहां में हमारा सानी नहीं, तूं हमेशा इस गफ़लत में रहता है कि जो हम सोच रहे हैं, कर रहे हैं वैसा कोई दूसरा नहीं सोच सकता, कर सकता। वही तो, यह समझता है कि मैं जो सोच रहा हूं, और करने जा रहा हूं वह एक कसौटी है। अरे भई, तूं है किस मुगालते में ? तुझे क्या पता नहीं कि यहां कितने बड़े-बड़े महारथी, शूरमा आए, पर सब धूल चाट गये। किसी की एक न चली। गर चली तो बस ‘उनकी’ अपनी ही। शायद तूं भूल रहा है कि एक बाकया ब्रह्मा जी का दरबार लगा हुआ था, वहां इन्द्र देवता भी मौजूद थे। इन्द्र का मन दरबार की बातों में तो नहीं, लक्ष्मी जी पर फिदा होता जा रहा था, अतः उनके मन में लक्ष्मी जी के साथ क्या कुछ कर गुजरने की मंशा पैदा हुई, ब्रह्मा जी के आगाह करने पर भी जब वे नहीं माने तो उन्हें अपनी मानसिक वृत्ति के कारण ही ब्रह्मा जी के कोप का भाजन बनना पड़ा था और उन्हें श्राप भुगतना पड़ा था। अरे नाराज क्यों होता है, ऐसा मैं नहीं कह रहा, ग्रंथों में लिखा है। यार तुम तो दुर्वासा ऋषि से कम नहीं हो, जिनके कोप मात्र से चिड़िया भस्म हो गयी थी।
चुप्प हो जाओ, बहुत हो गया, कितनी देर से मैं शांति का घूंट पिये जा रहा हूं और तुम हो कि बड़-बड़ाते चले जा रहे हो। समझते क्या हो अपने आप को ? अगर मैं नहीं होता तो तुम्हारी क्या बिसात कि तिल भर भी कुछ कर सकते। सोच सकते। और अपनी सोच और रणनीति को कार्य रूप दे सकते। भला कहो उस ब्रह्मा को जिसने तुममें मुझको भी शामिल कर दिया, अन्यथा तुम तो.  . . . । खैर, बहुत हो गया। ऊँ शान्ति। हम आपसी द्वन्द्व में ही उलझ कर रह जाएंगे। और जो मूल बात, तथ्य तथा हकीकत आपके सामने रखना चाहता हूं, उससे भटक जाऊंगा।
यार मजा आ गया। अभी कल ही तो सुना है कि असंगठित क्षेत्र के मजदूरों/गरीबों का कल्याण हो जायेगा। उनका भी बीमा किया जायेगा और किसी भी दुर्घटना की स्थिति में सरकार उन्हें देगी दुर्घटना बीमा रूपी पुरस्कार। अभी कुछ दिन पहले की ही तो बात है जब दिल्ली से उद्योग-धन्धों को प्रदूषण की दुहाई पर बाहर किया गया था हजारों लोगों को किनारे लगा दिया गया। अच्छा हुआ, बहुत गुमान हो गया था उन्हें अपने रोजगार पर। पेट तो भर ही रहा था, कपड़े भी पहनना चाह रहे थे। सो सरकार ने अच्छा किया कि अचानक ही उद्योगों को दिल्ली से बाहर भेज दिया। औकात में आ गये। ठीक हुआ न ! अब दिल्ली प्रदूषण मुक्त ही नहीं, गरीब और मजदूर मुक्त भी हो गयी। मेरी दिल्ली मेरी शान। बात दिल्ली की ही नहीं है, वास्तव में सभी तरह से प्रयास तो हम यही कर रहे हैं कि न रहेगा बांस, न बनेगी बांसुरी। अर्थात् जब गरीब/मजदूर ही नहीं रहेगा तो साली गरीबी कहां बसेगी। अरे लगता है तूं, बिल्कुल बेवकूफ है, ऐसे थोड़े ही विकासशील देशों की जमात में शामिल हो जाएंगे। ऐसा कुछ तो करना ही पड़ेगा, तभी तो हम दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी शक्ति बन सकेंगे।
हां यार ठीक बोला। तूं सच ही तो कह रहा है। पर क्या करूं बात जेहन में नहीं समा रही है। बार-बार शंका उठ रही है कि यह विकास है क्या चीज ? अगर रूक जाए तो आफ़त, और अगर किया जाए तो आफ़त। अगर विकास रूक गया तो फिर हम दुनिया में पिछड़ जाएंगे।
चलो देर से ही भली, अब तो सुध आई है। कुछ कर गुजरने की। विकास बांटने की। और अपने नाकारापन को छुपाने की। कुछ और नहीं तो लोगों को खयाली पुलाव तो परोस कर उनकी क्षुदा तृप्ति तो की ही जा रही है। लगता है कि अब देश में कोई भूखा नहीं सोएगा, मरने की तो बात ही मत कीजिए। हां-हां, और क्या इसीलिए तो गली-गली और कूंचे-कूंचे कुलांचती हुई, आनन-फानन में विकास बांटना चाहती है। और ये जनता है कि बेसुध हो, कुंभकरण की नींद में सोये जा रही है। बार-बार बिगुल बजाने पर जागने-उठने का नाम ही नहीं ले रही है। क्यों नहीं, राम-राज्य जो लाना है। अयोध्या में मंदिर बनाना है। जय श्रीराम बुलवाना है।
अब देखो न बच्चे मिट्टी में खेलते हैं, दुःख, बीमारी में दवा नहीं पाते, लोगों को कीचड़ सा गंदा पानी पीना पड़ता है, बीमार होने पर समय पर दवा नहीं मिलती, सर्दियों में भी फुटपाथों पर सोने को मजबूर है, फिर भी इन्हें बीमारियां नहीं होतीं, अर्थात् सर्दी इन्हें गला नहीं पाती और गर्मी भी इनको उबाल नहीं सकती। बाढ़ और सूखा भी इन्हें तबाह नहीं कर पाती। यह सब क्या है ? है न जय श्रीराम की घुट्टी रूपी करिश्मा। सो यह विकास नहीं तो और क्या है। चारों ओर जय श्रीराम और हर-हर महादेव की तूती जो बोल रही है। यह सब जय श्रीराम के धनुष-बाण और महादेव जी के त्रिशूल का ही प्रभाव है। सो अबकी बारी राम मन्दिर बन जाने दो फिर देखना, राम राज्य जरूर आ जाएगा। दर-दर विकास घूमेगा, आवाज लगाएगा कि भई विकास ले लो। मैं तबाह हूं। मुझे कोई नहीं बूझ रहा है। मैं कहां जाऊं। तुम भी जो गपड़-गपड़ कर रहे हो, यह स्वतंत्रता दी किसने ? सिर्फ हमने। हम शहर-शहर घूम-घूम कर फील करा रहे हैं। हम तो तमाम तरह से बता रहे हैं। चिल्लाते-पुकारते परेशान हुए जा रहे हैं। यह तो जनता है कि बिना किसी सवाल-जवाब के जीती चली जा रही है। फील ही नहीं कर रही है। बहुत जान है रे इस जनता में, जो कि हस्ती मिटती नहीं इसकी। पर हम हूं अच्छी तरह समझता हूं कि यह जनता तो कीड़े-मकोड़ों की तरह है। अपन का तो बस एक ही काम है कि हर हाल में सत्ता हथियाओ और राज करो। यह बहुत ही भोली है। इसे बेवकूफ बनाना बड़ा आसान है।
भैया तुम इतनी लम्बी झाड़े जा रहे हो। एक बात हमरी समझ में नहीं आबत है, सो वो है कि इतनी बारी मौका मिला। पिछले पांच साल तो सत्ता में भी रहे फिर भी राम मंदिर क्यों नहीं बनवा पाए। जो आपके अजेण्डे में प्राथमिकता में था।
अरे घोंचू तुझे पता ही नहीं कि जरूरत पडने पर हम सारे हथकंडे अपना लेते हैं। गुजरात में हिन्दुत्व का कार्ड कितना सफल रहा। राम मंदिर को बनवाना हमारे लिए कोई बड़ी बात नहीं है। अगर हम चाहें तो चुटकी में बनवा डालें। मगर फिर समस्या वही हर पांच साल वाली।
हिन्दुत्व प्रयोगशाला ‘गुजरात’ की सारे देश में शाखाएं जो पौंडानी हैं। क्या करें ! ये विपक्षी/वामपंथी समझते क्यों नहीं कि उनकी तुर्रम की वजह से हम उतना कुछ कर सकने में सफल नहीं हो पा रहे हैं जितनी हमें आशा है। बड़ी मुश्किल है। हम विकास की बात करते हैं, तो ये विनाश का आरोप हम पर मड़ देते हैं। हम गरीबी दूर करने की जुगत लगाते हैं तो ये गरीबों को ही दफा कर देने की शिकायत करते हैं। चारों तरफ हर तरह का विकास है। हां, एक बात और; आधुनिक अंधी के दौर में टिकाऊपन विकास की कोई गारंटी नही।
चलो अबकी बारी अटल बिहारी का नारा नहीं चलाएंगे। मंदिर-मस्जिद की बात नहीं करेंगे। फील गुड और विदेशी मूल ही काफी हैं। ये हमारे तर्कस के रामबाण हैं। फिर भी यदि काम नहीं चला तो हिन्दू कार्ड कब काम आयेगा। अब देखो न सब कहते थे कि गुजरात में हिदुत्व का कार्ड खेलने वाले मोदी की सत्ता में वापसी नहीं हो सकेगी। सबकी ऐसी की तैसी। देखलो प्रत्यक्ष में मोदी फिर से सत्ता में वापस आ गया। हम हूँ न।
अरे भाया मुझे तो इन वामपंथियों की सोच पर तरस आता है। ये सत्ता सुख तो जानते हैं नहीं। बरसाती मेढ़कों की तरह टर्र-टर्र करते रहते हैं। ब्लेम लगाते हैं। विकास को विनाश की संज्ञा देते हैं। अब तुम ही बताओं कि क्या कोई ज्योतिषी या पंडित दक्षिणा के बगैर कुछ करके देता है। सो हम भी तो काम के बदले दाम लेते हैं, उसे ये लोग रिश्वत, भ्रष्टाचार आदि-आदि नामों से पुकारते हैं। और हमारे काम में अडंगा अड़ाते रहते हैं। हम भी अपनी धुन में इनकी एक नहीं सुनते, अपनी तरह से ही विकास में लगे रहते हैं। बंगारू, जूदेव की तरह कोई-कोई छिटक जाते हैं गोल से। अन्यथा हम सब एक ही थाली के चट्टे-बट्टे ठहरे।
अब देखिए न कुछ लोगों की समझ में आने लगा है। सो हमारी जमात में बेधड़क शामिल हो रहे हैं। फिर चाहे खेल जगत, फिल्म जगत, बुद्धिजीवी जगत, मीडिया जगत, उद्योग जगत, राजनीति जगत हो हर तरफ की हस्तियां बीजेपी की ओर लामबन्द हो रही हैं। अब उन्हें इसके अलावा और कोई विकल्प ही नजर नहीं आ रहा है। ऐसा हड़कंप तथाकथित अभिजात्य वर्ग में है। क्यों न हो। सभी को मंत्री/संत्री का ख्वाब जो सताने लगा है।
अरे यार बहुत हो  गया; तू तो कुछ ज्यादा ही लम्बी-लम्बी खींच रहा है। तुझे पता नहीं कि देश में पब्लिक किस हाल में ज़िंदगी को धकेल रही है।
क्या तू तो अब भी सुधरने का नाम ही नहीं ले रहा है। भई हमने क्या सबका ठेका ले रखा है। सबको अपनी चिंता करनी है।
- अहिवरन सिंह

आज़ाद हिंदुस्तान का साठ साला सफ़र



आजाद हिंदुस्तान की रूपरेखा गढ़ते समय सविधान निर्माताओं ने हमारे संविधान की प्रस्तावना में चार लक्ष्य रखे थे- हर नागरिक को बिना किसी भेदभाव के साथ न्याय (सामाजिक-आर्थिक- राजनैतिक स्तर पर), आज़ादी (विचार-अभिव्यक्ति- विश्वास-धर्म और उपासना की), समानता (प्रतिष्ठा और अवसर की) मिले और बन्धुत्व (व्यक्ति की गरिमा-राष्ट्र की एकता और अखंडता के स्तर पर) का भाव पैदा हो। आजादी के बीते साठ बरसों में हम किस सीमा तक इन लक्ष्यों को पा सके हैं ? बहुत-कुछ बदल गया है इन बीते बरसों में। देश आगे बढ़ा है। हमने तरक्की भी की है। राजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक मूल्यों में भी ख़ासा बदलाव आया है। इन मूल्यों पर भूमण्डलीकरण (विश्व बाजार) का भी ढांचागत प्रभाव (समावेश हुआ है) पड़ा है। आर्थिक व सामाजिक रूप से हम काफी समृद्ध हुए हैं; आम आदमी की बेहतरी के लिये अनेकों योजनाओं एवं परियोजनाओं का निर्माण हुआ है; गांव उन्नति की ओर उन्मुख हुए हैं; वैज्ञानिक व तकनीकी स्तर पर भी काफी उपलब्धियां हासिल की हैं; बावजूद इसके गरीबी, अशिक्षा, बेरोजगारी, भुखमरी, भ्रष्टाचार, असमानता, अराजकता, लाचारी आदि विसंगतियों के मकड़जाल में जकड़ा है आज का भारत। फिर भी, संविधान की मूल भावना अपनी जगह कायम है क्योंकि हमारा लोकतंत्र मजबूत रहा है जिस पर हमें नाज है। जड़ें मजबूत हैं हमारे लोकतंत्र की। लेकिन आंतंकवाद की बढ़ती गतिविधियों, नक्सलवाद की उग्रता और समाज में फैल रहे राजनीतिक अपराधीकरण को देख कर आक्रोश पैदा होता है वहीं इन 60 बरसों में आम आदमी बड़ी तेजी से हाशिए पर खिसकता जा रहा है जो कि बेहद अफसोस और लज्जा का विषय है उस लोकतंत्र के लिए, जो दुनिया में समतामूलक समाज के निर्माण तथा विश्वबन्धुत्व का पाठ पढ़ाने की दुहाई देता रहा है।
आज़ाद भारत
15 अगस्त 1947 को भारत का नियति के साथ मिलन हुआ। तब से लेकर अब तक भारत एक विकासशील देश के रूप में 60 बरस का सफर तय कर चुका है। इन 60 बरसों के अंतराल में भारत ने कई उतार-चढ़ाव देखे हैं। साठ के दशक के पूर्वार्द्ध में भुखमरी से निजात पाने के लिए आयातित अमरीका के मोटे लाल गेहूं पीएल 480 के माध्यम से हरित क्रांति हुई और अन्य देशों को अन्न निर्यात करने की मजबूत स्थिति में आया भारत। भारत में ब्लैक एंड व्हाइट टीवी तब आया जब इंदिरा जी सूचना प्रसारण मंत्री बनीं। उससे पहले पूरा भारत रेडियो पर निर्भर था। अखबार, पत्र-पत्रिकाएं बेहद कम थीं। 1980 में एशियाड के फलस्वरूप रंगीन टीवी की भारत में मांग बढ़ी। सन्् 2020 तक भारत को विकसित देशों की कतार में खड़ा करने का मानस बनाया गया है। लेकिन विश्लेषण करने पर कई मरतबा यही लगता है कि स्वराज तो मिला मगर असली आजादी नहीं। शायद आज़ादी के कर्णधार; जिन्होंने जान की बाजी लगाकर देश को आज़ादी दिलवाई वे भी ठगे गये इसी स्वराज शब्द के भ्रम से।

