Tuesday, July 1, 2014

जनसुनवाई: दिल्ली

जनसुनवाई ने खोली ‘सार्वजनिक वितरण प्रणाली’ की पोल


कुछ राज्यों और केंद्र में ‘सूचना के अधिकार का कानून’ बनने से  लोगों को अब यह पता चल रहा है कि सूचना के अधिकार की ताकत भ्रष्टाचार की जड़ें काट सकती है। सूचना के अधिकार के माध्यम से स्वच्छ शासन देने के लिए केन्द्र व राज्य सरकारों को मजबूर किया जा सकता है। परन्तु सरकार और सरकारी नुमाइन्दे कभी नहीं चाहते कि उनकी सत्ता में कमी आए। वे सदियों से लोगों को दगा देते आ रहे हैं और व्यवस्था को अनवरत यों ही जारी रखना चाहते हैं। इसलिए वे कानून के क्रियान्वयन में लगातार रोड़ा अटकाते हैं। लेकिन अब समय आ गया है उनकी पोल खोलने का, उनकी हकीकत जानने का, तथा उनसे सही दिशा में काम करवाने का। यह सब तब तक संभव नहीं हो सकता जब तक सूचना के अधिकार का बढ़-चढ़ कर इस्तेमाल न किया जाए।
इसी सिलसिले में दिल्ली के आर.के.पुरम् सेक्टर-6 की एकता विहार बस्ती में 8 अक्टूबर 2004 को एक जनसुनवाई का आयोजन किया गया। इस जनसुनवाई में देश के अधिकांश राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों से आये लोगों ने शिरकत की। उन्होंने बारी-बारी से अपने-अपने क्षेत्रों में राशन के संबंध में क्या-क्या धांधलियां हो रही हैं, उनसे वे लोग किस तरह से निपट रहे हैं, उनके द्वारा इस संबंध में क्या-क्या प्रयास किये गये हैं ? ये सारे अनुभव उपस्थित जन समुदाय के सामने रखे।
कार्यक्रम की शुरूआत राजस्थान से आये राधारमण हेला ख्याल पार्टी, गुण्डाल, गंगापुर के गायन-वादन से हुई। जनसुनवाई के लिए एक पैनल बिठाया गया था। इस पैनल में वरिष्ठ पत्रकार श्री कुलदीप नैयर, वरिष्ठ पत्रकार श्री प्रभाष जोशी, सामाजिक कार्यकर्ता सुश्री अरूणा राय, वरिष्ठ पत्रकार श्री भारत डोगरा, श्री सुरंेद्र मोहन, प्रसिद्ध पर्यावरणविद् श्री शेखर सिंह, श्री हरिवंश (संपादक, प्रभात खबर, झारखण्ड), सुश्री सुमन सहाय, सुश्री मधु बहादुरी, सामाजिक कार्यकर्ता सुमित चक्रवर्ती तथा कल्पना कन्नाभिरामन शामिल थे।
इसके पूर्व सामाजिक संस्था परिवर्तन (दिल्ली) द्वारा छात्र/छात्राओं से सर्वे करवाया गया था। सर्वे कार्य में जुटी टीम ने सर्वे के दौरान तमाम तरह की परेशानियां झेलते हुए राशन लाइसेंस धारकों द्वारा की जा रही धांधलियों का पता लगाया। इसके लिए उन्होंने खाद्य एवं आपूर्ति विभाग के भी चक्कर लगाये। किसी तरह वे प्रमाण जुटा सकने में सफल हुए। तमाम स्थानीय लोगों ने बताया कि राशन वाले पहले तो राशन देते ही नहीं। और यदि साल में एक या दो बार देते भी हैं तो वह इतना गंदा होता है जिसे जानवर भी खाने में परहेज करेगा। एक महिला ने तो राशन में मिलने वाले गेहूं का नमूना भी पैनल को दिखाया। देखने में आया कि जो गेहूं महिला को दिया गया था उसमें कूड़ा ही कूड़ा था, गेहूं तो नाममात्र के लिए थे।
