राष्ट्रीय किसानी सम्मेलन
राष्ट्रीय कृषि नीति
हाल ही में केन्द्र सरकार द्वारा घोषित नई राष्ट्रीय कृषि नीति से यह साफ जाहिर हो गया है कि वह छोटी व मध्यम खेती को उद्योग का दर्जा देकर बड़े निगमों में बदलने के लिए कटिबद्ध है और भूमि सुधारों की पूरी तरह विरोधी है। सरकार की नई कृषि नीति से किसान तबाह हुए बगैर नहीं बचेंगे। पिछले कुछ महीनों में खेती, सब्जियों, फलों, दूध और उनके उत्पादों के खुले आयात के कारण उत्पादों की कीमतों में गिरावट आई है। किसानों को सरकार द्वारा समर्थित मूल्य से कम दामों पर अपने उत्पाद को मजबूरन बेचना पड़ रहा है। बिजली का संकट बराबर गहराता जा रहा है। एक ओर बिजली महंगी होती जा रही है तो दूसरी ओर बहुत से राज्यों में वह चार-पांच घंटे से ज्यादा नहीं मिल पा रही है। सरकार ने एनरॉन बहुराष्ट्रीय कंपनी को भारी जन विरोध के बावजूद बिजली पैदा करने का ठेका दिया, किन्तु उसके द्वारा उत्पादित बिजली इतनी अधिक महंगी है कि सरकार उससे एक यूनिट बिजली नहीं खरीदती है, अतः हर्जाने के तौर पर सरकार एनरॉन कंपनी को दस करोड़ रूपये देती है। सरकारी गोदामों में लाखों टन गेंहू सड़ रहा है, बावजूद इसके गेंहू का आयात हो रहा है। इस सब के चलते देश की लगभग चालीस प्रतिशत गरीब जनता आज भी आधे पेट सोने के लिए मजबूर है।
किसानों के प्राकृतिक संसाधन; उसकी जमीन, पानी, बीज इन तीनों का निजीकरण और निगमीकरण, जो शुरू हुआ है वह संविधान और स्वतंत्राता पर आक्रमण है। राष्ट्र हित के नाम पर निगमीकृत खेती (कॉरपोरेट फार्मिंग), ठेके पर खेती (कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग) के नाम पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा किसानों से जमीन छीना जाना; विश्व बैंक के दबाव पर नई जल नीति के आवरण में पानी का निजीकरण किया जाना किसानों के लिए गंभीर चुनौतियां हैं। जल-जंगल-जमीन पर सदियों से चले आ रहे अपने जन्म सिद्ध अधिकार को भला वे कैसे छोड़ सकते हैं लेकिन सरकार की जन विरोधी नीतियों के चलते यह सब उनके हाथों से खिसकते जा रहे हैं।
पिछले साल सरकार ने विश्व व्यापार संगठन के दबाव पर एक समझौता किया जिसके तहत, 1429 वस्तुओं के आयात पर से मात्रात्मक प्रतिबंध को हटाना है। उनमें 715 वस्तुओं पर 1 अप्रैल, 2000 से मात्रात्मक प्रतिबंध हटा लिया गया है और बाकी 714 वस्तुओं पर से 1 अप्रैल, 2001 को मात्रात्मक प्रतिबंध हटा लिया जाएगा। अभी ही तिलहन की कीमत में भारी कमी आ गयी है और सोयाबीन तथा नारियल के दाम आधे रह गए हैं। पंजाब के दूध उत्पादक परेशान हैं। केरल के नारियल उत्पादक, मध्य प्रदेश के सोयाबीन उत्पादक, राजस्थान के तिलहन उत्पादक भूख की कगार पर पहुंच चुके हैं।
कृषि उत्पादों के अनावश्यक आयात; किसानों से चक्रवृद्धि ब्याज की वसूली; भूमि विकास कर; बिजली; डीजल; उर्वरकों; बीजों; पानी; कीटनाशक दवाओं और खेती के औजारों के दामों में हो रही निरंतर बढ़ोत्तरी से गहराते संकटों से किसानों को उबारने एवं गारंटी रोजगार योजना लागू कराने के मद्देनजर राष्ट्रीय स्तर पर 19 नवम्बर, 2000 को किसान संघर्ष समिति के तत्वावधान में नई दिल्ली में राष्ट्रीय किसानी सम्मेलन का आयोजन किया गया।