वैश्वीकरण के इस दौर में भारत पूंजी आधारित अर्थव्यवस्था की ओर मुड़ चला है। साठ के दशक में ज्यादातर गांवों में बसने वाला भारत आज तकरीबन 40 फीसदी शहरों में जा बसा है। देश के विकास में खेती और किसान की भूमिका स्थितप्रज्ञ सी हो चली है। आज उद्योग और सेवा क्षेत्र का बोलबाला है। आंतरिक आतंक के रूप में देश ने पंजाब का पाठ पढ़ा। उसके बाद कश्मीर और उत्तर-पूर्वी राज्य आतंकवादी गतिविधियों से जूझ रहे हैं। देश के मध्य-पूर्व हिस्सों में नक्सलवाद ने अपनी अलग आवाज उठाई है, बावजूद इसके भारत दुनिया के दृश्य पटल पर लोकतंत्र के झण्डे के साथ मजबूती से टिका हुआ है।
भारत की अपनी विशुद्ध सांस्कृतिक और सामाजिक परंपराएं हैं। पश्चिमी सभ्यता का प्रभाव इनको तोड़-मरोड़ भी रहा है। तकनीकी विस्तार हुआ है। आज घर-घर में रंगीन टीवी है। मोबाइल का प्रचलन अधिक हो गया है। अब एनिमेशन इंडस्ट्री का बोलबाला है। आईटी के कई फायदे हैं। विकास को सही दिशा में ले जाने के लिए इसका भी फायदा लेना होगा। भारत को विकास के पथ पर ले जाना है तो इन सब पर भी निगाह रखनी होगी। नई तकनीकें भी आत्मसात करनी होंगी और स्वयं की विशेषताओं को भी संजोकर रखना होगा तथा सर्वजन हिताय के मूलमंत्र को ध्यान में रखना होगा।
20वीं शताब्दी का भारत
20वीं शताब्दी भारत में सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक परिवर्तनों की शताब्दी रही। जातिप्रथा, जो अस्पृश्यता की अमानवीयता से ग्रसित थी, का बंधन काफी हद तक शिथिल हो गया। गांवों देहातों में दलितों, पिछड़ी जातियों को सताया जाना अब उतना आसान नहीं रह गया है। एक तो उनके हित में विशेष कानून बनाए गए हैं, दूसरा उनकी राजनैतिक हैसियत भी बढ़ी है। राजनीतिक परिदृश्य पर हाशिये के वर्गों ने मजबूत पकड़ स्थापित कर ली है और आज वे किसी भी सत्ता-समीकरण को गंभीर रूप से प्रभावित करने और अपने पक्ष में मोड़ सकने में सक्षम हैं। स्वास्थ्य और शिक्षा सुविधाओं तक आम जनता की पहुंच बढ़ी जरूर है लेकिन अभी भी नाकाफी है। इन सब के बावजूद शोषण बदस्तूर जारी है। केवल शोषण-तंत्र का स्वरूप बदल गया है, शोषकों के चेहरे बदल गए हैं और उन्होंने नए मुखौटे लगा लिए हैं। आर्थिक विषमता बढ़ रही है और जो लोग आर्थिक रूप से कमजोर हैं वे ही शोषण  के मुख्य शिकार हो रहे हैं। यानि कि शोषण का आधार अब मुख्यतः आर्थिक हो गया है।
भूमंडलीकरण और नई आर्थिक नीति के दुष्परिणाम सामने आने लगे हैं और ज्यों-ज्यों लोग इसके दंश को महसूस करेंगे, उनकी पीड़ा मुखर होने लगेगी। कर्ज़ के दंश से पीड़ित किसानों की आत्महत्याएं, लगातार बंद हो रहे लघु एवं कुटीर उद्योगों के बेरोजगार मजदूरों की हताशा, श्रम कानूनों के दायरे से बाहर काम करने वाले कॉल सेंटरों में रात-दिन शोषण का शिकार हो रहे सायबर कुलियों की भूमिका निभाने वाले युवाओं की कुंठा आने वाले वर्षों में इतना घातक और विकराल रूप ले लेगी कि उसको नियंत्रित कर पाना नामुमकिन हो जाएगा। सट्टेबाजी पर आधारित शेयर-मुद्रा बाजार और अस्थिर अल्पावधि वाली विदेशी पूंजी निवेश के बलबूते किसी मजबूत अर्थव्यवस्था की उम्मीद लंबे समय तक बरकरार नहीं रह सकती। विदेशी ऋण के अंबार और बढ़ते व्यापार घाटे को देखते हुए स्थिति में सुधार आने की संभावना अत्यंत क्षीण है। पेटेंट कानून में परिवर्तन और विश्व व्यापार संगठन के प्रावधानों के दायरे में कृषि क्षेत्र और श्रम मानकों से जुड़ी नई आर्थिक नीति को आगे बढ़ाना आत्मघाती कदम साबित हो रहा है। खाद्य मामलों में हमारी आत्मनिर्भरता खतरे में पड़ चुकी है। बेतहाशा मूल्य-वृद्धि और आवश्यक वस्व्तुओं की उपलब्धता में कमी ने आम जनता का जीवन दूभर कर दिया है। हालाँंकि आंकड़ों की बाजीगरी में माहिर लोग अपना खेल दिखाकर भ्रम खड़ा करने की पूरी कोशिश करते रहते हैं। लेकिन देश के आम आदमी की हालत बद-से-बदतर होती जा रही है। जाहिर है कि इसकी प्रतिक्रिया में आने वाले वर्षों में तीव्र जन-प्रतिरोध अवश्य उभरेगा और वह इतना स्वतःस्फूर्त एवं चतुर्दिक होगा कि सत्ताधारी वर्ग की नीद हराम हो जाएगी।
नव-साम्राज्यवादी शक्तियों और उनके देशी पिट्ठुओं को भी आसन्न खतरे की आशंका है। देश में लोकतांत्रिक संस्थाओं के विकास और मीडिया की बढ़ती सक्रियता के फलस्वरूप देश में जनचेतना और जन-अपेक्षाओं में काफी वृद्धि हुई है। यही वजह है कि पिछले कुछ वर्षों में लोकतांत्रिक संस्थाओं को कमजोर करने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने की सुनियोजित कोशिशें हो रही हैं। दरअसल भूमंडलीकरण के चलते सबसे बड़ा खतरा लोकतंत्र को ही है। इसके लिए सबसे खतरनाक हैं प्रेस और मीडिया के बड़े वर्ग का नव-उपनिवेशवादी बाजारवादी शक्तियों के साथ साँठ-गाँठ कर लेना, जो आम जनता को उनके हित से जुड़े वास्तविक मुद्दों और शोषण की हकीकत से दूर करके निष्क्रिय मनोरंजन और उपभोक्तावादी संस्कृति के मोहजाल में फंसाकर प्रतिरोध और क्रांति की चिंगारी को कुंद कर देने की कुटिल कोशिश में जुट गया है।
जिस समाज में आज हम रह रहे हैं वह समाज तमाम विशेषताओं तथा विभिन्नताओं को अपने में समेटे हुए है। आज की स्थिति में पहुंचने तक हमारा समाज विभिन्न प्रकार की प्रक्रियाओं से गुजरा है, जिसके पीछे तमाम सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक कारक रहे हैं। विकास की इन प्रक्रियाओं/जटिलताओं में समाज का कुछ हिस्सा सबसे आगे बढ़ गया और शेष सबसे पीछे रह गया, अर्थात् अमीर और अमीर, गरीब और गरीब; यह अन्तर स्पष्टतः दिखता है जो हमारे समाज में भी विकसित और अविकसित समुदायों के रूप में विराजमान है।
निजीकरण एवं अति-मुनाफावाद का ग्रहण
दुनिया को महज एक बाजार मानने के चलते आज हमारे समाज में निजीकरण की प्रवृत्ति तेजी के साथ बढ़ी है। निजीकरण समाज में पहले भी था परंतु उसका व्यावसायीकरण इस रूप में नहीं था जैसा कि आज दिखाई पड़ रहा है। बाजार में राज्य की भूमिका लगातार घटती जा रही है, उत्पादों की गुणवत्ता तथा मूल्य निर्धारण पर राज्य की भूमिका नगण्य सी होती जा रही है। बाजारी ताकतों ने जीने के मूल आधार- पीने के पानी, शिक्षा, स्वास्थ्य तक का निजीकरण एवं व्यावसायीकरण कर डाला है। अति-मुनाफा केन्द्रित अर्थव्यवस्था ने जीवन की दिक्कतों में और बढ़ोत्तरी की है। फलतः बेकारी, भुखमरी तथा अपराध बढ़े हैं। अति-मुनाफे की चाहत के चलते प्राकृतिक संपदाओं तथा वन संपदाओं के दोहन से पर्यावरण असंतुलन तथा प्रदूषण बढ़ा है, पानी तथा हवा तक सुरक्षित नहीं रही, अस्तु हमारा जीवन संकटग्रस्त है। सामाजिक समरसता के  माध्यम- ताल-तलैया, झरने, कुएं; बाग-बगीचे, चरागाह, दुधारू जानवर, तालाबों की मछली, चौपाल लगना, सामूहिक गान, लोकगीत आदि प्रायः लुप्त हो चुके हैं, साथ ही सामूहिक विचार-विमर्श की प्रक्रिया भी लगभग समाप्त हो चुकी है। स्थिति की भयावहता का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि जंगल, झरनों और नदियों  के बीच बसने वाला आदिवासी समाज आज पीने के स्वच्छ पानी को मोहताज है। गंगा और यमुना के उद्गम स्थल के वासी पानी के लिए तरसने लगे हैं। समुदाय के पास जो थोड़ी बहुत सामूहिक संपदा थी वह भी समाप्त हो गयी या दबंगों के कब्जे में है। औषधि के लिए इस्तेमाल होने वाली जड़ी-बूटियां नदारद हो चुकी हैं। आज भी जमीनों पर कुछ ही लोगों का कब्जा है तथा जो जमीन को जोतते-बोते हैं उनसे जमीनें दूर हैं। आज वे नदियां ही बेची जा रही हैं जिनकी हम पूजा करते थे।
यद्यपि भारतीय अर्थव्यवस्था फिलहाल विकास के जिस दौर में है उससें जमीनी परिणाम हासिल करने तथा पूरी चुस्ती और सख्ती से उन्हें अमल में उतारने की पहल लेने तथा पूरी ईमानदारी से उन्हें अमल में उतारने की जरूरत और गुंजाइश, दोनों मौजूद हैं।
भ्रष्टाचार एक चुनौती
सबसे जटिल सवाल यह है कि जनता की गाढ़ी कमाई पर घात लगाने वाले उन डकैतों से कैसे निबटा जाए जो सचिवालय में बैठे हैं या ख़ाकी वर्दी पहनकर अधिकारों का दुरूपयोग कर रहे हैं ? मुझे लगता है कि आज देश के सामने सबसे बड़ी समस्या भ्रष्टाचार की है। अगर गंभीरता से देखा जाए तो भ्रष्टाचार एक ऐसी कड़ी बनाता है जो सब समस्याओं को पिरोती है। जम्मू-कश्मीर और पूर्वोत्तर क्षेत्रों में भ्रष्टाचार एक विकराल रूप धारण कर चुका है। इन दोनों ही क्षेत्रों में ऐसे वर्ग हैं जो आतंकवाद से उत्पन्न परिस्थितियों का लाभ उठाकर अपनी जेबें भर रहे हैं। केंद्र सरकार आर्थिक विकास के लिए कश्मीर और पूर्वोत्तर में पानी की तरह पैसा बहा रही है। इस धनराशि का बहुत बड़ा भाग बेईमान नेताओं, भ्रष्ट अफसरों ओर बदनीयत ठेकेदारों के कोष में जा रहा है। दूसरे राज्यों में भ्ीा स्थिति बहुत अलग नहीं है।
गांव और प्रकृति
बात की जा रही है गांवों और प्रकृति पर संकट की, परंतु गांवों और शहरों में प्रकृति के साथ जो छेड़छाड़ का खेल खेला जा रहा है उस पर बिल्कुल ध्यान नहीं जा रहा है। केंद्र सरकार ने बाघ अभयारण्यों के निकट बसे डेढ़ हजार गांवों को हटाने का फैसला लिया है। सरकार इन गांव वालों का पुनर्वास करेगी और इस पर करीब चार हजार करोड़ रुपये खर्च करेगी। यहां विचारणीय है कि इससे पहिले जिन विभिन्न परियोजनाओं के नाम पर जिन गांवों को उजाड़ा गया है, उनकी आबादी को नए सिरे से बसाने के लिए वास्तव में क्या किया गया। उदाहरण के तौर पर हम नर्मदा परियोजना को ले सकते हैं। बस, फिर से वही खेल; पूर्व की भांति ही इन डेड़ हजार गांवों को उजाढ़ कर उनकी आबादी को नौकरशाही के रहमोकरम पर छोड़ दिया जाएगा।
कृषि क्षेत्र में व्यावसायिक पूंजी के प्रवेश के कारण बढ़ते दबाव को न झेल पाने और कृषि भूमि का औद्योगिक व व्यावसायिक संस्थानों की ओर से अधिग्रहण किसानों की दुर्दशा का मुख्य कारण बन रहा है।
इसी तरह नवीनतम रासायनिक खादों, बीजों, कीटनाशकों और यहां तक कि पौध प्रजातियों तक के मामले में कोई सावधानी भारत सरकार की ओर से नहीं बरती जाती है। इनसे किसानों का परिचय कराकर फिर सब कुछ भगवान भरोसे छोड़ दिया जाता है। यह तक सोचने की जरूरत नहीं समझी जाती है कि नई फसल प्रजाति भारतीय पारिस्थितिकी के अनुकूल भी होगी या यहां की प्रकृति को नुकसान पहुंचाएगी। यह काम किसानों का नहीं वैज्ञानिकों का है जो कि अपनी जिम्मेदारी का ठीक से निर्वाह नहीं कर रहे हैं।
कहीं हम अपनी स्वाधीनता को इस उल्लास से कि हम ‘‘मॉडर्न’’ हो गये हैं, भुनाने का प्रयास तो नहीं कर रहे हैं.......? आज हम स्वतंत्र जरूर हैं .... लेकिन स्वाधीन (स्व $ आधीन) नहीं हो पाये हैं। जिस स्वतंत्रता की बात बारंबार की जा रही है वो तो मात्र वैयक्तिक स्वतंत्रता से ज्यादा कुछ भी नहीं है। जबकि स्वाधीन होने का असली मतलब है कि हम देश की भलाई के निर्णय खुद ले सकें।
आज़ादी के 60 बरसों बाद भी हमारा एक वोट भले ही बन गया हो लेकिन हमारे जीवन को आज भी सही ‘आकलन (मूल्य)’ नहीं मिल पाया है। जाति आधारित भारतीय समाज की नैतिक बुनियाद और वहां बनाए जा रहे कानूनी विधान के बीच व्याप्त इसी अंतराल की ओर डॉ. अम्बेडकर ने संविधान सभा की आखिरी बैठक में दिये गये अपने भाषण में कहा था- ‘‘हम लोग अंतर्विरोधों की एक नयी दुनिया में प्रवेश कर रहे हैं। राजीनति में हम समान होंगे और सामाजिक आर्थिक जीवन में हम लोग असमानता का सामना करेंगे। राजनीति में हम एक व्यक्ति-एक वोट, और एक व्यक्ति-मूल्य के सिद्धांत को स्वीकार करेंगे, लेकिन हमारे सामाजिक-राजनीतिक जीवन में, हमारे मौजूदा सामाजिक आर्थिक ढांचे के चलते हम लोग एक व्यक्ति-एक मूल्य के सिद्धांत को हमेशा खारिज करेंगे। कितने दिनों तक हम अंतर्विरोधों का यह जीवन जी सकते हैं ?’’, जो बदलने का नाम ही नहीं ले रहा है।
अदालतें आदमी की आखिरी उम्मीद होती हैं, यह भारत के न्यायालयों में दर्ज़ करोड़ों मामलों से स्पष्ट है लेकिन इस उम्मीद के इतर सच्चाई कुछ और ही नजर आने लगी है। वकीलों ने इंसाफ दिलवाने के बजाय इंसाफ को पैसे कमाने के खेल में बदल डाला है। अक्सर यह भी देखने में आया है कि जांच एजेंसियां मजबूत आदमी का ही पक्ष लेती हैं। इससे स्पष्ट है कि आम आदमी न्याय के क्षेत्र में भी असहाय है। ऐसे में संविधान में सामाजिक-आर्थिक- राजनैतिक स्तर पर जिस न्याय की बात की गयी है वह मात्र छलावा लगती है। बावजूद इसके न्यायपालिका इस देश के लोकतंत्र की एक अहम कड़ी है। पिछले कुछ दिनों में कुछ खास मामलों में इस कड़ी ने उम्मीद की किरण बिखेरी है, यह शुभ संकेत है।
कई मरतबा लगता है कि राजनैतिक पक्ष कमजोर पड़ता जा रहा है और न्याय प्रक्रिया ज्यादा प्रभावी होती जा रही है। इससे कुछ उम्मीद जरूर जगती है, परन्तु न्यायिक पक्ष के निष्पक्ष रह पाने पर प्रश्नचिन्ह लगते रहे हैं। यह सत्य है कि जब लोकतंत्र के तीनों अंग (विधायिका-न्यायपालिका-कार्यपालिका) अपने-अपने क्षेत्र में निष्पक्ष रूप से काम करते हुए अपनी-अपनी भूमिका का ईमानदारी और सत्यनिष्ठा के साथ निर्वाह करेंगे तो लोकतंत्र भी ताकतवर होगा और तभी वे गरीब के झोपड़ों से लेकर सत्ता के महलों तक न्याय, स्वतन्त्रता, समानता की रक्षा करते हुए उनमें बन्धुत्व का भाव पैदा कर सकेंगे। लेकिन जिस लोकतंत्र में कुछ पक्ष कमजोर पड़ जायें और कुछ ज्यादा मजबूत हो जायें तो वहां असन्तुलन के चलते शार्ट सर्किट होने का ख़तरा बना रहता है।
आर्थिक उतार-चढ़ाव
भारतीय अर्थव्यवस्था को पिछले 60 बरस में इस मुकाम तक पहुंचने में अनेक उतार-चढ़ावों से गुजरना पड़ा। 1991 में उरारीकरण और आर्थिक सुधार नीति लागू होने के बाद भारत में बहुत तेजी से आर्थिक प्रगति हुई और भारत एक महाशक्ति के रूप में उभर रहा है। एक रिपोर्ट के अनुसार भारतीय अर्थव्यवस्था चीन के बाद दुनिया में सबसे आगे है। तेज आर्थिक विकास की रफ्तार के बावजूद भारत की 26 फीसदी आबादी आज भी गरीबी रेखा से नीचे गुजर-बसर कर रही है। आज भी भारत की 65 फीसदी आबादी खेती-किसानी पर निर्भर है। बहुराष्ट्रीय कंपनियां धडल्ले से हिन्दुस्तान में निवेश कर रही हैं। शायद इससे यहां के लोगों की आर्थिक स्थ्ािित कुछ सुधर सके। परन्तु नष्ट होते देशी कुटीर-लघु उद्योगों और खस्ताहाल हो चुके अथवा बन्द होने की कगार पर खड़े बड़े उद्योगों पर ध्यान न दिये जाने की वजह से यहां की बुनियादी अर्थव्यवस्था के डांवाडोल होने का खतरा पैदा होता जा रहा है जो निकट भविष्य में हिन्दुस्तान की सेहत के लिए फायदेमन्द नहीं होगा।
अल्पसंख्यकों की दशा-
कुछ मायनों में अल्पसंख्यकों की दशा में सुधार हुआ है, अलबत्ता आज भी अल्पवंख्यक कमोबेश वहीं खड़े हैं जहां पर आजादी और बंटवारे के समय थे। हुकूमतों की ओर से ज़बानी बयानों और कोरे सब्ज़बागों के सहारे वोटों की राजनीति के लिए इन्हें इस्तेमाल किया जाता रहा है, वरना उनकी निरन्तर उपेक्षा ही होती रही है, यह सिलसिला आज भी जारी है। अगर अल्पसंख्यकों को भी देश की मुख्यधारा में लाकर उनके साथ अन्य देशवासियों जैसा ही व्यवहार किया जाता तो वे इतनी खराब स्थिति में नहीं होते। साथ ही 1984 का सिखों का कत्लेआम, गोधराकाण्ड और बाबरी विध्वंस, ईसाई मिशनरियों पर हमले तथा विरोध और फिर हत्याएं जैसे जघन्य अपराध पराकाष्ठा की भेंट नहीं चढ़ते।