सूचना के जनाधिकार के तहत दिल्ली के तमाम क्षेत्रों में जो सर्वे किया गया था उसकी जानकारी श्री अरविंद केजरीवाल ने दी। इस सर्वे की शुरूआत जनवरी 2004 में की गई। उन्होंने बताया कि दिल्ली में करीब 15 अलग-अलग स्थानों पर इसके तहत कार्यवाही की गयी है। इनमें से एकता विहार (आर.के.पुरम, सेक्टर-6); त्रिलोकपुरी, कल्याणपुरी, करावलनगर, वेलकम, सीमापुरी, सुन्दरनगरी, दक्षिणपुरी आदि बस्तियों से लोग अपनी बात रखने के लिए यहां पहुंचे हुए थे। रिकार्ड हासिल करने के दौरान विभागीय कर्मचारियों से तमाम तरह की नो-झोंक हुई। आखिर किसी तरह अधिकारियों ने रिकार्ड उपलब्ध करवाए। इनमें से भी कुछ स्थानों के रिकार्ड विभागीय अधिकारियों की आपाधापी के चलते आधे-अधूरे ही हासिल हो सके। सभी रिकार्डों में बेतहाशा गड़बड़ियां पाई गईं। इन गड़बड़ियों के साक्ष्य (रिकार्डों की फोटो प्रतियां) उदाहरण स्वरूप लोगों के सामने पेश किए गए। साक्ष्यों के आधार पर निम्न मुख्य बिन्दु उभर कर सामने आए -
प्रत्येक केन्द्र पर रिकार्डों में गड़बड़ियां थीं।
दैनिक बिक्री रजिस्टर फर्जी पाये गये, जिनमें राशनकार्ड धारकों को राशन न मिलने पर भी गलत प्रविष्टियां पाई गईं।
कई लोगों के राशन कार्डों पर पिछले कई महीनों से  राशन लेने की कोई प्रविष्टि दर्ज नहीं थी, लेकिन दैनिक बिक्री खाता रजिस्टर में उनके नाम व कार्ड नं पर कई-कई किलो राशन देने की प्रविष्टियां फर्जी हस्ताक्षर करके दर्ज की गयी थीं।
शिकायत पाई गई कि राशन की दुकानें महीने में 5-6 दिन ही खुलती हैं।
कुछ दुकानदार तो राशन के दाम भी ज्यादा वसूलते पाए गये।
राशन बहुत गंदा मिलता है।
नए राशन कार्ड मंजूर नहीं किये जा रहे हैं।
गैरसरकारी संस्थाओं के कार्यकर्ताओं द्वारा कराये गये सर्वे से यह भी साबित हुआ कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली में भ्रष्टाचार व गड़बड़ियों का शिकार सबसे अधिक दलित, आदिवासी व पिछड़े लोगों को होना पड़ता है। पहले तो इन्हें राशन कार्ड ही नहीं दिये जाते। यदि वे किसी प्रकार राशन कार्ड हासिल भी कर लेते हैं तो उन्हें राशन मुहैया नहीं हो पाता।
सर्वे टीम ने राशन कार्ड एवं रजिस्टर की फोटो कॉपियां दिखायीं। राशन कार्डों में खाली पड़े कालम साफ बता रहे थे कि महीनों से उन्हें राशन कार्ड पर मिलने वाली वस्तुएं नहीं मिल रही हैं, जबकि दूसरी तरफ राशन की दुकान वालों के रजिस्टर की फोटो कॉपियां कह रही थीं कि सभी राशन कार्ड धारकों को सभी वस्तुएं नियमित मिल रही हैं। जनसुनवाई में पहुंचे अनेक कार्ड धारकों ने बारी-बारी से पैनल को अपने-अपने कार्ड दिखाए और बताया कि राशन की दुकान वाले बार-बार चक्कर लगाने के बावजूद भी राशन नहीं उपलब्ध करवाते हैं। राशन की दुकानें अक्सर बन्द रहती हैं। महीने में यदि चार-पांच दिन दुकानें खुलती भी हैं तो कुछ राशन कार्ड धारक तो राशन ले लेते हैं, शेष कार्ड धारकों को यह कह कर भगा दिया जाता है कि राशन कम मिला था अतः खत्म हो गया।