किसानी सम्मेलन का मुख्य उद्देश्य था- देशभर के किसान संघों व किसानों से सम्बन्धित मुद्दों पर काम करने वाले अन्य जन संगठनों को एकजुट कर मार्च 2001 में होने वाले विश्व व्यापार संगठन में कृषि समझौते के अनुबंध पर हस्ताक्षर करने से सरकार को रोकना, और यदि सरकार ऐसा करती है तो हस्ताक्षर करने से पहले कृषि नीति की पुनर्समीक्षा करे; ताकि समझौता करते समय कोई भी पक्ष ऐसा न छूट जाए, जो किसानों के लिए अलाभकारी हो।
देश में ही नहीं पूरी दुनिया में यह गलत बयानी की जा रहा है कि किसानों को मिलने वाले अनुदान के कारण देश का वित्तीय असंतुलन बढ़ रहा है। धनी देशों के प्रभाव तथा नियंत्राण में चल रहे अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक द्वारा इस तरह के बयान देना तो समझ में आता है, क्योंकि वे तो भारत की खेती बर्बाद कर बहुराष्ट्रीय कंपनियों का उत्पाद यहां बिकवाना चाहते हैं। लेकिन दुखद बात तो यह है कि हमारी सरकार भी इसे फैला रही है। उनकी दृष्टि में भी राजस्व घाटे का सबसे बड़ा कारण डीजल, रासायनिक खाद, बिजली, खाद्यान्न आदि पर दिया जाने वाला अनुदान (सब्सिडी) है जबकि असलियत यह है कि अमेरिका एवं अन्य पश्चिमी देश अपने यहां की खेती को जितना अनुदान देते हैं, उसका पासंग भर भी अनुदान हम यहां के किसानों को नहीं देते। हम कुल अनुदान करीब 5.7 अरब डॉलर देते हैं जबकि केवल अमेरिका अपने यहां 45 अरब डालर अनुदान देता है। हमारे देश में 63 करोड़ लोग खेती से जुड़े हैं और अमेरिका में मात्रा 90 लाख। विश्व बैंक ने भी अद्यतन रपट में कहा है कि 1990 में भारत में अनुदान कुल सरकारी खर्च का 43 प्रतिशत था जो कि 1997 में घटकर 40 प्रतिशत रह गया। दूसरी ओर अमेरिका तथा अन्य विकसित देशों में अनुदान बढ़ता गया है। इसी अवधि में अमेरिका में अनुदान सरकारी खर्च का 50 प्रतिशत से बढ़कर 60 प्रतिशत हो गया, ब्रिटेन में 52 से 56 प्रतिशत और कनाडा में 56 प्रतिशत से 62 प्रतिशत हो गया।
इस सम्मेलन में उजड़ते किसानों, बेरोजगार नौजवानों, बंद होते कारखानों के कामगारों, अनियमित/असंगठित कामों में लगे बदहाली की जिंदगी जीने वाले करोड़ों लोगों, विस्थापन की मार से कराहते आदिवासियों का आह्वान किया गया कि वे संगठित हों और मौजूदा सरकार को मजबूर करें कि सरकार हमारी इन मांगों को मानने के लिए बाध्य हो -
1.
विश्व व्यापार संगठन के तहत किये गये सभी समझौते निरस्त करे और 1429 वस्तुओं के खुले आयात का समझौता तुरंत रद्द करे। कृषि, डेयरी, फलों के आयात पर रोक लगाये।
2.
भू-सुधारों का खात्मा करने वाली, किसानों के जीविकोपार्जन के आधार को नष्ट करने वाली निर्यात पर आधारित कृषि नीति को वापस ले।
3.
कृषि मूल्य आयोग लागत खर्च आंकलन करते समय किसानों को कुशल कारीगर माने और उसके किसानी के मोल को लागत में शामिल करे। इसी आधार पर पैदावार की कीमत घोषित करे और किसान जितना बेचना चाहते हैं, उसे समर्थन मूल्य पर खरीदे तथा समर्थन मूल्य से कम दाम पर खरीद करने पर कानूनी रोक लगाए। इस वर्ष विभिन्न राज्यों में समर्थन मूल्य से कम मूल्य पर हुई खरीद से किसानों को हुई हानि की भरपाई के लिए केंद्र सरकार राज्य सरकारों को मुआवजा दे।
4.