- अहिवरन सिंह, दिसंबर 2007 

पटरी से उतरती पंचायती राज व्यवस्था की रेल



भला हो महात्मा गांधी का जिन्होंने किसी सुनहरे पल में देश में पंचायती राज व्यवस्था की बात सोची। गांव में तमाम तरह की विषम परिस्थतियों को भोगते-ग्रास बनते निरीह जीवन बिताते लोगों की ज़िंदगी को खुशहाल बनाने की तमन्ना जो थी उनके मन में। मानुष से इंसान बनाने की ख्वाहिश के तहत ही गांधी जी की आत्मा ने उन्हें आत्मबोध कराया होगा कि काश निचले स्तर पर असली ताकत का संचार हो तो सारी व्यवस्था सुचारू ढंग से स्वतः संचालित होने लगेगी। पूरी तरह से संतुलन बनेगा, लोगों को न्याय मिलेगा, भूखे को भोजन और नंगे को कपड़ा। छुआछूत और ऊँच-नीच की खाई पट सकेगी। सामाजिक-आर्थिक स्तर समान होगा।
देश में सम्पन्न हुए पंचायत चुनावों में महिलाओं ने जिस तरह पर्दा और चहारदीवारी से निकल कर बढ़-चढ़ कर भागीदारी निभाई है उससे यह तो साबित ही हो गया है कि महिलाएं भी अब अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हुई हैं, उनमें आत्मविश्वास बढ़ा है और नए साहस से लवरेज नजर आने लगी हैं। उनमें अपार ऊर्जा का संचार हुआ है। पंचायत चुनावों में चयनित महिलाएं अब पुरुषों पर निर्भर नहीं रहना चाहती हैं। वे आत्मविश्वास के साथ अपने सभी कामों को स्वयं अपने बलबूते पर करना चाहती हैं। साथ ही वे अपने काम का आकलन भी जरूरी समझती हैं। आरक्षण की बिना पर ही महिलाएं पंचायत चुनावों में नए कीर्तिमान के साथ उभर कर आई हैं। यद्यपि प्रत्येक चुनाव की तरह ही इन चुनावों में भी धन की भूमिका काफी अहम रही फिर भी पैसे के अभाव में भी चुनाव जीतने के कीर्तिमान स्थापित हुए हैं। बिहार के कटिहार जिले के बलरामपुर ब्लॉक में कीरोरा पंचायत में एक भिखारिन हलीमा खातून मुखिया निर्वाचित हो गई हैं। इसी प्रकार पूर्णिया जिले में भी चाय का ठेला लगाने वाली शांति देवी भी पंचायत सदस्य चुनी गई हैं।
प्रायः सभी राज्यों में जिला स्तर पर मुख्यतः दो तरह की योजनाओं के माध्यम से काम होता है- एक, जिला विकास योजना, जो जिला विकास निधि से चलाई जाती है; और दूसरे, सांसद विकास योजना, जो सांसद विकास निधि से चलाई जाती है। ग्रामीण क्षेत्रों में कार्य कर रहे लोगों, समाचार-पत्रों, पत्र-पत्रिकाओं और मीडिया के माध्यम से मिल रही जानकारी के मुताबिक अपवाद स्वरूप कुछ मामलों को छोड़कर - जिला स्तर पर चलाई जा रही सभी विकास योजनाओं-परियोजनाओं के मामले में जिलाधिकारी को तीन फीसदी, दो से तीन फीसदी तक अन्य बिचौलियों- योजना के प्रभारियों या उनके कार्यालयों को, और ब्लॉक/प्रखंड स्तर पर बीडीओ को पांच फीसदी की राशि योजना को जिले में प्रशासनिक स्वीकृति के लिए भेजने और राशि स्वीकृत हो जाने पर चेक काटने के लिए रिश्वत के रूप में देनी होती है। सीईओ (जिला) भी लगभग तीन फीसदी लेता है।
इसके बाद विकास योजना को अमली जामा पहनाते समय तकनीकी मशीनरी की जरूरत होती है। यह वह दस्ता है जिसकी सही मायने में विकास योजना को मूर्त रूप प्रदान करने में अहम भूमिका होती है। अतः जिला अभियंता का तीन फीसद और अवर अभियंता का पांच फीसद भी तयशुदा ही रहता है।
इस प्रकार योजना राशि का लगभग 25 फीसदी हिस्सा बिचौलियों के हाथ से निकलर कर जनता के प्रत्यक्ष नेतृत्त्वकर्ता अर्थात् सरपंच के हाथ तक पहुंचते-पहुंचते खर्च हो चुका होता है। इस दौरान स्वीकृति से लेकर चेक मिलने तक की प्रक्रिया के दौरान सरपंच का यात्रा भत्ता का मीटर भी विकास योजना की गति से तीव्र गति से चल रहा होता है। अतः लगभग 10 फीसदी उनके यात्रा भत्ते में खर्च हो चुका होता है। अब जब सबने अपना मुंह सिरसा की तरह खोल दिया होता है तो सरपंच महाराज ही क्यों पीछे रहें, उनका तो शेष पूंजी पर पूरा हक सा ही बनता है, और फिर वे सभी देवी-देवालयों में उनका हिस्सा दे चुके होते हैं, अब बारी आती है क्षेत्रीय अभिकर्ता और सरपंच की सो वे ही क्यों पीछे रह जायें। अतः वे भी लगभग 15 से 20 फीसद राशि अपनी जेब खर्च के लिए तो निकाल ही लेते हैं।
इसके साथ ही स्थानीय दबंग अथवा रंगबाजों को भी लगभग 10 से 15 फीसदी खिलाना पड़ता है, क्योंकि क्षेत्र में काम करना है अथवा नहीं और फिर अगली बार जीत का जिम्मा इन्हीं ने लिया हुआ होता है। अब तक लगभग 50 फीसदी राशि खर्च हो चुकी होती है।
ग्राम पंचायतों में ग्राम प्रधानों व सेक्रेेटरियों की पौ-बारह है। ग्राम पंचायतों में हो रही धांधलियों पर शिकायत के बावजूद मिलीभगत के चलते प्रशासन द्वारा कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा है, जिसकी वजह से ग्राम प्रधान सेक्रेटरी के साथ मिल कर अपनी मनमानी कर रहे हैं। देश की तमाम ग्राम पंचायतों से विधवा पेंशन, रोजगार गारंटी योजना के जॉबकार्ड, मिड-डे मील वितरण तथा बीपीएल राशनकार्ड बनाने के तौरतरीकों में हो रही धांधलियों की शिकायत आने के बावजूद उनके निस्तारण पर कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा है। कुछ ऐसे संकेत मिले हैं कि तमाम जगह तो दंबगई और चौधराहट के चलते ग्राम प्रधान और सेक्रेटरियों की शिकायत करने का साहस तक नहीं जुटा पा रहे हैं। अगर कोई शिकायत करता भी है तो उनकी शिकायत को तरजीह देने के बजाय टरकाऊ भाषा-शैली के बल पर टाल दिया जाता है। लिहाजा, लोगों को मुँह की खानी पड़ती है।
गोवा के चोडन मड्डेल ग्राम पंचायत के हताश सरपंच शंकर चोडंकर ने पंचायत सचिव पर असहयोग करने का आरोप लगाते हुए अपने पद से इस्तीफा दे दिया। पंचायत निदेशक को सौंपे अपने त्याग पत्र में उसने बताया कि पंचायत सचिव ने न केवल अपनी जिम्मेदारियों को पूरा नहीं किया बल्कि गांव के विकास कार्य को भी रोकने की कोशिश की। सरपंच के अनुसार, ‘‘हमने बार-बार पंचायती राज विभाग को उनका तबादला करने के बारे में कहा, लेकिन इस मामले में कुछ नहीं किया गया।’’ (पं.रा. अप.)।
कर्नाटक के दावणगेरे जिला पंचायत में अध्यापकों के तबादलों में हुई अनियमितताओं की जांच के लिए बनी जांच समिति के अध्यक्ष वाई. रामप्पा ने बताया कि जिले में अध्यापकों के तबादलों को लेकर डीडीपीई ने नियमों का उल्लंघन किया है। यह भी आरोप है कि अध्यापकों ने स्थानांतरण आदेश प्राप्त करने के लिए 30 से लेकर 50 हजार रुपये तक की घंस दी। साथ ही छात्रावासों में अनाज की सप्लाई करने वाली एजेंसियों द्वारा घटिया किस्म का अनाज; जो खाने लायक नहीं होता है; का मामला भी उभर कर आया है। (पं.रा. अप.)।
इसी प्रकार पंचायतों के माध्यम से चलाई जा रही अनेक योजनाओं; जैसे रोजगार गारंटी योजना सरीखी योजनाओं में भी फर्जीवाड़ा बड़े स्तर पर चल रहा है। ज्यादातर राज्यों में पंचायत कर्मचारियों का अभाव है साथ ही योजनाओं के लिए स्वीकृत फन्ड को रिलीज कराने में तमाम कठिनाइयों  का सामना करना पड़ रहा है। तमाम पंचायतों में पटवारी पंचायत में ही नहीं आते हैं। वे अपना कोई खास अड्डा बना लेते हैं, लोगों को अगर उनकी जरूरत होती है पटवारी के चक्कर काटने होते हैं। ऐसा ही राजस्थान के बाड़मेर जिले की ग्राम पंचायत राणासर कला के किसानों के साथ भी हुआ। हुआ यों कि बेमौसम की बरसात एवं ओला वृष्टि से किसानों की खड़ी फसल बर्बाद हो गयी। कुछ राहत पाने के लिए किसानों ने मुआवजा पाने की दृष्टि से गिरदावरी रिपोर्ट बनवाने के लिए पटवारी को तलाशा; क्योंकि मौके की गिरदावरी रिपोर्ट पटवारी ही बनाता है। उसी रिपोर्ट के आधार पर ही किसानों को मुआवजा मिलता है। किसान उसके घर गये, तहसील गये, पर वह नहीं मिला। बाद में पता चला कि वह तो अपना निजी स्कूल चला रहा है, और उसने अपनी मनमर्जी से गिरदावरी रिपोर्ट बना ली है, जिसकी वजह से अनेक गरीब किसान मुआवजा पाने से वंचित रह गये। इसी तरह अन्य पंचायत कार्मी भी मौके से या तो गायब रहते हैं या फिर अपनी मनमर्जी से ही आते हैं, वो भी नियमित नहीं। तमाम जगह पंचायत सरपंचों एवं ग्राम प्रधानों की धांधलियां भी उजागर हुई हैं। राजस्थान के सिरोही जिले के ग्राम बूजा में बंजारा फली से वीराफली तक हो रहे सड़क निर्माण कार्य पर मस्टररोल में दर्ज 100 मजदूरों में से 35 मजदूर अनुपस्थित पाये गये। साथ ही कई जगह मजदूरी के लिए दिए जाने वाले पारिश्रमिक में अंतर देखने को मिला। इसी जिले की आमथला ग्राम पंचायत के सरपंच की पत्नी की हाजिरी भरने के बावजूद उनके काम पर नहीं आने की शिकायतें मिलीं।
आंध्र प्रदेश के अनन्तपुर जिले के नरपला पंचायत की सरपंच एन स्वातिलता रेड्डी के अनुसार ‘‘मैं जब सरपंच चुनी गयी तो मैं सोचती थी कि मैं अपने गांव के लिए बहुत-कुछ करूँगी लेकिन जल्दी ही पता चल गया कि मैं बहुत कुछ नहीं कर सकती। लोगों की महत्वाकांक्षाएं बहुत अधिक हैं लेकिन सरपंच के अधिकार बहुत सीमित हैं।’’ (डाउन टू अर्थ से)। साथ ही उन्होंने बताया कि सोलह हजार की जनसंख्या वाली पंचायत से उनको सरपंच चुने हुए तीन महीने हो गए थे। उनके अनुसार हमारी ड्यूटी रोज सुबह 6.30 बजे से शुरू हो जाती है। सुबह जल्दी ही लोग, खासकर महिलाएं मेरे निवास पर पीने के पानी और झील की सफाई, राशनकार्ड और अन्य पेंशन इत्यादि विभिन्न तरह के कामों के लिए मुझसे मिलने हेतु मेरे निवास पर आने लगती हैं लेकिन पंचायत ऑफिस 10.30 बजे से प्रारंभ होता है। वह बताती है कि वह स्कूल एजूकेशन कमेटी, प्राइमरी हेल्थ सेंटर एडवाइजरी बोडी, विलेज वाटरशेड कमेटी, ज्वाइन्ट फोरेस्ट मेनेजमेंट बोडी तथा ग्रामसभा की सदस्या हैं, इन सबके काम वे ठीक से पूरे करती हैं। पंचायत के माध्यम से चलाई जा रही विभिन्न योजनाओं में शिरकत करने में लगभग 200 दिन लग जाते हैं। महीने में चार बार मंडल और जिला परिषद कार्यालय जाती हूं। सरपंच रेड्डी महसूस करती हैं कि  दिन का ज्यादातर समय फन्ड को रिलीज कराने और बकाया फन्ड को भिजवाने की पहल के लिए अधिकारियों से मिलने-मिलाने में ही निकल जाता है। इस सबके लिए उन्हें मात्र 600 रुपये मासिक भत्ता मिलता है जबकि सरकारी कर्मचारी श्रीनिवास जो नरपला पंचायत सेक्रेटरी हैं उन्हें 14,000 रुपये मासिक वेतन मिलता है। महिला सरपंच रेड्डी का कहना है कि वे सीधे जनता के लिए काम करती हैं जबकि सेक्रेटरी श्रीनिवास, महिला सरपंच रेड्डी के लिए काम करते हैं लेकिन उनका वेतन सीधे राज्य सरकार से आता है वह भी मोटी रकम के रूप में जबकिं सरपंच रेड्डी को बेहद कम भत्ता मिलता है। इस बात से वे बेहद खिन्न हैं। यह सवाल केवल सरपंच रेड्डी ने ही नहीं उठाया है वरन् देश की अन्य पंचायतों से भी इस तरह का सवाल उठाया जा रहा है। उठे भी क्यों नहीं, क्योंकि बहुत-कुछ सीमा तक ग्राम पंचायत की योजनाओं की सफलता और असफलता में अहम भूमिका और जिम्मेदारी कुल मिलाकर सरपंच या पंचायत के अन्य अवैतनिक नियुक्त पदधारियों की ही होती है। बावजूद इसके लिए उन्हें नाममात्र का भत्ता ही मिलता है, दूसरी ओर मोटी रकम वेतन के रूप में पाने वाले सरकारी कर्मियों की कोई खास जिम्मेदारी भी नहीं होती है। ऊपर से सरकारी कर्मी चढ़ावा का प्रतिशत मांगते हैं, सो अलग।
पंचायत चुनावों में नवनिर्वाचित महिलाएं यद्यपि पूरी तरह से ऊर्जान्वित हैं। अब देखना यह है कि रचनात्मक रूप में इस ऊर्जा का किस हद तक उपयोग हो पाता है; क्योंकि क्षेत्र पंचायत में काम करने के दौरान नई-नई कठिनाईयों एवं बाधाओं से जूझना पड़ेगा, वह भी ऐसे हालात में जब पंचायत चुनावों में निर्वाचित व्यक्तियां में जन सेवा करने का भाव गायब होता जा रहा हो और चौधराहट दिखाने की भावना बल पकड़ती जा रही हो।
भारत में पंचायती राज संस्थाएं साधारण लोगों की उनके अपने शासन में भागीदारी को और ज्यादा बढ़ाने की नीयत से केन्द्र सरकार की शक्तियों को विकेन्द्रित करने का देश में विकसित किया गया एक प्रयास है। प्रयास तो अच्छा है, पर इसको प्रभावी बनाने तथा पूरी तरह सफल बनाने की राह में तमाम रोड़े हैं। भारत की पूर्ण प्रगति की राह में सबसे बड़ी बाधा अशिक्षा है। साथ ही भ्रष्टाचार, जातिवाद, खराब प्रशासन की भी अहम भूमिका है। पंच, सरपंचों में उनके और सरकारी पंचायत कर्मियों के वेतन के बड़े अंतर तथा उनकी कार्य शैली के प्रति दिन-प्रतिदिन असंतोष बढ़ता जा रहा है। यदि समय रहते इस पर ध्यान नहीं दिया गया तो निकट भविष्य में स्थिति नियंत्रण से बाहर हो सकती है। ऐसे में विकास की सारी योजनाएं मात्र कागजी दस्तावेज बन कर ही रह जाएंगी।