कितने शर्म की बात है कि गरीबी की रेखा से नीचे जीवन निर्वाह करने वाले लोगों के लिए दो समय का भोजन उलब्ध करवाने की दृष्टि से सरकार जिस राशन को कार्ड के माध्यम से उपलबध करवाती है, उसे राशन के दुकान मालिक ब्लैक में बेच कर मोटी कमाई करने के धंधे में लगे हुए हैं। इस काम में केवल दुकान मालिक ही नहीं बल्कि खाद्य एवं आपूर्ति विभाग के अन्य अधिकारी भी लिप्त हैं। यह बात इससे और स्पष्ट होती है कि जनसुनवाई के दौरान एकता विहार, आर.के.पुरम. सैक्टर-6, नई दिल्ली के एक राशन की दुकान के लाइसेंसधारी श्री रमेश गुप्ता ने इस खामी को स्वीकारा कि हमें ऊपर से (विभाग से) ही राशन का सामान कम मिलता है तो हम गरीबों में वितरित करने के लिए कहां से लायें। साथ ही विभाग के अधिकारियों को मोटी रकम घूस में खिलानी पड़ती है। ऐसे में अगर हम ईमानदारी से राशन वितरित करेंगे तो कहां से लाएंगे और क्या कमाएंगे ? कार्यक्रम के दौरान अगले दिन उस दुकान मालिक ने बताया कि खाद्य एवं आपूर्ति विभाग के अधिकारियों ने उसकी दुकान का लाइसेन्स रद्द कर दिया है। इससे यह पता चलता है कि जनसुनवाई दोषी को दण्ड दिलवाने में कितनी कारगर हो सकती है।  
इससे यह बात भी स्पष्ट होती है कि यदि हम अपने पर हो रही ज्यादतियों के बारे में आवाज उठायें और निरन्तर उठाते रहें तो उन ज्यादतियों को रोका जा सकता है। यह बात उन उदाहरणों से और स्पष्ट हुई जोकि विभिन्न राज्यों द्वारा आये हुए प्रतिभागियों द्वारा बताईं गयीं कि किस तरह उन्होंने निरन्तर कार्यशील और आंदोलनरत रहते हुए सफलताएं हासिल कीं। इस संबंध में सबसे बेहतरीन उदाहरण छत्तीसगढ़ या महाराष्ट्र का हो सकता है।
छत्तीसगढ़ से आये साथी ने बताया कि छत्तीसगढ़ में राशन की दुकानें नियमित नहीं खुलती थीं। राशन समय पर नहीं मिलता था। पूरी मात्रा में नहीं मिलता था। यदाकदा किसी को मिल भी जाता था तो वह इतना ज्यादा गंदा होता था कि उसे खाकर लोग बीमार तक पड़ जाते थे। सरकार द्वारा तय दर से अधिक भुगतान करना पड़ता था। इस काम में सरकारी कर्मचारी भी लिप्त पाये गये। अनियमितताओं और मनमानी के चलते लोगों ने तंग आकर राशन लेना बंद कर दिया और उन्होंने राशन की दुकान वालों के खिलाफ आंदोलन छेड़ दिया। लोगों ने खाद्य एवं आपूर्ति विभाग के खिलाफ भी आंदोलन छेड़ा। लोगों ने जानकारी हासिल करनी चाही कि उनके लिए जब सरकार राशन देती है तो उन्हें समय पर और उचित दर पर उलब्ध क्यों नहीं करवाया जाता है। इस काम में सरकारी कर्मचारियों ने भी आनाकानी की। किसी तरह आंदोलनकारी तथ्य जुटाने में सफल हुए। छत्तीसगढ़ में राशन की 1200 दुकानें थीं। लोगों ने इसके लिए राज्य सरकार को भी घेरा, लेकिन हल न निकल पाने की स्थिति में मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा। सुप्रीम कोर्ट नेे इसके लिए एक जांच कमेटी बनाई। जांच कमेटी के तहत पूरे छत्तीसगढ़ में 26 निरीक्षक नियुक्त किये गये।  