शहर और गांव में बिजली का वितरण समान रूप से करे। जरूरत के 3 महीनों में किसानों को पूरे 24 घंटे बिजली उपलब्ध कराये। मध्य प्रदेश के बिजली संकट को देखते हुए नेशनल ग्रिड से 1000 मेगावाट बिजली मध्य प्रदेश के किसानों को उपलब्ध कराये।
5.
राजस्व आचार संहिता के तहत प्राकृतिक आपदा में सूखा को शामिल करे। लागत से दुगुना मुआवजा किसानों को दे। सूखा राहत के अन्तर्गत मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान, हरियाणा को 500-500 करोड़ रूपए की राहत राशि उपलब्ध कराये।
6.
सार्वजनिक वितरण प्रणाली को मजबूत करे और बाजार के आधे दाम पर गरीबों को अनाज उपलब्ध कराये। साथ ही ‘काम के बदले अनाज’ देने की रोजगार गारंटी योजना लागू करे। इस योजना के तहत वर्ष में कम से कम 200 दिन जरूरतमंद प्रत्येक परिवार के दो सदस्यों को पंचायत स्तर पर रोजगार उपलब्ध कराये।
7.
भारतीय वनस्पति तथा कृषि उत्पाद पर सभी तरह के पेटेंट को रद्द करे। पौध किस्म कानून के प्रस्तावित विधेयक को वापस ले। बीजों और जैविक संपदा की मालिक ग्राम सभा और गांव के लोगों को माने।
8.
कृषि पदार्थों के प्रसंस्करण की ग्रामीण इकाईयां स्थापित करे जिन पर नियंत्राण सामुदायिक हो और इस क्षेत्रा में बहुराष्ट्रीय कंपनियों को आने की इजाजत नहीं दे।
9.
खेती से जुड़ी वानिकी के प्रसार तथा फलदार एवं पर्यावरण मित्रा वृक्षों का हर साल बड़े पैमाने पर रोपण कराये और उस पर गांव की मिल्कियत तथा नियंत्राण को स्वीकार करे।
10.
हाल ही में की गई डीजल एवं मिट्टी के तेल की मूल्य वृद्धि वापस ले।
11.
खेतिहर मजदूरों के काम की शर्तों एवं औसत मजदूरी का निर्धारण इस तरह करे जिससे उनकी सामाजिक सुरक्षा हो सके। देश की परती भूमि पर कंपनियों तथा पूंजीपतियों के कब्जे को रोक कर भूमिहीनों को इज्जत से जीने के लिये आजीविका का साधन बनाये।
12.
जनस्वास्थ्य, शिक्षा तथा अन्य सामाजिक सेवाओं पर तथा कृषि शिक्षा तथा शोध पर अधिक साधन आबंटित करे।
13.
पशुपालन, मुर्गी पालन, मछली, सुअर पालन, शहद, रेशम, मधुमक्खी पालन तथा विभिन्न तरह के हस्तशिल्प तथा हस्त एवं ग्रामीण उद्योग के लिए नवीनतम उपयुक्त वैज्ञानिक ज्ञान मुहैया करे।
14.
बड़े बांधों, कारखानों तथा शहरी विकास के नाम पर गांव के किसानों का विस्थापन बंद किया जाय तथा ग्राम सभा की सहमति के बगैर भू-अर्जन न करे। सिंचाई की बड़ी परियोजनाओं के बदले छोटे, कम समय एवं कम साधन से लगने वाली परियोजनाओं का जाल बिछाये।
15.
चौदह वर्ष की उम्र तक समान, अनिवार्य तथा मुफ्त स्कूली शिक्षा का प्रबंध करे, जिसमें खेती, कारीगरी, पर्यावरण, स्वास्थ्य, देसी जड़ी-बूटियों, साधारण मशीनों, बिजली आदि के कामों की जानकारी शामिल हो।
16.
ऐसा कार्यक्रम बनाए जिससे कि पांच साल के अंदर बेरोजगारी खत्म हो। ‘काम के बदले अनाज’ कार्यक्रम बड़े पैमाने पर शुरू करे जिससे अधिसंरचना ;प्दतिंेजतनबजनतमद्ध का निर्माण हो। कार्यक्रम क्रियान्वयन एवं अधिसंरचनाओं का निर्माण ग्राम सभा की देख-रेख में किया जाय।
उपर्युक्त मांगों को मनवाने के लिए एक राष्ट्रव्यापी आंदोलन की जरूरत है। इसके लिए देश के तमाम किसानों, खेतिहर मजदूरों, नौजवानों को एकजुट होकर गांव-गांव में संगठन बनाकर उन सभी लोगों को गोलबंद करना होगा; जो भूमंडलीकरण, उदारीकरण तथा निजीकरण के शिकार हो रहे हैं। सम्मेलन में यह बात भी उभरी कि राजनीति में सक्रिय भागीदारी के बगैर इन नीतियों का मुकाबला नहीं किया जा सकता।
इतना तो तय है कि उपरोक्त मांगों को मनवाने, हकों को पाने के लिए आज नहीं तो कल हमें गोलबन्द होना ही पड़ेगा। यही उचित समय है गोलबन्द होने का। और यदि आज हम चूक गये तो निकट भविष्य में हमारी हालत क्या होगी यह तो हम अच्छी तरह जानते ही हैं, जिसके संकेत देश में प्रवेश कर चुकी बहुराष्ट्रीय कंपनियों से मिलने शुरू हो गये हैं और जिसकी वजह से किसान आत्महत्या तक करने को मजबूर हो रहे हैं। तो फिर देर क्यों; अपनी मांगों/हकों के समर्थन में आज ही गोलबन्द हों।
राष्ट्रीय किसानी सम्मेलन के संकल्प
राष्ट्रीय किसानी सम्मेलन में जो संकल्प लिये गये वे निम्नलिखित हैं:
1.
कृषि मंडियों में समर्थन मूल्य से कम दाम पर खरीद रोकने के लिए मंडी अध्यक्षों/सचिवों का घेराव करेंगे। जिलाधीश का घेराव कर उन्हें इस आशय का आदेश जारी करने के लिए बाध्य करेंगे कि मंडी या उससे बाहर पूरे जिले में समर्थन मूल्य से कम कीमत पर खरीद न हो।
2.
कृषि उत्पादों के आयातित माल को भारत भूमि पर नहीं उतरने देने के लिए बंदरगाहों का घेराव करेंगे। जिन भंडार गृहों में विदेशी कृषि उत्पादों/फलों/दुग्ध उत्पादों का भंडार किया गया है उनका घेराव करेंगे तथा जिन दुकानों पर इन उत्पादों को बेचा जाएगा उन पर धरना देंगे और लोगों से आग्रह करेंगे कि वे विदेशी माल न खरीदें।
3.
कृषि उत्पाद के लागत खर्च में किसानों के श्रम का मूल्य कारखाने के कुशल मजदूर के पारिश्रमिक के बराबर जुड़वाने के लिए कृषि मूल्य आयोग/कृषि मंत्रालय को ग्राम पंचायतों/ग्राम सभाओं द्वारा प्रस्ताव पास करा कर भेजेंगे।
4.
बहुराष्ट्रीय कंपनियों को किसानों की जमीन किराये पर लेने/खरीदने नहीं देंगे और उन जमीनों पर कम्पनियों का कब्जा नहीं होने देंगे।
5.
भारतीय खाद्य निगम भंडार गृहों/कार्यालयों का घेराव कर अनाज को जरूरतमंदों के बीच बाजार के आधे दाम पर उपलब्ध कराने के लिए बाध्य करेंगे।
6.
राजस्व आचार संहिता के तहत पटवारी द्वारा दर्ज की गई अनाबारी को ग्राम सभा द्वारा प्रमाणित करा कर ही शासन द्वारा अनाबारी स्वीकार किये जाने हेतु ग्राम सभा में प्रस्ताव पारित कर राज्यों के मुख्य मंत्रियों को भेजेंगे।
7.
जिला विद्युत बोर्ड के अधिकारियों, राज्य स्तर पर ऊर्जा मंत्रियों का घेराव कर शहर और गांव में बिजली की समान आपूर्ति के लिए बाध्य करेंगे।
8.
बैंकों का घेराव कर चक्रवृद्धि ब्याज की वसूली रोकने तथा मूलधन के दूने से अधिक वसूली रोकने की मांग करेंगे।
- अहिवरन सिंह; नामाबर जनवरी 2001