Tuesday, July 1, 2014

‘आम जन’: मुट्ठीभर लोगों के हाथ की कठपुतली


हमारी आजादी के लड़ाकों- तिलक, गांधी, भगत सिंह, द्वारा भारतीय जन, जिनमें ग़रीब, दलित, पीड़ित तथा औरतों वाला असली भारत शामिल है उनकी पहचान कर उत्थान किया जाना सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण कार्य माना गया था। सामाजिक सुधार पहले या आजादी की लड़ाई, यह सवाल तो महाराष्ट्र और बंगाल के कतिपय सुधारकों, विचारकों ने बीसवीं सदी के प्रारंभ में उठाया था। इस पर रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने कहा था- ‘हमारी समस्या सामाजिक और सांस्कृतिक है, राजनीतिक नहीं।’ अतः समस्याओं के समाधान राजनीतिक बिना पर कभी नहीं किये जाने चाहिए। जैसा कि हमारे देश की केंद्रीय एवम् राज्य सत्ताओं द्वारा किया जा रहा है। लोकतंत्र तो कुछ मुट्ठीभर लोगों की जन्नत भर है। ऐसे लोग तो ये मान बैठे हैं कि वे पैदा ही हुए हैं, लोकतंत्र रूपी जन्नत का मजा लूटने के लिए; और ग़रीब, दलित, पीड़ित तथा औरतें तो पैदा ही होते हैं प्रताड़ित एवं शोषित होने के लिए। अपनी इसी नियति के चलते वे बेधड़क होकर दोहन करते हैं। जरूरत पड़ने पर संविधान संशोधनों के माध्यम से अपना पक्ष मजबूत करने से भी वे बाज नहीं आते। निजी उद्योग, बसों के परमिट, गैस एजेंसी, पेट्रोल पंप, पांच सितारा होटल, सरकारी ठेके आदि पर तो मानों उनका जन्मसिद्ध अधिकार है। इस मंडली में शामिल हैं- पूंजीपति, राजनेता, सत्तानशीं, माफिया, अपराधी, ताकतवर गुंडे, अभिनेता आदि। इनके अपने निजी नियम-कायदे होते हैं। आज के लोकतंत्र की असली सूरत यही है जहां विज्ञापन ही क्रांति है, सूचना ही विचार है, आभास और भ्रम ही सत्य है। भूमंडलीकरण के चलते वैसे भी आम जन की हालत बद-से-बदतर होती जा रही है। तीव्र गति से सम्पन्नता और विपन्नता की खाई के बढ़ते फासले के चलते समाज में अनेक भयावह विकृतियां जन्म ले चुकी हैं। सब ओर हाहाकार मची हुई है। त्रस्त है आम जन। जैसा पहले से ही होता आ रहा है, पुनश्च, पुनश्च वही दुहराया जा रहा है। रोजगार के अवसर समाप्त किये जा रहे हैं। बड़ी और बहुराष्ट्रीय कंपनियों को बेचे जा रहे हैं सारे संसाधन।
विकास की चकाचौंध के बावजूद आम जन असुरक्षा, अवसाद से ग्रस्त है या फिर राजनीतिक अवसाद से, जिसमें उसका सिर्फ इस्तेमाल होता है। सबसे अधिक रोजगार प्रदाता कृषि क्षेत्र, और अन्नदाता किसान को मुनाफे की फसल वाला लालीपॉप देकर ऐसा फसाया कि वह आत्महत्याएं करने को मजबूर हुआ। बहुराष्ट्रीय कंपनियों को परमिट देते समय हमारे नीति नियामक यह भूल ही गयेे कि विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा तैयार बीज और कीटनाशक तो उनके अपने देश की जलवायु और तापमान के हिसाब से तैयार किये गये हैं अतः हमारे देश की जलवायु और तापमान में वे पूरी तरह कैसे फलीभूत हो सकते हैं। यदि कोई बहुराष्ट्रीय कंपनी हमारे देश में बीज और कीटनाशक तैयार करती भी है तो क्या गारंटी है कि वह बेतहाशा मुनाफा नहीं कमाएगी; क्योंकि वह कंपनी स्थापित ही की गई है ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने के लिए। बेरोजगारी, गरीबी, महंगाई और मिलावट से त्रस्त, कुपोषण और रोगों से करोड़ों-करोड़ पीड़ितों की किसी को सुध नहीं। जो बच रहा है उसे गरीब, पिछड़े इलाके और हाशिए पर धकेल दिए गए निम्न मध्य वर्ग के लोग ही बचाए हुए हैं। वे ही लोकतंत्र के सच्चे प्रहरी हैं। कुछ मुद्दे, सवाल, जिनको लेकर अखबारों में संपादकों और स्तंभकारों ने लगातार चिंता, रोष प्रकट किया है, वे लोकतंत्र के मौजूदा स्वरूप और जनप्रतिनिधियों के आचरण पर कठोर टिप्पणी की तरह हैं। सुरक्षा, भाषा, परंपरा, संस्कृति, सम्मान, जमीन को कॉर्पोरेट कल्चर विस्थापित कर रहा है।
एक किरण चमकी थी सूचना के अधिकार के रूप में आम जन को असलियत जानने की, हक-हकूकों को पाने की मंजिल तक पहुंचने की; परन्तु राजनीति के दलालों ने सत्तानशीं भ्रष्ट लोगों को सुरक्षा कवच पहनाने की दृष्टि से उसमें भी संशोधन की मंशा जाहिर कर दी है। जिन हालातों में सत्ता पलट हुआ और संप्रग गठबन्धन बना, जिसमें वामपंथी भी शामिल हैं, उस परिप्रेक्ष्य में आम जन को कुछ अधिक अपेक्षाएं जगी थीं केंद्रीय सत्ता से। किन्तु जैसा हर बार होता रहा है उसी बिना पर पुनः ठगा गया आम जन, और धरी की धरी रह गयी जनमत संग्रह और जन-कल्याण की गुहार पर तय आस्था। अपनी गरिमा, पहचान, अस्तित्व के लिए सजग एकजुट जनता ही प्रतिकार कर सकती है। विचारों का अकाल नहीं है, बस जरूरत है उन्हें पिरोने की, संकलित करने की, कसौटी पर कसने की और मौका देने की।
ऐसे में इन आम जन को स्वयं ही बनना होगा अपना मसीहा। इस खतरे का मुकाबला सिर्फ बातचीत के बूते संभव नहीं है। तुरन्त जरूरत है एक नये जोश के साथ, सजग, तार्किक जन आंदोलन की।
- अहिवरन सिंह, नामाबर सितंबर 2006

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