निरीक्षकों ने पाया कि 1200 में से 1000 दुकान मालिकों द्वारा लापरवाही बरती जा रही है लिहाजा निरीक्षकों की रिपोर्ट पर 1000 दुकानों के लाइसेंस रद्द कर दिए गए। लोगों ने राहत की सांस ली और मांग की कि आदिवासियों के लिए आदिवासियों में से ही किसी संस्था, समिति या फिर ग्राम पंचायतों को राशन वितरण की जिम्मेदारी दी जानी चाहिए। वहां यह व्यवस्था लागू की जा रही है। यह जीत सूचना के जन अधिकार के चलते ही मिल सकी है।
देश के लगभग हर राज्य से पधारे प्रतिभागियों ने अपने-अपने राज्य/क्षेत्र में पायी जाने वाली अनियमितताओं के बारे में बताया। आखिर यह पाया गया कि राशन के मामले में पाई जाने वाली अनियमितताएं पूरे देश में लगभग समान थीं। इतनी अधिक साम्यता थी कि लग रहा था कि पूरे देश में राशन लाइसेंस धारकों का जबरदस्त नेटवर्क है।
गुजरात से आये साथी ने बताया कि सन् 1852 में अंग्रेज विरोधी गतिविधियां चलाने वाले लोगों को अंग्रेजों ने गांवों से निकाल दिया था। अंग्रेजों ने उन्हें नट का नाम दिया था। अंग्रेजों द्वारा निकाले गये लोगों ने अपनी अलग बस्ती बना ली। 1947 में देश के स्वतंत्र हो जाने के बाद से आज तक इन लोगों की कोई सुध लेने वाला नहीं है। इनके लिए न कोई सरकारी परियोजना ही बनी है। किसी तरह की सरकारी सुविधा का लाभ भी नहीं मिल रहा है। न किसी तरह का सहयोग ही मिल रहा है। आज तक किसी को राशन कार्ड भी मंजूर नहीं किये गये हैं। कैसी विडम्बना है कि देश को आजादी दिलाने के नाम पर अंग्रेजों का विरोध करने वाले लोग आज भी जंगलों में खाक छानने को मजबूर हैं। केन्द्र और राज्य सरकारें विकास के नाम पर हर साल अपनी योजनाओं/परियोजनाओं के तहत अरबों रुपये खर्च करती हैं; फिर भी आज तक इन दुखियारे लोगों तक सरकारी सुविधाएं नहीं पहुंच पा रही हैं। वैसे तो गुजरात देश का सबसे धनी राज्य कहा जाता है, परन्तु यह सब हकीकत गुजरात की ही है। बड़े शर्म की बात है कि अपने ही देश में, आज भी हक-हकूकों की लड़ाई लड़ने वाले लोगों को जंगली जानवरों की तरह जीवन जीने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है। उनका किसी सूची में नाम तक नहीं है, राशन की बात तो अलग है।
आन्ध्र प्रदेश से आये साथी का कहना था कि दलितों को राशन प्राप्त करने में और भी अधिक कठिनाइयां उठानी पड़ती हैं। यदि किसी तरह भाग-दौड़ करके कोई दलित राशन कार्ड हासिल भी कर लेता है तो उसे राशन मिल पाना बहुत मुश्किल होता है। एक और समस्या सामने आ रही है कि जहां दलितों के नाम पर राशन की दुकानों के लाइसेंस दिये जाते हैं वहां के दबंग लोग दुकानों के लाइसेंस दलितों के नाम पर ले लेते हैं। दलितों की बस्तियों में सबसे कम राशन की दुकानें है। एक अध्ययन के अनुसार दलित बस्तियों में 13 प्रतिशत और पिछड़ी बस्तियों में 17 प्रतिशत दुकानें हैं, शेष 70 प्रतिशत राशन की दुकानें शेष वर्गों (दबंगों) की बस्तियों में पाई जाती हैं।