- अहिवरन सिंह, नामाबर मार्च 2007

‘आम जन’: मुट्ठीभर लोगों के हाथ की कठपुतली


हमारी आजादी के लड़ाकों- तिलक, गांधी, भगत सिंह, द्वारा भारतीय जन, जिनमें ग़रीब, दलित, पीड़ित तथा औरतों वाला असली भारत शामिल है उनकी पहचान कर उत्थान किया जाना सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण कार्य माना गया था। सामाजिक सुधार पहले या आजादी की लड़ाई, यह सवाल तो महाराष्ट्र और बंगाल के कतिपय सुधारकों, विचारकों ने बीसवीं सदी के प्रारंभ में उठाया था। इस पर रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने कहा था- ‘हमारी समस्या सामाजिक और सांस्कृतिक है, राजनीतिक नहीं।’ अतः समस्याओं के समाधान राजनीतिक बिना पर कभी नहीं किये जाने चाहिए। जैसा कि हमारे देश की केंद्रीय एवम् राज्य सत्ताओं द्वारा किया जा रहा है। लोकतंत्र तो कुछ मुट्ठीभर लोगों की जन्नत भर है। ऐसे लोग तो ये मान बैठे हैं कि वे पैदा ही हुए हैं, लोकतंत्र रूपी जन्नत का मजा लूटने के लिए; और ग़रीब, दलित, पीड़ित तथा औरतें तो पैदा ही होते हैं प्रताड़ित एवं शोषित होने के लिए। अपनी इसी नियति के चलते वे बेधड़क होकर दोहन करते हैं। जरूरत पड़ने पर संविधान संशोधनों के माध्यम से अपना पक्ष मजबूत करने से भी वे बाज नहीं आते। निजी उद्योग, बसों के परमिट, गैस एजेंसी, पेट्रोल पंप, पांच सितारा होटल, सरकारी ठेके आदि पर तो मानों उनका जन्मसिद्ध अधिकार है। इस मंडली में शामिल हैं- पूंजीपति, राजनेता, सत्तानशीं, माफिया, अपराधी, ताकतवर गुंडे, अभिनेता आदि। इनके अपने निजी नियम-कायदे होते हैं। आज के लोकतंत्र की असली सूरत यही है जहां विज्ञापन ही क्रांति है, सूचना ही विचार है, आभास और भ्रम ही सत्य है। भूमंडलीकरण के चलते वैसे भी आम जन की हालत बद-से-बदतर होती जा रही है। तीव्र गति से सम्पन्नता और विपन्नता की खाई के बढ़ते फासले के चलते समाज में अनेक भयावह विकृतियां जन्म ले चुकी हैं। सब ओर हाहाकार मची हुई है। त्रस्त है आम जन। जैसा पहले से ही होता आ रहा है, पुनश्च, पुनश्च वही दुहराया जा रहा है। रोजगार के अवसर समाप्त किये जा रहे हैं। बड़ी और बहुराष्ट्रीय कंपनियों को बेचे जा रहे हैं सारे संसाधन।
विकास की चकाचौंध के बावजूद आम जन असुरक्षा, अवसाद से ग्रस्त है या फिर राजनीतिक अवसाद से, जिसमें उसका सिर्फ इस्तेमाल होता है। सबसे अधिक रोजगार प्रदाता कृषि क्षेत्र, और अन्नदाता किसान को मुनाफे की फसल वाला लालीपॉप देकर ऐसा फसाया कि वह आत्महत्याएं करने को मजबूर हुआ। बहुराष्ट्रीय कंपनियों को परमिट देते समय हमारे नीति नियामक यह भूल ही गयेे कि विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा तैयार बीज और कीटनाशक तो उनके अपने देश की जलवायु और तापमान के हिसाब से तैयार किये गये हैं अतः हमारे देश की जलवायु और तापमान में वे पूरी तरह कैसे फलीभूत हो सकते हैं। यदि कोई बहुराष्ट्रीय कंपनी हमारे देश में बीज और कीटनाशक तैयार करती भी है तो क्या गारंटी है कि वह बेतहाशा मुनाफा नहीं कमाएगी; क्योंकि वह कंपनी स्थापित ही की गई है ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने के लिए। बेरोजगारी, गरीबी, महंगाई और मिलावट से त्रस्त, कुपोषण और रोगों से करोड़ों-करोड़ पीड़ितों की किसी को सुध नहीं। जो बच रहा है उसे गरीब, पिछड़े इलाके और हाशिए पर धकेल दिए गए निम्न मध्य वर्ग के लोग ही बचाए हुए हैं। वे ही लोकतंत्र के सच्चे प्रहरी हैं। कुछ मुद्दे, सवाल, जिनको लेकर अखबारों में संपादकों और स्तंभकारों ने लगातार चिंता, रोष प्रकट किया है, वे लोकतंत्र के मौजूदा स्वरूप और जनप्रतिनिधियों के आचरण पर कठोर टिप्पणी की तरह हैं। सुरक्षा, भाषा, परंपरा, संस्कृति, सम्मान, जमीन को कॉर्पोरेट कल्चर विस्थापित कर रहा है।
एक किरण चमकी थी सूचना के अधिकार के रूप में आम जन को असलियत जानने की, हक-हकूकों को पाने की मंजिल तक पहुंचने की; परन्तु राजनीति के दलालों ने सत्तानशीं भ्रष्ट लोगों को सुरक्षा कवच पहनाने की दृष्टि से उसमें भी संशोधन की मंशा जाहिर कर दी है। जिन हालातों में सत्ता पलट हुआ और संप्रग गठबन्धन बना, जिसमें वामपंथी भी शामिल हैं, उस परिप्रेक्ष्य में आम जन को कुछ अधिक अपेक्षाएं जगी थीं केंद्रीय सत्ता से। किन्तु जैसा हर बार होता रहा है उसी बिना पर पुनः ठगा गया आम जन, और धरी की धरी रह गयी जनमत संग्रह और जन-कल्याण की गुहार पर तय आस्था। अपनी गरिमा, पहचान, अस्तित्व के लिए सजग एकजुट जनता ही प्रतिकार कर सकती है। विचारों का अकाल नहीं है, बस जरूरत है उन्हें पिरोने की, संकलित करने की, कसौटी पर कसने की और मौका देने की।
ऐसे में इन आम जन को स्वयं ही बनना होगा अपना मसीहा। इस खतरे का मुकाबला सिर्फ बातचीत के बूते संभव नहीं है। तुरन्त जरूरत है एक नये जोश के साथ, सजग, तार्किक जन आंदोलन की।
- अहिवरन सिंह, नामाबर सितंबर 2006

पानी के संकट से उबरना है तो जल प्रबंधन सीखिए

- अहिवरन सिंह, नामाबर अगस्त 2005


लगातार बढ़ती आबादी ने प्राकृतिक संसाधनों पर इतना दबाव डाल दिया है कि हमारे देश में पानी तक के लाले पड़ने लगे हैं। उधर अनजान विकास की अंधी दौड़ ने प्राकृतिक संपदा के अंधाधुंध दोहन पर तो ज़ोर दिया लेकिन इसकी भरपाई पर नहीं। नतीजा सामने है- पानी के लिए सिर फुटव्वल और सीनाजोरी। भूमंडलीकरण के झंडाबरदारों ने सुझाया कि संकट से उबरना है तो बाजारम् शरणं गच्छ। और हमने वही राह पकड़ ली। एक बार भी पलट कर अपने इतिहास पर नज़र नहीं डाली, उस इतिहास पर जिसमें जल प्रबंधन की पुख्ता परंपराएं और व्यवस्थाएं मौजूद हैं। इन्हीं परंपराओं पर रोशनी डालता है यह लेख। (संपादक).
प्रगति के झण्डाबरदार देश सिंचाई के लिए जल प्रबन्धन को बहुत ज्यादा महत्व देते हैं। सिंचाई के लिए नदियों, झरनों, तालाबों आदि के ढलानों पर अवरोध खड़ा करके वर्षा के जल को रोकते हैं, ताकि पहाड़ी क्षेत्रों की भूमि वर्षा के जल को अधिक से अधिक मात्रा में सोख सके। सनद रहे ! जिस तरह से भूमण्डल पर नदियों, झरनों, तालाबों, नालों आदि से जल राशि का बहाव होता है ठीक उसी तरह से पृथ्वी के अंदर भी यही क्रिया जारी रहती है। जितनी अधिक मात्रा में पृथ्वी के अंदरूनी हिस्सों में जल मौजूद होगा उसी अनुपात में पृथ्वी की ऊपरी सतह पर जल उपलब्ध कराया जा सकेगा। यदि वर्षा के जल में रूकावट पैदा करके वर्षा के जल को सोखने के लिए इकट्ठा नहीं किया जाय तो वह नदियों, झरनों आदि के माध्यम से बहकर समुद्र में विलीन हो जाता है और पहाड़ी क्षेत्र की भूमि उसको अधिक मात्रा में सोख नहीं पाती है। इसके परिणाम काफी घातक हो सकते हैं। भारत जैसे कृषि प्रधान देश, जहां पर खेती मुख्यतः सिंचाई पर आधारित हो वहां अंदरूनी पानी की बहुतायत में मौजूदगी अति आवश्यक हो जाती है। पहाड़ी भूमि वर्षा जल को अधिक से अधिक मात्रा में सोख कर वर्ष भर मैदानी क्षेत्रों को जल उपलब्ध कराने में बहुत बड़ी भूमिका अदा करती है। मैदानी क्षेत्रों में जो जल सिंचाई के लिए नलकूपों के माध्यम से उपयोग में लाया जाता है उसकी निर्भरता बहुत कुछ पहाड़ी क्षेत्रों से अंदरूनी रूप में बह रहे जल स्रोतों पर निर्भर करती है। यही कारण है कि जब पहाड़ी और मैदानी जमीन के अंदर पानी का स्तर नीचे गिरता है और बरसात उचित मात्रा में नहीं होती तो तमाम नलकूपों से सिंचाई और पीने के लिए पानी निकालना मुश्किल हो जाता है, क्योंकि पानी का स्तर इतना नीचे गिर चुका होता है कि नलकूप की पहुंच वहां तक नहीं रह पाती है।
भारत जैसे विशाल देश में, जहां कृषि लगभग 70 प्रतिशत लोगों की जीविका का मुख्य आधार हो वहां सिंचाई सुविधा मुहैया कराना सरकार की मुख्य जिम्मेदारी हो जाती है। प्रागैतिहासिक काल में भी पीने के पानी और सिंचाई के लिए पानी को लेकर होने वाले झगड़ों की चर्चा इतिहास एवं इतिहास से इतर साहित्य में मौजूद है। इतिहास से हमें यह भी जानकारी मिलती है कि प्राचीनकाल में पानी के प्राकृतिक भण्डार ही पीने और सिंचाई आदि के मुख्य स्रोत थे। पानी के उपलब्ध स्रोतों को विकसित कराकर अपने राज्य की जनता को बेहतर सुविधा प्रदान कराना राजा का एक मुख्य काम होता था और उस राज्य की सम्पन्नता बहुत कुछ निर्भर करती थी राज्य के कुशल जल प्रबन्धन पर।
सृष्टिकाल से ही प्रकृति ने जल भण्डार उपहार स्वरूप यहां-वहा उपलब्ध करा रखे हैं। उपलब्ध आंकड़े बताते हैं कि पृथ्वी के दो-तिहाई हिस्से में पानी और एक हिस्से में ही भूमण्डल है। जैसे-जैसे सभ्यताओं का विकास होता गया वैसे-वैसे लोगों ने अपनी कुशाग्र बुद्धि का सदुपयोग कर उसका समुचित प्रबन्धन कर उसका फायदा उठाया। शुरू-शुरू में पीने के लिए पानी का प्रबन्धन किया गया। तत्पश्चात् जब आबादी बढ़ने लगी और सुख-सुविधाओं में रहने की ओर उसका ध्यान गया तो आवश्यकता महसूस की गयी व्यवस्थित प्रबन्धन की। आबादी बढ़ने एवं सुविधा सम्पन्न जीवन जीने की ललक ने ही लोगों को मजबूर किया तीव्र विकास के लिए। जल प्रबन्धन भी इस तीव्र विकास का ही एक मुख्य हिस्सा है और बहुत कुछ निर्भर करता है कुशल जल प्रबन्धन पर; फिर चाहे वह पीने के लिए किया जाए अथवा सिंचाई, सफाई आदि के लिए।
भौगोलिक बनावट और अपनी ज़रूरत के आधार पर समय-समय पर लोग पीने और सिंचाई के लिए पानी का प्रबन्धन करते रहे हैं। इसी तरह के एक जल प्रबन्धन को सन् 1800 में अपनी भारत यात्रा के दौरान डॉ. फ्रांसिस बुकानन हैमिल्टन ने मद्रास के निकट एक विशाल जलाशय के रूप में देखा, जिसका प्रबन्धन सिंचाई की दृष्टि से दो पठारीय भू-भागों के बीच की खुली हुई जगह पर एक कृत्रिम तटबन्ध के ज़रिए किया गया था। यह जलाशय करीब 8 मील लम्बा और 3 मील चौड़ा था। इससे सिंचाई के लिए बहुत सारी नहरें निकाली गयी थीं, जिनसे जलाशय के आस-पास के करीब 32 गांवों की सिंचाई की जाती थी। एक यही नहीं दक्षिण भारत में इस तरह के तमाम जलाशय मौजूद थे। सिंचाई की दृष्टि से ही मुगलकाल में भारत में पूर्व यमुना नहर और पश्चिम यमुना नहर का निर्माण कराया गया। उचित प्रबन्धन न होने के कारण अठारहवीं सदी तक वे काम लायक नहीं रह गयी थीं। अठारहवीं सदी में बेयर्ड स्मिथ ने 5 मील लंबी नहर का निर्माण 10 लाख पौंड से करवाया। इस नहर की 450 मील तक के क्षेत्र को सिंचित करने की क्षमता थी।
इसी तरह उत्तर भारत में भी ऊपरी गंग नहर और निचली गंग नहर का निर्माण करवाया गया। और भी तमाम नदियों और जलाशयों से सिंचाई के लिए नहरों का निर्माण करवाया गया। नदियों से नहरें निकाल कर सिंचाई और पीने के पानी की व्यवस्था करना या फिर नलकूपों के माध्यम से सिंचाई और पीने के पानी की व्यवस्था मुहैया करवाने से पहले नदियां, तालाब, झील और पोखर ही पीने के पानी और सिंचाई के मुख्य साधन हुआ करते थे।
एक समय था जब दिल्ली में 350 छोटे-बड़े तालाब मौजूद थे। उन दिनों दिल्ली जल प्रबन्धन के मामले में लगभग आत्मनिर्भर थी। कहीं भी किसी नये गांव के बसने, कस्बा या शहर की आबादी में इजाफा होने की स्थिति में तालाबों का निर्माण जरूर करवाया जाता था। किसी बड़ी खुशी या गम के मौके पर भी तालाब बनाने का रिवाज था। तालाब बनवाना सबसे ज्यादा पुण्य का काम माना जाता था।
5वीं सदी से लेकर 15वीं सदी, करीब एक हजार वर्ष तक तालाबों/जलाशयों का निर्माण अबाध गति से जारी रहा। 16वीं सदी में अंग्रेजों के आगमन और उनके इस देश की नीतियों के नियन्ता बन जाने पर तालाब के निर्माण और रखरखाव के काम में रुकावटें आनी शुरू हो गयीं। अंग्रेजों ने अपने शासन काल की शुरूआत के साथ ही बड़े-बड़े शहरों की हौज, कुंएं और तालाब आधारित जल प्रबन्धन व्यवस्था की जगह टोंटी प्रथा की शुरूआत कर दी। टोंटी प्रथा से हौजों, कुआंे और तालाबों या जल के अन्य स्रोतों को भारी धक्का लगा और धीरे-धीरे आत्मनिर्भर जल प्रबन्धन आस-पास के गांव, कस्बों से चुराकर पानी मुहैया कराने पर निर्भर हो गया। इतना ही नहीं अंग्रेजों ने तालाबों, हौजों और कुओं के रखरखाव पर होने वाले खर्च में भारी कटौती की। इससे शहरों ही नहीं गांवों की जल प्रबन्धन व्यवस्था चरमरा गयी। धीरे-धीरे हमारे प्राकृतिक स्रोत, जो साल भर हमें पानी मुहैया कराते थे, सूखने और समाप्त होने लगे।
जल पंपों के माध्यम से जमीन के अंदर से अंधाधुंध पानी निकालने, प्राकृतिक जल स्रोतों तालाब, झरनों आदि के सूखने से जल प्रबन्धन की समस्या तो बढ़ी ही है साथ ही जल स्तर में भी गिरावट आई है जिसकी वजह से अनेक क्षेत्रों में कुओं और जल पंपों ने काम करना बन्द कर दिया है। कहा जाता है कि तालाब और पेड़ का साथ रहा है, एक के नष्ट होते ही दूसरा स्वतः ही नष्ट हो जाता है। पेड़ों की अंधाधुंध कटाई के कारण भी प्राकृतिक जल स्रोत विलुप्त होते जा रहे हैं।
देश के कुछ हिस्सों में, जहां तालाब, झरनें आदि प्राकृतिक जल स्रोतों को जिंदा रखा गया है, वे क्षेत्र आज भी जल प्रबन्धन के मामले में आत्मनिर्भर है। राजस्थान के 11 जिलों- जैसलमेर, बाड़मेर, पाली, बीकानेर, चुरू, श्रीगंगानगर, झुंझनू, जालौर, नागोर और सीकर में मरूस्थल का विस्तार मिलता है लेकिन सघन मरूस्थल बीकानेर, बाड़मेर और जैसलमेर में पाया जाता है जहां देश की सबसे कम वर्षा होती है, सबसे ज्यादा गर्मी पड़ती है, रेत की तेज आंधियां चलती हैं और ‘पंख’ लगाकर  यहां से वहां उड़ने वाले रेत के टीले हैं। इन तीनों जिलों में पानी का सबसे ज्यादा अभाव होना चाहिए था क्योंकि यह सबसे कम वर्षा का क्षेत्र तो है ही साथ ही इस क्षेत्र में साल भर बहने वाली कोई नदी भी नहीं है। लेकिन यहां के गांवों में पानी का प्रबन्धन शत-प्रतिशत है। आज भी, जब देश के अनेक क्षेत्रों में पानी के प्रबन्धन के खतरे पैदा होने लगे हैं, ऐसी दशा में भी इन तीनों जिलों के गांव पानी प्रबन्धन के मामले में आत्मनिर्भर हैं। यह जल प्रबन्धन सरकारी बिना पर उपलब्ध कराया गया हो, ऐसा बिल्कुल नहीं है। इन गांवों के लोगों में पानी प्रबन्धन के प्रति गजब का समर्पण भाव ही आज भी जल प्रबन्धन को बरकरार रखे हुए है। तालाब बनाने के लिए उचित निचली और साफ-सफाई वाली भूमि का चयन हो जाने पर तालाब खुदाई का काम शुरू हो जाता था। फावड़ों के माध्यम से तालाब का सारा चित्र जमीन पर उतार लिया जाता था। सभी कम से कम पांच-पांच परांत मिट्टी खोद कर पार (पाल) पर पहुंचाना अपना कर्तव्य और पुण्य समझते थे। तत्पश्चात् दिनभर के श्रमदान के लिए लोग जुट जाते थे, क्योंकि वे यह बात अच्छी तरह समझते थे कि जिस काम को वे अंजाम देने जा रहे हैं वह किसी और के लिए नहीं बल्कि अपने लिए ही कर रहे हैं। इस तरह सैकड़ों हाथ मिट्टी काटते जाते, और तालाब अपनी आकृति में ढलता जाता। काम अमानी पर होता था, यानी कि सब लोग एक साथ आते और एक साथ ही काम से वापस लौटते। खुदाई का काम पूरा होने और पार आदि के बन जाने पर पहले झले (फुहार) के साथ लोग पुनः लाठी, कुदाल, फावड़े, बांस आदि लेकर पार में हुए छेद और दरारों को भरते। इस तरह तालाब का काम पूरा होता था। रखरखाव के हिसाब से हर महीने की अमावस और पूर्णिमा को लोग तालाब की देखरेख करने में अपना समय और श्रम देना पुण्य मानते थे। देखरेख पर होने वाले खर्च की पूर्ति की दृष्टि से गांव की टोली घर-घर से सामर्थ्य के अनुसार धन-धान्य इकट्ठा करती, जिसका उपयोग तालाबों के रखरखाव पर किया जाता था। इसी बिना पर राजस्थान में आज भी ज्यादातर गांवों में तालाबों का प्रबन्धन गांव वाले स्वयं संभाले हुए हैं।
मध्य प्रदेश के रीवा जिले के जोड़ौरी गांव की आबादी मात्र 2400 है लेकिन इस गांव में 12 तालाब हैं। इसी के पास ताल मुकेदान गांव की 1500 की आबादी पर 10 तालाब हैं। यानी कि हर 150 की आबादी पर  एक अच्छे तालाब की सुविधा आज भी है।
खोज, विस्तार, विकास, आरामदेह ज़िंदगी जीने, आधुनिकता की अंधी दौड़ आदि के चलते आवश्यकताओं/इच्छाओं की पूर्ति करने के लिए संसाधनों का बेतहाशा दोहन किया जा रहा है। प्राकृतिक माध्यमों को समाप्त कर कृत्रिम साधनों पर ज्यादा जोर दिया जा रहा है। इसी वजह से अन्य सभी के साथ-साथ पानी की समस्या भी बढ़ती जा रही है। भूमिगत जल का स्तर निरन्तर गिरता जा रहा है। वर्षा की अनियमितता में भी हर साल बढ़ोत्तरी हो रही है जिसका असर कृषि फसलों पर पड़ रहा है। भूमि एवं कृषि विस्तार की वजह से झील, झरनें, तालाब, पोखर आदि बड़ी रफ्तार से समाप्त हुए हैं। इसका सीधा असर संपूर्ण जलप्रबन्धन व्यवस्था पर पड़ा है। नदियों का स्वरूप भी बदला है। जो नदियां पहले साल भर बड़ी जलराशि के साथ प्रवाहित रहती थीं उनमें से ज्यादातर ने आज एक गन्दे नाले की शक्ल अख्तियार कर ली है। शहरीकरण बढ़ रहा है। गांवों की अनदेखी की जा रही है। प्राकृतिक जल संसाधनों को बचाये रखने अथवा वे जल संसाधन जो किन्हीं कारणोंवश सूख गये हैं, उनके विकास एवं विस्तार पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है। वैसे भी प्राकृतिक संसाधन समाप्त होते जा रहे हैं, जो कि जल स्तर के गिरने की कहानी साफ-साफ बयां कर रहे हैं। पानी सिंचाई की दृष्टि से ही नहीं वरन् पीने की दृष्टि से भी घट रहा है। दोनों ही तरह से पानी की किल्लत बढ़ती जा रही है।
प्राकृतिक जल संसाधनों (तालाब, झरनों आदि) का विकास, और विस्तार करके तथा नये जल संसाधनों का विस्तार करके इस समस्या से निजात पाई जा सकती है। इसके लिए खासकर ग्रामीण लोगों की सोयी पड़ी प्रतिभा को जगाकर, उन्हें मामूली सा प्रशिक्षित करके यह काम आसानी से किया जा सकता है। साथ ही लौटना होगा हमें अपने पुराने प्राकृतिक जल स्रोतों को पुष्ट करने की परंपरा पर। लोगों में भरनी होगी प्रशासनिक आत्मनिर्भरता की बजाय ‘श्रमदान महादान’ की भावना। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि सरकार जल प्रबन्धन की जिम्मेदारी से मुक्त हो जाएगी। सरकार और जन दोनों को मिल कर साझी जिम्मेदारी निभानी होगी, तभी निजात मिल सकेगी जल समस्या से।

जनसुनवाई: दिल्ली

जनसुनवाई ने खोली ‘सार्वजनिक वितरण प्रणाली’ की पोल


कुछ राज्यों और केंद्र में ‘सूचना के अधिकार का कानून’ बनने से  लोगों को अब यह पता चल रहा है कि सूचना के अधिकार की ताकत भ्रष्टाचार की जड़ें काट सकती है। सूचना के अधिकार के माध्यम से स्वच्छ शासन देने के लिए केन्द्र व राज्य सरकारों को मजबूर किया जा सकता है। परन्तु सरकार और सरकारी नुमाइन्दे कभी नहीं चाहते कि उनकी सत्ता में कमी आए। वे सदियों से लोगों को दगा देते आ रहे हैं और व्यवस्था को अनवरत यों ही जारी रखना चाहते हैं। इसलिए वे कानून के क्रियान्वयन में लगातार रोड़ा अटकाते हैं। लेकिन अब समय आ गया है उनकी पोल खोलने का, उनकी हकीकत जानने का, तथा उनसे सही दिशा में काम करवाने का। यह सब तब तक संभव नहीं हो सकता जब तक सूचना के अधिकार का बढ़-चढ़ कर इस्तेमाल न किया जाए।
इसी सिलसिले में दिल्ली के आर.के.पुरम् सेक्टर-6 की एकता विहार बस्ती में 8 अक्टूबर 2004 को एक जनसुनवाई का आयोजन किया गया। इस जनसुनवाई में देश के अधिकांश राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों से आये लोगों ने शिरकत की। उन्होंने बारी-बारी से अपने-अपने क्षेत्रों में राशन के संबंध में क्या-क्या धांधलियां हो रही हैं, उनसे वे लोग किस तरह से निपट रहे हैं, उनके द्वारा इस संबंध में क्या-क्या प्रयास किये गये हैं ? ये सारे अनुभव उपस्थित जन समुदाय के सामने रखे।
कार्यक्रम की शुरूआत राजस्थान से आये राधारमण हेला ख्याल पार्टी, गुण्डाल, गंगापुर के गायन-वादन से हुई। जनसुनवाई के लिए एक पैनल बिठाया गया था। इस पैनल में वरिष्ठ पत्रकार श्री कुलदीप नैयर, वरिष्ठ पत्रकार श्री प्रभाष जोशी, सामाजिक कार्यकर्ता सुश्री अरूणा राय, वरिष्ठ पत्रकार श्री भारत डोगरा, श्री सुरंेद्र मोहन, प्रसिद्ध पर्यावरणविद् श्री शेखर सिंह, श्री हरिवंश (संपादक, प्रभात खबर, झारखण्ड), सुश्री सुमन सहाय, सुश्री मधु बहादुरी, सामाजिक कार्यकर्ता सुमित चक्रवर्ती तथा कल्पना कन्नाभिरामन शामिल थे।
इसके पूर्व सामाजिक संस्था परिवर्तन (दिल्ली) द्वारा छात्र/छात्राओं से सर्वे करवाया गया था। सर्वे कार्य में जुटी टीम ने सर्वे के दौरान तमाम तरह की परेशानियां झेलते हुए राशन लाइसेंस धारकों द्वारा की जा रही धांधलियों का पता लगाया। इसके लिए उन्होंने खाद्य एवं आपूर्ति विभाग के भी चक्कर लगाये। किसी तरह वे प्रमाण जुटा सकने में सफल हुए। तमाम स्थानीय लोगों ने बताया कि राशन वाले पहले तो राशन देते ही नहीं। और यदि साल में एक या दो बार देते भी हैं तो वह इतना गंदा होता है जिसे जानवर भी खाने में परहेज करेगा। एक महिला ने तो राशन में मिलने वाले गेहूं का नमूना भी पैनल को दिखाया। देखने में आया कि जो गेहूं महिला को दिया गया था उसमें कूड़ा ही कूड़ा था, गेहूं तो नाममात्र के लिए थे।
सूचना के जनाधिकार के तहत दिल्ली के तमाम क्षेत्रों में जो सर्वे किया गया था उसकी जानकारी श्री अरविंद केजरीवाल ने दी। इस सर्वे की शुरूआत जनवरी 2004 में की गई। उन्होंने बताया कि दिल्ली में करीब 15 अलग-अलग स्थानों पर इसके तहत कार्यवाही की गयी है। इनमें से एकता विहार (आर.के.पुरम, सेक्टर-6); त्रिलोकपुरी, कल्याणपुरी, करावलनगर, वेलकम, सीमापुरी, सुन्दरनगरी, दक्षिणपुरी आदि बस्तियों से लोग अपनी बात रखने के लिए यहां पहुंचे हुए थे। रिकार्ड हासिल करने के दौरान विभागीय कर्मचारियों से तमाम तरह की नो-झोंक हुई। आखिर किसी तरह अधिकारियों ने रिकार्ड उपलब्ध करवाए। इनमें से भी कुछ स्थानों के रिकार्ड विभागीय अधिकारियों की आपाधापी के चलते आधे-अधूरे ही हासिल हो सके। सभी रिकार्डों में बेतहाशा गड़बड़ियां पाई गईं। इन गड़बड़ियों के साक्ष्य (रिकार्डों की फोटो प्रतियां) उदाहरण स्वरूप लोगों के सामने पेश किए गए। साक्ष्यों के आधार पर निम्न मुख्य बिन्दु उभर कर सामने आए -
प्रत्येक केन्द्र पर रिकार्डों में गड़बड़ियां थीं।
दैनिक बिक्री रजिस्टर फर्जी पाये गये, जिनमें राशनकार्ड धारकों को राशन न मिलने पर भी गलत प्रविष्टियां पाई गईं।
कई लोगों के राशन कार्डों पर पिछले कई महीनों से  राशन लेने की कोई प्रविष्टि दर्ज नहीं थी, लेकिन दैनिक बिक्री खाता रजिस्टर में उनके नाम व कार्ड नं पर कई-कई किलो राशन देने की प्रविष्टियां फर्जी हस्ताक्षर करके दर्ज की गयी थीं।
शिकायत पाई गई कि राशन की दुकानें महीने में 5-6 दिन ही खुलती हैं।
कुछ दुकानदार तो राशन के दाम भी ज्यादा वसूलते पाए गये।
राशन बहुत गंदा मिलता है।
नए राशन कार्ड मंजूर नहीं किये जा रहे हैं।
गैरसरकारी संस्थाओं के कार्यकर्ताओं द्वारा कराये गये सर्वे से यह भी साबित हुआ कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली में भ्रष्टाचार व गड़बड़ियों का शिकार सबसे अधिक दलित, आदिवासी व पिछड़े लोगों को होना पड़ता है। पहले तो इन्हें राशन कार्ड ही नहीं दिये जाते। यदि वे किसी प्रकार राशन कार्ड हासिल भी कर लेते हैं तो उन्हें राशन मुहैया नहीं हो पाता।
सर्वे टीम ने राशन कार्ड एवं रजिस्टर की फोटो कॉपियां दिखायीं। राशन कार्डों में खाली पड़े कालम साफ बता रहे थे कि महीनों से उन्हें राशन कार्ड पर मिलने वाली वस्तुएं नहीं मिल रही हैं, जबकि दूसरी तरफ राशन की दुकान वालों के रजिस्टर की फोटो कॉपियां कह रही थीं कि सभी राशन कार्ड धारकों को सभी वस्तुएं नियमित मिल रही हैं। जनसुनवाई में पहुंचे अनेक कार्ड धारकों ने बारी-बारी से पैनल को अपने-अपने कार्ड दिखाए और बताया कि राशन की दुकान वाले बार-बार चक्कर लगाने के बावजूद भी राशन नहीं उपलब्ध करवाते हैं। राशन की दुकानें अक्सर बन्द रहती हैं। महीने में यदि चार-पांच दिन दुकानें खुलती भी हैं तो कुछ राशन कार्ड धारक तो राशन ले लेते हैं, शेष कार्ड धारकों को यह कह कर भगा दिया जाता है कि राशन कम मिला था अतः खत्म हो गया।
कितने शर्म की बात है कि गरीबी की रेखा से नीचे जीवन निर्वाह करने वाले लोगों के लिए दो समय का भोजन उलब्ध करवाने की दृष्टि से सरकार जिस राशन को कार्ड के माध्यम से उपलबध करवाती है, उसे राशन के दुकान मालिक ब्लैक में बेच कर मोटी कमाई करने के धंधे में लगे हुए हैं। इस काम में केवल दुकान मालिक ही नहीं बल्कि खाद्य एवं आपूर्ति विभाग के अन्य अधिकारी भी लिप्त हैं। यह बात इससे और स्पष्ट होती है कि जनसुनवाई के दौरान एकता विहार, आर.के.पुरम. सैक्टर-6, नई दिल्ली के एक राशन की दुकान के लाइसेंसधारी श्री रमेश गुप्ता ने इस खामी को स्वीकारा कि हमें ऊपर से (विभाग से) ही राशन का सामान कम मिलता है तो हम गरीबों में वितरित करने के लिए कहां से लायें। साथ ही विभाग के अधिकारियों को मोटी रकम घूस में खिलानी पड़ती है। ऐसे में अगर हम ईमानदारी से राशन वितरित करेंगे तो कहां से लाएंगे और क्या कमाएंगे ? कार्यक्रम के दौरान अगले दिन उस दुकान मालिक ने बताया कि खाद्य एवं आपूर्ति विभाग के अधिकारियों ने उसकी दुकान का लाइसेन्स रद्द कर दिया है। इससे यह पता चलता है कि जनसुनवाई दोषी को दण्ड दिलवाने में कितनी कारगर हो सकती है।  
इससे यह बात भी स्पष्ट होती है कि यदि हम अपने पर हो रही ज्यादतियों के बारे में आवाज उठायें और निरन्तर उठाते रहें तो उन ज्यादतियों को रोका जा सकता है। यह बात उन उदाहरणों से और स्पष्ट हुई जोकि विभिन्न राज्यों द्वारा आये हुए प्रतिभागियों द्वारा बताईं गयीं कि किस तरह उन्होंने निरन्तर कार्यशील और आंदोलनरत रहते हुए सफलताएं हासिल कीं। इस संबंध में सबसे बेहतरीन उदाहरण छत्तीसगढ़ या महाराष्ट्र का हो सकता है।
छत्तीसगढ़ से आये साथी ने बताया कि छत्तीसगढ़ में राशन की दुकानें नियमित नहीं खुलती थीं। राशन समय पर नहीं मिलता था। पूरी मात्रा में नहीं मिलता था। यदाकदा किसी को मिल भी जाता था तो वह इतना ज्यादा गंदा होता था कि उसे खाकर लोग बीमार तक पड़ जाते थे। सरकार द्वारा तय दर से अधिक भुगतान करना पड़ता था। इस काम में सरकारी कर्मचारी भी लिप्त पाये गये। अनियमितताओं और मनमानी के चलते लोगों ने तंग आकर राशन लेना बंद कर दिया और उन्होंने राशन की दुकान वालों के खिलाफ आंदोलन छेड़ दिया। लोगों ने खाद्य एवं आपूर्ति विभाग के खिलाफ भी आंदोलन छेड़ा। लोगों ने जानकारी हासिल करनी चाही कि उनके लिए जब सरकार राशन देती है तो उन्हें समय पर और उचित दर पर उलब्ध क्यों नहीं करवाया जाता है। इस काम में सरकारी कर्मचारियों ने भी आनाकानी की। किसी तरह आंदोलनकारी तथ्य जुटाने में सफल हुए। छत्तीसगढ़ में राशन की 1200 दुकानें थीं। लोगों ने इसके लिए राज्य सरकार को भी घेरा, लेकिन हल न निकल पाने की स्थिति में मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा। सुप्रीम कोर्ट नेे इसके लिए एक जांच कमेटी बनाई। जांच कमेटी के तहत पूरे छत्तीसगढ़ में 26 निरीक्षक नियुक्त किये गये।  निरीक्षकों ने पाया कि 1200 में से 1000 दुकान मालिकों द्वारा लापरवाही बरती जा रही है लिहाजा निरीक्षकों की रिपोर्ट पर 1000 दुकानों के लाइसेंस रद्द कर दिए गए। लोगों ने राहत की सांस ली और मांग की कि आदिवासियों के लिए आदिवासियों में से ही किसी संस्था, समिति या फिर ग्राम पंचायतों को राशन वितरण की जिम्मेदारी दी जानी चाहिए। वहां यह व्यवस्था लागू की जा रही है। यह जीत सूचना के जन अधिकार के चलते ही मिल सकी है।
देश के लगभग हर राज्य से पधारे प्रतिभागियों ने अपने-अपने राज्य/क्षेत्र में पायी जाने वाली अनियमितताओं के बारे में बताया। आखिर यह पाया गया कि राशन के मामले में पाई जाने वाली अनियमितताएं पूरे देश में लगभग समान थीं। इतनी अधिक साम्यता थी कि लग रहा था कि पूरे देश में राशन लाइसेंस धारकों का जबरदस्त नेटवर्क है।
गुजरात से आये साथी ने बताया कि सन् 1852 में अंग्रेज विरोधी गतिविधियां चलाने वाले लोगों को अंग्रेजों ने गांवों से निकाल दिया था। अंग्रेजों ने उन्हें नट का नाम दिया था। अंग्रेजों द्वारा निकाले गये लोगों ने अपनी अलग बस्ती बना ली। 1947 में देश के स्वतंत्र हो जाने के बाद से आज तक इन लोगों की कोई सुध लेने वाला नहीं है। इनके लिए न कोई सरकारी परियोजना ही बनी है। किसी तरह की सरकारी सुविधा का लाभ भी नहीं मिल रहा है। न किसी तरह का सहयोग ही मिल रहा है। आज तक किसी को राशन कार्ड भी मंजूर नहीं किये गये हैं। कैसी विडम्बना है कि देश को आजादी दिलाने के नाम पर अंग्रेजों का विरोध करने वाले लोग आज भी जंगलों में खाक छानने को मजबूर हैं। केन्द्र और राज्य सरकारें विकास के नाम पर हर साल अपनी योजनाओं/परियोजनाओं के तहत अरबों रुपये खर्च करती हैं; फिर भी आज तक इन दुखियारे लोगों तक सरकारी सुविधाएं नहीं पहुंच पा रही हैं। वैसे तो गुजरात देश का सबसे धनी राज्य कहा जाता है, परन्तु यह सब हकीकत गुजरात की ही है। बड़े शर्म की बात है कि अपने ही देश में, आज भी हक-हकूकों की लड़ाई लड़ने वाले लोगों को जंगली जानवरों की तरह जीवन जीने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है। उनका किसी सूची में नाम तक नहीं है, राशन की बात तो अलग है।
आन्ध्र प्रदेश से आये साथी का कहना था कि दलितों को राशन प्राप्त करने में और भी अधिक कठिनाइयां उठानी पड़ती हैं। यदि किसी तरह भाग-दौड़ करके कोई दलित राशन कार्ड हासिल भी कर लेता है तो उसे राशन मिल पाना बहुत मुश्किल होता है। एक और समस्या सामने आ रही है कि जहां दलितों के नाम पर राशन की दुकानों के लाइसेंस दिये जाते हैं वहां के दबंग लोग दुकानों के लाइसेंस दलितों के नाम पर ले लेते हैं। दलितों की बस्तियों में सबसे कम राशन की दुकानें है। एक अध्ययन के अनुसार दलित बस्तियों में 13 प्रतिशत और पिछड़ी बस्तियों में 17 प्रतिशत दुकानें हैं, शेष 70 प्रतिशत राशन की दुकानें शेष वर्गों (दबंगों) की बस्तियों में पाई जाती हैं।
उड़ीसा से आई श्रीमती मुयामती ने अपनी बात रखते हुए कहा कि काम की खोज में हमें जगह-जगह भटकते रहना पड़ता है। इसके लिए हमें एक स्थान से दूसरे स्थान, यहां तक कि अन्य राज्यों में तक जाना पड़ता है। इस कारण हमारे जैसे तमाम लोगों को न तो अपने मूल निवास पर ही कार्ड मिल पाता है और न ही किसी अन्य स्थान पर। इलाज के अभाव में मेरा पति मर गया। मेरे छोटे-छोटे बच्चे हैं। कोई नियमित काम भी हाथ में नहीं है। उड़ीसा में मेरे जैसे तमाम लोगों को कार्ड नहीं मिल पाता है, और वे कहीं किसी सूची में नाम दर्ज हुए वगैर ही मर जाते हैं। यह सिलिसिला लंबे समय से जारी है। इनके अलावा ऐसे भी तमाम लोग हैं जिन्हें किसी तरह से राशन कार्ड मिल भी गया है और काम की तलाश में लंबे समय से अपने निवास स्थान से बाहर रह रहे हैं तो उनके राशन कार्ड यह कहकर खारिज कर दिये जाते हैं कि अब तुम यहां नहीं रहते हो। यहां विचारणीय बात यह भी है कि काम की तलाश में जाने वाले तीन-चार महीने के लिए अपने निवास स्थान से बाहर जाते हैं, कोई नियमित काम न मिल पाने की वजह से उन्हें पुनः अपने ‘देस’ ही वापस आना पड़ता है। इस प्रकार वे दोनों तरफ से ही मारे जाते हैं। न तो उनके पास जीविका का कोई नियमित साधन ही होता है और न ही सरकार द्वारा गरीबी के नाम पर राशन कार्ड के माध्यम से प्रदान की जाने वाली सहायता ही उन्हें मुहैया हो पाती है।
झाबुआ, मध्य प्रदेश की शंभू बा ने बताया कि 10 साल से अभी तक राशन कार्ड नहीं मिल पा रहा है। जिन लोगों के पास कार्ड है उन्हें तेल के लिए कहीं और अनाज आदि के लिए किसी दूसरी दुकान पर जाना पड़ता हैं। दूर-दूर से लोग अपना काम छोड़ कर राशन लेने जाते हैं लेकिन दुकानें बन्द मिलती हैं, जबकि राशन लेने जाने वाले अधिकांश लोगों की जीविका का मुख्य आधार दिहाड़ी है। इसके विपरीत दारू की दुकानें रोज खुलती हैं।
गरीबों, दलितों, आदिवासियों व पिछड़े लोगों को सस्ता अनाज उपलब्ध करवाना सार्वजनिक वितरण प्रणाली की मुख्य जिम्मेदारी है ताकि वे अपना जीवन-निर्वाह बाआसानी कर सकें। लेकिन जनसुनवाई में शिरकत करने वाले लोगों की ओर से इस संबंध में रखे गये वक्तव्यों से तो ऐसा लगा कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली पूरी तरह से भ्रष्ट हो चुकी है। अगर इसे पुनः सही मार्ग पर लाना है तो इसके लिए इस तरह की जनसुनवाईयां देश के अन्य हिस्सों में भी करवानी चाहिए। और यह तभी संभव हो सकता है जब ‘सूचना के अधिकार’ के प्रति लोगों में जागृति पैदा हो। लोगों को यह ज्ञात होना चाहिए कि सरकारी या गैर-सरकारी योजनाएं, जो सहयोग या विकास के नाम पर चलाई जा रही हैं, उन सबके बारे में वे कानून सम्मत जानकारी हासिल कर सकते हैं, तभी वे अपने हक-हकूकों की लड़ाई में सफल हो सकेंगे।
- अहिवरन सिंह, नामाबर दिसंबर 2004

किसान-खेत-किसानी

राजस्थान में ग्रामीण विकास: एक अवलोकन


विकास की अंधी दौड़ के चलते प्रकृति के साथ होने वाली अनियन्त्रित छेड़छाड़ से उभर रहे संकटों, प्रदूषित वातावरण, पीने के पानी की तंगी,, आत्महत्या करते किसान, बेरोजगारी, जलवायु में निरन्तर आ रहे परिवर्तन जैसी समस्याएं सन् 2025 तक भारत को दुनिया के विकसित देशों की श्रेणी में शामिल कराने के ख़्वाब की पोल खोलती हैं। हमारी सरकारें ‘सबको अन्न, और हर गांव को ‘बिजली-पानी’ की डींग मारती रहती हैं लेकिन वास्तव में उन्हें अपनी सत्ता को बचाये रखने के दांव-पेच से ही फुर्सत नहीं मिल पाती है। ऐसा ही कुछ नजारा 23 से 25 मई, 2003 को सवाईमाधोपुर प्रवास के दौरान पिछड़ेपन और अकाल की त्रासदी से गुजर रहे क्षेत्र में व्यक्तिगत तौर पर लोगों से मिलने पर सामने आया।
फलोंदी, सवाईमाधोपुर जनपद के खण्डाहार विधानसभा क्षेत्र में आता है। यह क्षेत्र अकाल और बेरोजगारी जैसी विभिन्न भयावह समस्याओं से जूझ रहा है। अतः वहां की वस्तुस्थिति जानने की तीव्र इच्छा ने फलोंदी क्षेत्र में जाने को मजबूर किया। क्षेत्र के लोगों ने बारी-बारी से अपनी बात रखी। बातचीत के दौरान कई लोगों ने अपनी-अपनी तरह से क्षेत्र की समस्याओं के बारे में जानकारियां दीं।
सनद रहे कि जनपद सवाईमाधोपुर राजस्थान के पिछड़े जिलों में से है। फलोंदी पांच ग्राम पंचायतों - फलोंदी; टोडरा, दुमेदा, पंचोला, चितारा, लसोरा - का एक सामूहिक क्षेत्र है जो लगभग 20 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में फैला हुआ है। यह अनुसूचित जाति बाहुल्य क्षेत्र है। इस क्षेत्र में लगभग 63 प्रतिशत अनुसूचित जाति, 27 प्रतिशत अनुसूचित जनजाति और शेष 10 प्रतिशत में अन्य सभी वर्ग आते हैं।
प्रवास के दौरान हमारे साथी उक्त क्षेत्र के पूर्व विधायक श्री रामगोपाल सिसौदिया से भी मिले। श्री रामगोपाल जी यहां से पिछली 4 बार राजस्थान विधानसभा के विधायक रह चुके हैं। उनके अनुसार बदलते परिवेश और राजनैतिक उठापटक के चलते बीते चुनाव में मैं अपनी विधायकी को कायम रख सकने में कामयाब नहीं हो सका। यह पांचों ग्राम पंचायतें श्री सिसौदिया जी के पूर्व विधानसभा क्षेत्र खण्डाहार में ही आती हैं। अतः इसी दृष्टि से कि वे वहां की परिस्थितियों और परिवेश से बेहतर परिचित होंगे, साथ ही मेरे लिए क्षेत्र एकदम नया होने के कारण वहां के संबंध में मोटा-मोटी जानकारियां हासिल करने का भी वे बेहतर माध्यम हो सकते हैं, इस वजह से हमने उनसे मिलना तय किया। उन्होंनेे फलोंदी क्षेत्र की पांचों ग्राम पंचायतों और खण्डाहर क्षेत्र के बारे में काफी कुछ बताया।
राज्य में सत्तासीन कांग्रेसी सरकार का पक्ष लेते हुए उन्होंने कहा कि मैंने अपने विधायक काल में इस क्षेत्र में ज्यादा-से-ज्यादा सुविधायें मुहैया कराने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। ऊबड़-खाबड़/पहाड़ी बाहुल्य क्षेत्र में लगभग प्रत्येक गांव को सड़क मार्ग से जोड़ने से लेकर प्राथमिक शिक्षा, स्वास्थ्य सरीखी सुविधायें लगभग पूरे क्षेत्र में उपलब्ध कराने को हमेशा प्राथमिकता में रख कर काम किया। इस कार्य में राजस्थान की कांग्रेसी सरकार ने भी भरपूर सहयोग दिया। इस क्षेत्र में बेसिक से लेकर इंटर तक शिक्षा की समुचित व्यवस्था है। लगभग हर दो-तीन किलोमीटर के क्षेत्र अथवा दो-तीन गांवों के बीच एक प्राथमिक विद्यालय और लगभग पांच किलोमीटर के दायरे में मिडिल अथवा हाईस्कूल तक की शिक्षा की व्यवस्था है।
तत्पश्चात् क्षेत्र में मौके पर लोगों से हुई मुलाकात के दौरान पता चला कि इस क्षेत्र में प्राथमिक और जूनियर हाईस्कूल स्तर तक की शिक्षा की व्यवस्था तो लगभग ठीक है लेकिन विद्यालयों में शिक्षकों की कमी है अथवा वे अपनी जिम्मेदारी को ठीक से नहीं निभा पा रहे हैं। 20 किलोमीटर के दायरे में केवल एक ही इण्टरमीडिएट कालेज है। उच्च शिक्षा अर्थात् स्नातक/स्नातकोत्तर शिक्षा के लिए सवाईमाधोपुर जाना पड़ता है। लिहाजा लड़कियों को उच्च शिक्षा दिला पाना संभव नहीं हो पाता। अधिक सम्पन्न लोग ही सवाईमाधोपुर में रख कर अपने बच्चों को उच्च शिक्षा दिला पाते हैं। क्षेत्र में स्वास्थ्य संबंधी सुविधा के नाम पर केवल एक ही राजकीय चिकित्सालय है। चिकित्सा सम्बन्धी सुविधाओं का अन्दाजा लगभग 20 किलोमीटर में फैले इस क्षेत्र के लिए एक ही राजकीय चिकित्सालय के होने से लगाया जा सकता है। यहां खेती योग्य मिट्टी उपजाऊ है। सिंचाई के मुख्य साधन के रूप में यहां नलकूप सिंचाई का मुख्य साधन है, जिसे अच्छी खेती वाले अथवा सम्पन्न लोग ही लगवा सकते हैं। सरकारी नलकूप नाकाफी हैं।
बुजुर्गों ने बताया कि फलोंदी के आसपास की पहाड़ियाँ अरावली पर्वत श्रेणियों का ही हिस्सा हैं। ये पहाड़ियां पहले कभी हरे-भरे पेड़-पौधों तथा झाड़ियों से पूरी तरह आबाद थीं। इन पहाड़ियों के जंगल एवं ग्राम पंचायतों के आसपास के जंगली क्षेत्र पंचायतवार ग्राम पंचायतों के नियंत्रण में थे। इन पहाड़ियों में जंगली पशु एवं पक्षी तथा कीट-पतंगे आदि भी स्वछन्द विचरण करते थे। पशुओं के लिए घास और हरा चारा भरपूर मात्रा में उपलब्ध रहता था। यह क्षेत्र पानी सहित प्राकृतिक संपदा से परिपूर्ण था। पहाड़ियां पेड़-पौधों और बेल-लताओं से आच्छादित थीं। यही कारण था कि इन पहाड़ियों से पानी जहां-तहां सोतों में रिसता रहता था, जिसे कच्ची नालियों के माध्यम से गांव अथवा उसके आस-पड़ोस में रोक लिया जाता था जिनमें सोतों के पानी के साथ-साथ बरसात का पानी भी इकट्ठा होता रहता था। यह जल स्थानीय पानी के तल को ऊपर उठाने में तो मुख्य भूमिका निभाता ही था, साथ ही पीने और सिंचाई आदि के काम में भी इसका उपयोग होता था। यही गांवों का बेसिक जल प्रबन्धन हुआ करता था, जिनसे जरूरत के आधार पर साल भर भरपूर मात्रा में पानी मिलता रहता था। इन जल प्रबंधनों के चलते किसी वर्ष बरसात कम होने अथवा न होने की स्थिति में अकाल और पानी की अनुपलब्धता की भयंकर त्रासदी से नहीं गुजरना पड़ता था। यहां लोगों से हमारा सवाल था कि क्या उन दिनों अकाल नहीं पड़ते थे, अर्थात् नहीं पड़े ? इस पर लोगों ने कहा कि; ऐसा नहीं है। उन दिनों भी अकाल पड़ते थे; किन्तु क्षेत्रीय जनता को खेती के साथ-साथ चूने पत्थर की पिसाई और सीमेंट फैक्टरी जैसे आय के अन्य स्रोत भी मुहैया थे, साथ ही जंगलात से भी कुछ सहयोग मिल जाया करता था। अतः लोगों को अकाल की त्रासदी की भयंकर भयावहता से नहीं जूझना पड़ता था। हां, उनकी आर्थिकी ज़रूर कुछ गड़बड़ाती थी। आज जब सीमेंट फैक्टरी बन्द हो चुकी है और जंगलात भी पूरी तरह से नष्ट हो चुका है तो ऐसे में खेती के अलावा लोगों की आय का कोई अन्य दूसरा मुख्य स्रोत नहीं रह गया है, जिसका यहां की आर्थिकी पर जबर्दस्त असर पड़ रहा है।
साथियों ने जानकारी हासिल की कि कुछ समय पूर्व तक सवाईमाधोपुर में चूने के पत्थर की पिसाई की एक प्राइवेट फैक्टरी चल रही थी। यह फैक्टरी एशिया की नामी-गिरामी सीमेंट फैक्टरियों में से एक थी। यह फैक्टरी फलोंदी के आसपास की पहाड़ियों से कच्चे माल के तौर पर चूना पत्थर निकालती थी, इस चूने के पत्थर की पिसाई तो यहां होती थी मगर सीमेंट बनाने का काम सवाईमाधोपुर स्थित फैक्टरी में होता था। इन फैक्टरियों से हजारों एकड़ चूना पत्थर का क्षेत्र जंगलात और पानी के स्रोत आदि के तौर पर तबाह तो हो रहा था, किन्तु फिर भी क्षेत्र के हजारों लोगों को इस फैक्टरी से रोजगार प्राप्त था। बाहर से आये सैकड़ों मजदूरों को भी इसमें काम मिला हुआ था जिसकी वजह से क्षेत्र के लोगों की आर्थिकी बहुत अच्छी नहीं तो खराब भी नहीं थी।
आज जब खेती ही इस क्षेत्र की जनता के अस्तित्व का मुख्य स्रोत है, उस पर भी जलप्रबन्धन की समुचित व्यवस्था नहीं हो तो फिर क्षेत्र के लोगों को सांत्वना की घुट्टी के बलबूते पर लम्बे समय तक कैसे ज़िंदा रखा जा सकेगा और कैसे बचाया जा सकेगा भ्रष्टाचार, गुण्डागर्दी, चोरी, सामाजिक विद्रोह से ? पूरी तरह से दम तोड़ चुके क्षेत्रीय जलप्रबन्धन की वजह से यह क्षेत्र भी अकाल के ग्रास में पहुंचता गया। इससे लोगों का यह आशय था कि अकाल पड़ते थे लेकिन जिस विकास की आज दुहाई दी जाती है ऐसे कम्प्यूटराइज्ड और तकनीकी जमाने में यदि आम सुविधाओं से आम आदमी वंचित हो तो यह चिंतनीय विषय है; क्योंकि निकट भविष्य में भारत के ‘सुपर पावर’ बनने की चर्चा जोर पर है।
बात स्पष्ट है कि कुछ तो फैक्टरी से पैसे आ जाते थे, साथ ही खेती से भी उन्हें जीविकोपार्जन लायक उपज मिल ही जाती थी। यही कारण था कि जब फैक्टरी चालू हालत में थी तो उसी दौरान इस क्षेत्र के लोगों को कई बार अकाल की स्थिति से जूझना पड़ा, अकाल के बावजूद यहां भुखमरी और चारा जैसी भयावह समस्याओं की वजह से हालात बिगड़े ज़रूर लेकिन बदतर नहीं हुए। यह सीमेंट फैक्टरी तकरीबन 15 साल पूर्व बन्द हो चुकी है।
लोगों का कहना था कि क्षेत्र में चिकित्सा सम्बन्धी सुविधायें 20-25 किलोमीटर के क्षेत्रफल में केवल एक ही है जो फलोंदी में है, उस पर भी इमरजेंसी अर्थात् रात्रि के समय चिकित्सा सुविधा किसी भी हाल में नहीं मिल पाती है, क्योंकि एक तो गांव से अस्तपाल की दूरी काफी होती है, दूसरे महिला चिकित्सक होने के कारण उन्हें दूरस्थ गांव में लेकर जाना भी खतरे से खाली नहीं होता। रात्रि के समय महिला चिकित्सक भय के चलते घर से बाहर आना भी उचित नहीं मानतीं। अतः मजबूर होकर पौ फटने का इंतजार रहता है। गहन चिकित्सा की जरूरत होने पर सवाईमाधोपुर ही जाना पड़ता है। कई बार रोगी रास्ते में ही दम तोड़ देते हैं, अगर तुरन्त चिकित्सा मिल सकती तो शायद उन्हें बचाया जा सकता। सवाईमाधोपुर यहां से लगभग 28 किलोमीटर है। दिन में तो फलोंदी से प्राइवेट बसें सवाईमाधोपुर तक चलतीं हैं। सड़क मार्ग बहुत अच्छा नहीं होने तथा बस ड्राइवरों की मनमानी के चलते बस को सवाईमाधोपुर तक पहुंचने में लगभग डेढ़ घंटे का समय लग जाता है, उस पर भी काफी भीड़ और बोझे के बीच सफर तय करना पड़ता है। यहां तक के सड़क मार्ग पर एक भी सरकारी बस नहीं चलती है।
यद्यपि आसपास की सभी पहाड़ियां जंगलात रहित हैं फिर भी जंगलात के कर्मचारी/अधिकारी वहां के निवासियों को तंग करते रहते हैं। गांवों की आबादी की जमीनों पर कब्जा करना शुरू कर दिया है। उन्होंने बताया कि वे लोग उनके घरों के आसपास के पेड़-पौधों की यह कहकर जबर्दस्ती घेराबन्दी करा देते हैं कि ये तो जंगलात की भूमि है।
इस दौरान हर तरह के (यथा- कृषक, मजदूर, दुकानदार, अध्यापक, ब्लॉक कर्मचारी और छोटे-छोटे व्यापारी आदि) लोगों से बातचीत करने से पता चला कि सब लोग एक ही बात को तरजीह दे रहे हैं, और वह है खेती। क्योंकि खेती में ही लोगों को अपना भविष्य नज़र आने लगा है। यहां के लोगों ने साफ जवाब दिया कि सीमेंट फैक्टरी की तरह यदि किसी अन्य उद्योग-धन्धे को इस क्षेत्र में स्थापित करा दिया जाय तो उससे भी समस्या का हल निकलने वाला नहीं है, क्योंकि सीमेंट फैक्टरी की तरह किसी अन्य उद्योग, जो इस क्षेत्र में अगर लगा दिया जाय तो उसकी क्या गारंटी होगी कि वह निकट भविष्य में बंद नहीं होगा। और फिर उद्योग कितने लोगों को रोज़गार दे सकेगा।
उन लोगों की यह भी मांग थी कि यहां पर कुछ इस तरह की फसलें लायी जायें जिनसे अधिक उपज और पैसा कमाया जा सके। साथ ही उन लोगों की यह भी मांग थी कि यहां पर कोई अच्छी अथवा बड़ी मंडी और यातायात की भी समुचित व्यवस्था की जाए। यहां कोई बड़ी मंडी और यातायात की भी समुचित व्यवस्था नहीं है जिसके अभाव में यहां के लोग कृषि उपजों की उचित कीमत नहीं ले पाते हैं। साथ ही एक ही प्रकार की उपज की पैदावार के बढ़ जाने से वह सस्ते दामों पर बिकती है। लोगों ने यह भी बताया कि क्षेत्र में तमाम जगह सिंचाई की समुचित व्यवस्था नहीं होने के कारण कईं जगह खेती योग्य भूमि पर साल में केवल एक ही फसल ली जा सकती है।
बढ़ती बेरोज़गारी और अधूरी शिक्षा के कारण यहां के नवयुवक बेकार हो रहे हैं। चूंकि फिलहाल खेती में भी वे संभावनाएं नहीं दिखतीं, जिनमें इन्हें खपाया जा सके अर्थात् काम मिल सके। अतः बढ़ती बेरोजगारी के कारण उनमें असंतोष बढ़ रहा है। असंतोष के चलते वे तमाम तरह के व्यसनों के आदी होते जा रहे हैं। छोटी उम्र में ही शराब पीना, झगड़ा करना, चोरी/डकैती करना उनकी दिनचर्या बनती जा रही है। नवयुवकों की दिनचर्या को देखकर छोटे बच्चे भी स्कूल जाना पसन्द नहीं कर रहे हैं। शिक्षा के प्रति उनका ध्यान खींचने या फिर दबाव डालने पर वे साफ कहने लगे हैं कि भैया अथवा दीदी भी तो नहीं पढ़ती। और फिर पढ़ने से फायदा भी क्या आगे तो हमारे लिए शिक्षा के अवसर खुले ही कहां हैं। यह हमारा दुर्भाग्य है कि चाहते हुए भी हमें इंटरमीडिएट या फिर उच्च शिक्षा नहीं मिल पाती है। इतने बड़े क्षेत्र में शिक्षा की व्यवस्था न होने के लिए वे स्थानीय प्रशासन और राजस्थान सरकार को दोषी मानते हैं।
देश के नाजुक हालातों को देखते हुए उपरोक्त अव्यवस्थाओं के बावजूद इस क्षेत्र में अभी तक तो शान्ति कायम रही है। सभी वर्गों के लोग मिलजुल कर रहते आ रहे हैं, हर परेशानी में एक-दूसरे का तहे दिल से सहयोग करते आ रहे हैं। लेकिन कुछ छुटभैये नेता राजनैतिक फायदा उठाने के लिए साम्प्रदायिकता को फैलाने की साजिश रच रहे हैं। कुछ शातिर लोगों की साजिश के तहत साम्प्रदायिकता और वर्गवाद की बू इस क्षेत्र में भी कभी-कभार यहां के संयमित एवं खुशगवार माहौल में जहर घोलने का प्रयास करती है। लोगों ने साफ तौर पर बताया कि भगवाधारी लोग यहां भी पहुंच रहे हैं और अपने ग्रुप तैयार कर रहे हैं। समय रहते क्षेत्र में घुसपैठ करने वाले भगवाधारियों और छुटभैये नेताओं के कार्यकलापों पर रोक लगाने के खास प्रबन्ध नहीं किये गये तो निकट भविष्य में देश के अन्य क्षेत्रों जैसे हालात पैदा होते देर नहीं लगेगी। कारण साफ है कि यहां के बेरोजगार युवा वर्ग को गुमराह होते देर नहीं लगेगी। चूंकि इस क्षेत्र का युवा वर्ग तो पहले से ही बेकार और निठल्ला हो रहा है, अतः वे हर नये माहौल में ढलना चाहेंगे। अर्थात सबकुछ करने के लिए तैयार रहेंगे। और फिर वही अहमदाबाद, गोधरा, अयोध्या या देश के अन्य क्षेत्रों जैसी भीषण त्रासदियों के लिए यह क्षेत्र भी अभिशप्त होगा। और हर बार की तरह नियति को तो यही मंजूर था, कहकर टाल दिया जायेगा।
लोगों का कहना था कि यहां के निवासियों को न्याय, सम्मान के साथ जीने के अधिकार और क्षेत्र में व्याप्त अव्यवस्थाओं को दूर करने में यहां का प्रशासन और सरकार आगे आये; विशेषकर यहां की खेती को बढ़ावा देने हेतु सत्ता/प्रशासन समुचित व्यवस्था मुहैया कराये अन्यथा उन्हें आंदोलन करने के लिए मजबूर होना पड़ेगा। यही बात उन्होंने उन सामाजिक संगठनों एवं संस्थाओं के लिए भी कही जो देशहित और समाज हित में कार्य रह रही हैं, वे भी इस क्षेत्र का सही मायने में अध्ययन कराकर यहां के निवासियों की मूलभूत आवश्यकताओं हेतु केन्द्र और राज्य सरकार एवं स्थानीय प्रशासन को सलाह-मशविरा दे सकती हैं। साथ ही क्षेत्र के विकास हेतु रचनात्मक कार्यक्रम चलाने का निर्णय भी सीधे तौर पर ले सकती हैं। लोगों के अनुसार यहां अभी तक कोई भी सक्रिय संस्था/संगठन नहीं पहुंचा है। वे लोग हर संभव सहयोग करने के लिए तैयार हैं। यद्यपि हर किसी ने एक ही बात को तरजीह दी कि यहां की खेती में सुधार लाया जाय और उपज को बाहर ले जाने के लिए यातायात के बेहतर साधन सुलभ हों तो क्षेत्र में खुशहाली वापस आ सकती है।
वास्तव में वहां के लोगों द्वारा की जा रही मांग में बहुत कुछ सत्यता झलकती है, क्योंकि खेती-किसानी ही है जो ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को रोजगार दे सकती है। यह बात विभिन्न अध्ययनों से भी साबित हो चुकी है। चूंकि जब-जब उद्योग-धन्धे बन्द हुए हैं तो उसकी सबसे अधिक मार खेती पर ही पड़ी है और खेती-किसानी ने ही बेरोजगारों को काम देकर अपने आप में आत्मसात कर लिया है। अभी हाल ही के वर्षों में प्रदूषण के नाम पर दिल्ली के उद्योगों को दिल्ली से बाहर ले जाने की मुहिम के चलते बेरोजगार हुए मजदूर खेती-किसानी में ही खप गये; फिर भी आखिर क्यों सत्तासीन लोग/हमारी सरकारें खेती के प्रति उपेक्षित रवैया अपनाये हुए हैं ?
भूमण्डलीकरण के इस दौर में विकास की आपाधापी में आज किसान बुरी तरह से प्रभावित है। बहुराष्ट्रीय कंपनियां यहां की परम्परागत और जलवायुगत फसलों को धता बताकर किसानों को ज्यादा-से-ज्यादा उपज और मुनाफ़ा का झांसा देकर बीज, कैमीकल, रासायनिक उर्वरक एवं खेती के नये तरीके मुहैया कराने के नाम पर किसानों का खूब शोषण कर रही हैं। जैसा कि कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, पंजाब, केरल, तमिलनाडु, गुजरात आदि राज्यों में हुआ है, जिसके परिणामस्वरूप इन्हीं राज्यों में किसानों ने आत्महत्याएं भी की हैं। देश के अन्य राज्यों में भी वे पांव पसार रही हैं।
अतः सवाल उठता है कि खेती-किसानी को बढ़ावा देने का स्वरूप क्या होना चाहिए ? क्या नगदी फसलों के माध्यम से किसानों की आर्थिकी सुधारने की वकालत करके बीज, रासायनिक उर्वरक, कैमीकल और खेती की नयी तकनीक मुहैया कराने आदि के नाम पर मुनाफ़ाख़ोरी के लिए शोषण करने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियों को खुली छूट दी जानी चाहिए ? (जैसा कि बहुराष्ट्रीय कंपनियां देश के विभिन्न भागों में कर रही हैं), यदि सरकार अथवा कोई सामाजिक संगठन इसके लिए आगे आता है तो खेती को बढ़ावा देने के मानक क्या होंगे ? क्या वे मानक छोटे और बड़े किसानों के लिए समान रूप से लाभकारी होंगे ? अगर यह मान भी लिया जाय कि बहुराष्ट्रीय कंपनियां भारत के किसानों की दशा सुधारना चाहती हैं तो वे क्या कारण हैं जिनकी वजह से किसान आत्महत्याएं तक करने के लिए मजबूर हो रहे हैं ? यदि नहीं तो फिर क्या केंद्र अथवा राजस्थान सरकार ऐसा कुछ करने के लिए तैयार है कि लोगों की खेती पर से निर्भरता घटे। सवाल उठता है कि ऐसे में खेती-किसानी ग्रामीण लोगों की आर्थिकी सुधारने में कैसे और किस सीमा तक कामयाब सिद्ध हो सकेंगी? यद्यपि ऐसा भी नहीं है कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा अपनाये जाने वाले कृषि माध्यम लाभप्रद नहीं हैं, ज़रूरत है उन माध्यमों को विधिवत् लागू करने एवं किसानों को उपज का उचित मूल्य दिलाने के लिए बहुराष्ट्रीय कंपनियों को बाध्य करने की। क्योंकि  किसानों को उपज का समुचित मूल्य नहीं मिल पाता है। इसके लिए हमारी सरकार कानून बना कर इस बात की व्यवस्था करवा सकती है कि लागत मूल्य के अतिरिक्त उचित लाभप्रद दर पर किसानों की उपज को खरीदने के लिए बहुराष्ट्रीय कंपनियां बाध्य होंगी। साथ ही बहुराष्ट्रीय कंपनियों को भी यह बात ध्यान में रखनी होगा कि जब किसानों के पास पैसा बचेगा तभी वे अपना कारोबार फैला सकेंगी।
एक ओर सरकार द्वारा कृषि पर से सब्सिडी समाप्त करना  और दूसरी ओेर बहुराष्ट्रीय कंपनियों के बेरोकटोक प्रवेश को खुला निमंत्रण, दोनों ही किसानों के लिए उचित नहीं हैं। किसानों द्वारा की जा रहीं आत्महत्याएं इन दोनों का ही मिला-जुला परिणाम हैं। बेहतर यह होगा कि यहां के निवासी एकजुट होकर सुनियोजित ढंग से अपनी लड़ाई लड़ें। अच्छा हो कि वे किसी स्वैच्छिक संगठन, जन संगठन, हक-हकूकों की लड़ाई लड़ने वाले विभिन्न आंदोलनों के साझा मंच के साथ जुड़ कर अपनी लड़ाई खुद अपने नेतृत्व में लड़ें। यही समय की मांग है।
- अहिवरन सिंह, नामाबर नवंबर 2003


राष्ट्रीय किसानी सम्मेलन

राष्ट्रीय कृषि नीति


हाल ही में केन्द्र सरकार द्वारा घोषित नई राष्ट्रीय कृषि नीति से यह साफ जाहिर हो गया है कि वह छोटी व मध्यम खेती को उद्योग का दर्जा देकर बड़े निगमों में बदलने के लिए कटिबद्ध है और भूमि सुधारों की पूरी तरह विरोधी है। सरकार की नई कृषि नीति से किसान तबाह हुए बगैर नहीं बचेंगे। पिछले कुछ महीनों में खेती, सब्जियों, फलों, दूध और उनके उत्पादों के खुले आयात के कारण उत्पादों की  कीमतों में गिरावट आई है। किसानों को सरकार द्वारा समर्थित मूल्य से कम दामों पर अपने उत्पाद को मजबूरन बेचना पड़ रहा है। बिजली का संकट बराबर गहराता जा रहा है। एक ओर बिजली महंगी होती जा रही है तो दूसरी ओर बहुत से राज्यों में वह चार-पांच घंटे से ज्यादा नहीं मिल पा रही है। सरकार ने एनरॉन बहुराष्ट्रीय कंपनी को भारी जन विरोध के बावजूद बिजली पैदा करने का ठेका दिया, किन्तु उसके द्वारा उत्पादित बिजली इतनी अधिक महंगी है कि सरकार उससे एक यूनिट बिजली नहीं खरीदती है, अतः हर्जाने के तौर पर सरकार एनरॉन कंपनी को दस करोड़ रूपये देती है। सरकारी गोदामों में लाखों टन गेंहू सड़ रहा है, बावजूद इसके गेंहू का आयात हो रहा है। इस सब के चलते देश की लगभग चालीस प्रतिशत गरीब जनता आज भी आधे पेट सोने के लिए मजबूर है।
किसानों के प्राकृतिक संसाधन; उसकी जमीन, पानी, बीज इन तीनों का निजीकरण और निगमीकरण, जो शुरू हुआ है वह संविधान और स्वतंत्राता पर आक्रमण है। राष्ट्र हित के नाम पर निगमीकृत खेती (कॉरपोरेट फार्मिंग), ठेके पर खेती (कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग) के नाम पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा किसानों से जमीन छीना जाना; विश्व बैंक के दबाव पर नई जल नीति के आवरण में पानी का निजीकरण किया जाना किसानों के लिए गंभीर चुनौतियां हैं। जल-जंगल-जमीन पर सदियों से चले आ रहे अपने जन्म सिद्ध अधिकार को भला वे कैसे छोड़ सकते हैं लेकिन सरकार की जन विरोधी नीतियों के चलते यह सब उनके हाथों से खिसकते जा रहे हैं।
पिछले साल सरकार ने विश्व व्यापार संगठन के दबाव पर एक समझौता किया जिसके तहत, 1429 वस्तुओं के आयात पर से मात्रात्मक प्रतिबंध को हटाना है। उनमें 715 वस्तुओं पर 1 अप्रैल, 2000 से मात्रात्मक प्रतिबंध हटा लिया गया है और बाकी 714 वस्तुओं पर से 1 अप्रैल, 2001 को मात्रात्मक प्रतिबंध हटा लिया जाएगा। अभी ही तिलहन की कीमत में भारी कमी आ गयी है और सोयाबीन तथा नारियल के दाम आधे रह गए हैं। पंजाब के दूध उत्पादक परेशान हैं। केरल के नारियल उत्पादक, मध्य प्रदेश के सोयाबीन उत्पादक, राजस्थान के तिलहन उत्पादक भूख की कगार पर पहुंच चुके हैं।
कृषि उत्पादों के अनावश्यक आयात; किसानों से चक्रवृद्धि ब्याज की वसूली; भूमि विकास कर; बिजली; डीजल; उर्वरकों; बीजों; पानी; कीटनाशक दवाओं और खेती के औजारों के दामों में हो रही निरंतर बढ़ोत्तरी से गहराते संकटों से किसानों को उबारने एवं गारंटी रोजगार योजना लागू कराने के मद्देनजर राष्ट्रीय स्तर पर 19 नवम्बर, 2000 को किसान संघर्ष समिति के तत्वावधान में नई दिल्ली में राष्ट्रीय किसानी सम्मेलन का आयोजन किया गया।
किसानी सम्मेलन का मुख्य उद्देश्य था- देशभर के किसान संघों व किसानों से सम्बन्धित मुद्दों पर काम करने वाले अन्य जन संगठनों को एकजुट कर मार्च 2001 में होने वाले विश्व व्यापार संगठन में कृषि समझौते के अनुबंध पर हस्ताक्षर करने से सरकार को रोकना, और यदि सरकार ऐसा करती है तो हस्ताक्षर करने से पहले कृषि नीति की पुनर्समीक्षा करे; ताकि समझौता करते समय कोई भी पक्ष ऐसा न छूट जाए, जो किसानों के लिए अलाभकारी हो।
देश में ही नहीं पूरी दुनिया में यह गलत बयानी की जा रहा है कि किसानों को मिलने वाले अनुदान के कारण देश का वित्तीय असंतुलन बढ़ रहा है। धनी देशों के प्रभाव तथा नियंत्राण में चल रहे अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक द्वारा इस तरह के बयान देना तो समझ में आता है, क्योंकि वे तो भारत की खेती बर्बाद कर बहुराष्ट्रीय कंपनियों का उत्पाद यहां बिकवाना चाहते हैं। लेकिन दुखद बात तो यह है कि हमारी सरकार भी इसे फैला रही है। उनकी दृष्टि में भी राजस्व घाटे का सबसे बड़ा कारण डीजल, रासायनिक खाद, बिजली, खाद्यान्न आदि पर दिया जाने वाला अनुदान (सब्सिडी) है जबकि असलियत यह है कि अमेरिका एवं अन्य पश्चिमी देश अपने यहां की खेती को जितना अनुदान देते हैं, उसका पासंग भर भी अनुदान हम यहां के किसानों को नहीं देते। हम कुल अनुदान करीब 5.7 अरब डॉलर देते हैं जबकि  केवल अमेरिका अपने यहां 45 अरब डालर अनुदान देता है। हमारे देश में 63 करोड़ लोग खेती से जुड़े हैं और अमेरिका में मात्रा 90 लाख। विश्व बैंक ने भी अद्यतन रपट में कहा है कि 1990 में भारत में अनुदान कुल सरकारी खर्च का 43 प्रतिशत  था जो कि 1997 में घटकर 40 प्रतिशत रह गया। दूसरी ओर अमेरिका तथा अन्य विकसित देशों में अनुदान बढ़ता गया है। इसी अवधि में अमेरिका में अनुदान सरकारी खर्च का 50 प्रतिशत से बढ़कर 60 प्रतिशत हो गया, ब्रिटेन में 52 से 56 प्रतिशत और कनाडा में 56 प्रतिशत से 62 प्रतिशत हो गया।
इस सम्मेलन में उजड़ते किसानों, बेरोजगार नौजवानों, बंद होते कारखानों के कामगारों, अनियमित/असंगठित कामों में लगे बदहाली की जिंदगी जीने वाले करोड़ों लोगों, विस्थापन की मार से कराहते आदिवासियों का आह्वान किया गया कि वे संगठित हों और मौजूदा सरकार को मजबूर करें कि सरकार हमारी इन मांगों को मानने के लिए बाध्य हो -
1. विश्व व्यापार संगठन के तहत किये गये सभी समझौते निरस्त करे और 1429 वस्तुओं के खुले आयात का समझौता तुरंत रद्द करे। कृषि, डेयरी, फलों के आयात पर रोक लगाये।
2. भू-सुधारों का खात्मा करने वाली, किसानों के जीविकोपार्जन के आधार को नष्ट करने वाली निर्यात पर आधारित कृषि नीति को वापस ले।
3. कृषि मूल्य आयोग लागत खर्च आंकलन करते समय किसानों को कुशल कारीगर माने और उसके किसानी के मोल को लागत में शामिल करे। इसी आधार पर पैदावार की कीमत घोषित करे और किसान जितना बेचना चाहते हैं, उसे समर्थन मूल्य पर खरीदे तथा समर्थन मूल्य से कम दाम पर खरीद करने पर कानूनी रोक लगाए। इस वर्ष विभिन्न राज्यों में समर्थन मूल्य से कम मूल्य पर हुई खरीद से किसानों को हुई हानि की भरपाई के लिए केंद्र सरकार राज्य सरकारों को मुआवजा दे।
4. शहर और गांव में बिजली का वितरण समान रूप से करे। जरूरत के 3 महीनों में किसानों को पूरे 24 घंटे बिजली उपलब्ध कराये। मध्य प्रदेश के बिजली संकट को देखते हुए नेशनल ग्रिड से 1000 मेगावाट बिजली मध्य प्रदेश के किसानों को उपलब्ध कराये।
5. राजस्व आचार संहिता के तहत प्राकृतिक आपदा में सूखा को शामिल करे। लागत से दुगुना मुआवजा किसानों को दे। सूखा राहत के अन्तर्गत मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान, हरियाणा को 500-500 करोड़ रूपए की राहत राशि उपलब्ध कराये।
6. सार्वजनिक वितरण प्रणाली को मजबूत करे और बाजार के आधे दाम पर गरीबों को अनाज उपलब्ध कराये। साथ ही ‘काम के बदले अनाज’ देने की रोजगार गारंटी योजना लागू करे। इस योजना के तहत वर्ष में कम से कम 200 दिन जरूरतमंद प्रत्येक परिवार के दो सदस्यों को पंचायत स्तर पर रोजगार उपलब्ध कराये।
7. भारतीय वनस्पति तथा कृषि उत्पाद पर सभी तरह के पेटेंट को रद्द करे। पौध किस्म कानून के प्रस्तावित विधेयक को वापस ले। बीजों और जैविक संपदा की मालिक ग्राम सभा और गांव के लोगों को माने।
8. कृषि पदार्थों के प्रसंस्करण की ग्रामीण इकाईयां स्थापित करे जिन पर नियंत्राण सामुदायिक हो और इस क्षेत्रा में बहुराष्ट्रीय कंपनियों को आने की इजाजत नहीं दे।
9. खेती से जुड़ी वानिकी के प्रसार तथा फलदार एवं पर्यावरण मित्रा वृक्षों का हर साल बड़े पैमाने पर रोपण कराये और उस पर गांव की मिल्कियत तथा नियंत्राण को स्वीकार करे।
10. हाल ही में की गई डीजल एवं मिट्टी के तेल की मूल्य वृद्धि वापस ले।
11. खेतिहर मजदूरों के काम की शर्तों एवं औसत मजदूरी का निर्धारण इस तरह करे जिससे उनकी सामाजिक सुरक्षा हो सके। देश की परती भूमि पर कंपनियों तथा पूंजीपतियों के कब्जे को रोक कर भूमिहीनों को इज्जत से जीने के लिये आजीविका का साधन बनाये।
12. जनस्वास्थ्य, शिक्षा तथा अन्य सामाजिक सेवाओं पर तथा कृषि शिक्षा तथा शोध पर अधिक साधन आबंटित करे।
13. पशुपालन, मुर्गी पालन, मछली, सुअर पालन, शहद, रेशम, मधुमक्खी पालन तथा विभिन्न तरह के हस्तशिल्प तथा हस्त एवं ग्रामीण उद्योग के लिए नवीनतम उपयुक्त वैज्ञानिक ज्ञान मुहैया करे।
14. बड़े बांधों, कारखानों तथा शहरी विकास के नाम पर गांव के किसानों का विस्थापन बंद किया जाय तथा ग्राम सभा की सहमति के बगैर भू-अर्जन न करे। सिंचाई की बड़ी परियोजनाओं के बदले छोटे, कम समय एवं कम साधन से लगने वाली परियोजनाओं का जाल बिछाये।
15. चौदह वर्ष की उम्र तक समान, अनिवार्य तथा मुफ्त स्कूली शिक्षा का प्रबंध करे, जिसमें खेती, कारीगरी, पर्यावरण, स्वास्थ्य, देसी जड़ी-बूटियों, साधारण मशीनों, बिजली आदि के कामों की जानकारी शामिल हो।
16. ऐसा कार्यक्रम बनाए जिससे कि पांच साल के अंदर बेरोजगारी खत्म हो। ‘काम के बदले अनाज’ कार्यक्रम बड़े पैमाने पर शुरू करे जिससे अधिसंरचना ;प्दतिंेजतनबजनतमद्ध का निर्माण हो।  कार्यक्रम क्रियान्वयन एवं अधिसंरचनाओं का निर्माण ग्राम सभा की देख-रेख में किया जाय।
उपर्युक्त मांगों को मनवाने के लिए एक राष्ट्रव्यापी आंदोलन की जरूरत है। इसके लिए देश के तमाम किसानों, खेतिहर मजदूरों, नौजवानों को एकजुट होकर गांव-गांव में संगठन बनाकर उन सभी लोगों को गोलबंद करना होगा; जो भूमंडलीकरण, उदारीकरण तथा निजीकरण के शिकार हो रहे हैं। सम्मेलन में यह बात भी उभरी कि राजनीति में सक्रिय भागीदारी के बगैर इन नीतियों का मुकाबला नहीं किया जा सकता।
इतना तो तय है कि उपरोक्त मांगों को मनवाने, हकों को पाने के लिए आज नहीं तो कल हमें गोलबन्द होना ही पड़ेगा। यही उचित समय है गोलबन्द होने का। और यदि आज हम चूक गये तो निकट भविष्य में हमारी हालत क्या होगी यह तो हम अच्छी तरह जानते ही हैं, जिसके संकेत देश में प्रवेश कर चुकी बहुराष्ट्रीय कंपनियों से मिलने शुरू हो गये हैं और जिसकी वजह से किसान आत्महत्या तक करने को मजबूर हो रहे हैं। तो फिर देर क्यों; अपनी मांगों/हकों के समर्थन में आज ही गोलबन्द हों।

राष्ट्रीय किसानी सम्मेलन के संकल्प
राष्ट्रीय किसानी सम्मेलन में जो संकल्प लिये गये वे निम्नलिखित हैं:
1. कृषि मंडियों में समर्थन मूल्य से कम दाम पर खरीद रोकने के लिए मंडी अध्यक्षों/सचिवों का घेराव करेंगे। जिलाधीश का घेराव कर उन्हें इस आशय का आदेश जारी करने के लिए बाध्य करेंगे कि मंडी या उससे बाहर पूरे जिले में समर्थन मूल्य से कम कीमत पर खरीद न हो।
2. कृषि उत्पादों के आयातित माल को भारत भूमि पर नहीं उतरने देने के लिए बंदरगाहों का घेराव करेंगे। जिन भंडार गृहों में विदेशी कृषि उत्पादों/फलों/दुग्ध उत्पादों का भंडार किया गया है उनका घेराव करेंगे तथा जिन दुकानों पर इन उत्पादों को बेचा जाएगा उन पर धरना देंगे और लोगों से आग्रह करेंगे कि वे विदेशी माल न खरीदें।
3. कृषि उत्पाद के लागत खर्च में किसानों के श्रम का मूल्य कारखाने के कुशल मजदूर के पारिश्रमिक के बराबर जुड़वाने के लिए कृषि मूल्य आयोग/कृषि मंत्रालय को ग्राम पंचायतों/ग्राम सभाओं द्वारा प्रस्ताव पास करा कर भेजेंगे।
4. बहुराष्ट्रीय कंपनियों को किसानों की जमीन किराये पर लेने/खरीदने नहीं देंगे और उन जमीनों पर कम्पनियों का कब्जा नहीं होने देंगे।
5. भारतीय खाद्य निगम भंडार गृहों/कार्यालयों का घेराव कर अनाज को जरूरतमंदों के बीच बाजार के आधे दाम पर उपलब्ध कराने के लिए बाध्य करेंगे।
6. राजस्व आचार संहिता के तहत पटवारी द्वारा दर्ज की गई अनाबारी को ग्राम सभा द्वारा प्रमाणित करा कर ही शासन द्वारा अनाबारी स्वीकार किये जाने हेतु ग्राम सभा में प्रस्ताव पारित कर राज्यों के मुख्य मंत्रियों को भेजेंगे।
7. जिला विद्युत बोर्ड के अधिकारियों, राज्य स्तर पर ऊर्जा मंत्रियों का घेराव कर शहर और गांव में बिजली की समान आपूर्ति के लिए बाध्य करेंगे।
8. बैंकों का घेराव कर चक्रवृद्धि ब्याज की वसूली रोकने तथा मूलधन के दूने से अधिक वसूली रोकने की मांग करेंगे।
- अहिवरन सिंह; नामाबर जनवरी 2001