उड़ीसा से आई श्रीमती मुयामती ने अपनी बात रखते हुए कहा कि काम की खोज में हमें जगह-जगह भटकते रहना पड़ता है। इसके लिए हमें एक स्थान से दूसरे स्थान, यहां तक कि अन्य राज्यों में तक जाना पड़ता है। इस कारण हमारे जैसे तमाम लोगों को न तो अपने मूल निवास पर ही कार्ड मिल पाता है और न ही किसी अन्य स्थान पर। इलाज के अभाव में मेरा पति मर गया। मेरे छोटे-छोटे बच्चे हैं। कोई नियमित काम भी हाथ में नहीं है। उड़ीसा में मेरे जैसे तमाम लोगों को कार्ड नहीं मिल पाता है, और वे कहीं किसी सूची में नाम दर्ज हुए वगैर ही मर जाते हैं। यह सिलिसिला लंबे समय से जारी है। इनके अलावा ऐसे भी तमाम लोग हैं जिन्हें किसी तरह से राशन कार्ड मिल भी गया है और काम की तलाश में लंबे समय से अपने निवास स्थान से बाहर रह रहे हैं तो उनके राशन कार्ड यह कहकर खारिज कर दिये जाते हैं कि अब तुम यहां नहीं रहते हो। यहां विचारणीय बात यह भी है कि काम की तलाश में जाने वाले तीन-चार महीने के लिए अपने निवास स्थान से बाहर जाते हैं, कोई नियमित काम न मिल पाने की वजह से उन्हें पुनः अपने ‘देस’ ही वापस आना पड़ता है। इस प्रकार वे दोनों तरफ से ही मारे जाते हैं। न तो उनके पास जीविका का कोई नियमित साधन ही होता है और न ही सरकार द्वारा गरीबी के नाम पर राशन कार्ड के माध्यम से प्रदान की जाने वाली सहायता ही उन्हें मुहैया हो पाती है।
झाबुआ, मध्य प्रदेश की शंभू बा ने बताया कि 10 साल से अभी तक राशन कार्ड नहीं मिल पा रहा है। जिन लोगों के पास कार्ड है उन्हें तेल के लिए कहीं और अनाज आदि के लिए किसी दूसरी दुकान पर जाना पड़ता हैं। दूर-दूर से लोग अपना काम छोड़ कर राशन लेने जाते हैं लेकिन दुकानें बन्द मिलती हैं, जबकि राशन लेने जाने वाले अधिकांश लोगों की जीविका का मुख्य आधार दिहाड़ी है। इसके विपरीत दारू की दुकानें रोज खुलती हैं।
गरीबों, दलितों, आदिवासियों व पिछड़े लोगों को सस्ता अनाज उपलब्ध करवाना सार्वजनिक वितरण प्रणाली की मुख्य जिम्मेदारी है ताकि वे अपना जीवन-निर्वाह बाआसानी कर सकें। लेकिन जनसुनवाई में शिरकत करने वाले लोगों की ओर से इस संबंध में रखे गये वक्तव्यों से तो ऐसा लगा कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली पूरी तरह से भ्रष्ट हो चुकी है। अगर इसे पुनः सही मार्ग पर लाना है तो इसके लिए इस तरह की जनसुनवाईयां देश के अन्य हिस्सों में भी करवानी चाहिए। और यह तभी संभव हो सकता है जब ‘सूचना के अधिकार’ के प्रति लोगों में जागृति पैदा हो। लोगों को यह ज्ञात होना चाहिए कि सरकारी या गैर-सरकारी योजनाएं, जो सहयोग या विकास के नाम पर चलाई जा रही हैं, उन सबके बारे में वे कानून सम्मत जानकारी हासिल कर सकते हैं, तभी वे अपने हक-हकूकों की लड़ाई में सफल हो सकेंगे।
- अहिवरन सिंह, नामाबर दिसंबर 2004

No comments: