Tuesday, July 1, 2014

किसान-खेत-किसानी

राजस्थान में ग्रामीण विकास: एक अवलोकन


विकास की अंधी दौड़ के चलते प्रकृति के साथ होने वाली अनियन्त्रित छेड़छाड़ से उभर रहे संकटों, प्रदूषित वातावरण, पीने के पानी की तंगी,, आत्महत्या करते किसान, बेरोजगारी, जलवायु में निरन्तर आ रहे परिवर्तन जैसी समस्याएं सन् 2025 तक भारत को दुनिया के विकसित देशों की श्रेणी में शामिल कराने के ख़्वाब की पोल खोलती हैं। हमारी सरकारें ‘सबको अन्न, और हर गांव को ‘बिजली-पानी’ की डींग मारती रहती हैं लेकिन वास्तव में उन्हें अपनी सत्ता को बचाये रखने के दांव-पेच से ही फुर्सत नहीं मिल पाती है। ऐसा ही कुछ नजारा 23 से 25 मई, 2003 को सवाईमाधोपुर प्रवास के दौरान पिछड़ेपन और अकाल की त्रासदी से गुजर रहे क्षेत्र में व्यक्तिगत तौर पर लोगों से मिलने पर सामने आया।
फलोंदी, सवाईमाधोपुर जनपद के खण्डाहार विधानसभा क्षेत्र में आता है। यह क्षेत्र अकाल और बेरोजगारी जैसी विभिन्न भयावह समस्याओं से जूझ रहा है। अतः वहां की वस्तुस्थिति जानने की तीव्र इच्छा ने फलोंदी क्षेत्र में जाने को मजबूर किया। क्षेत्र के लोगों ने बारी-बारी से अपनी बात रखी। बातचीत के दौरान कई लोगों ने अपनी-अपनी तरह से क्षेत्र की समस्याओं के बारे में जानकारियां दीं।
सनद रहे कि जनपद सवाईमाधोपुर राजस्थान के पिछड़े जिलों में से है। फलोंदी पांच ग्राम पंचायतों - फलोंदी; टोडरा, दुमेदा, पंचोला, चितारा, लसोरा - का एक सामूहिक क्षेत्र है जो लगभग 20 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में फैला हुआ है। यह अनुसूचित जाति बाहुल्य क्षेत्र है। इस क्षेत्र में लगभग 63 प्रतिशत अनुसूचित जाति, 27 प्रतिशत अनुसूचित जनजाति और शेष 10 प्रतिशत में अन्य सभी वर्ग आते हैं।
प्रवास के दौरान हमारे साथी उक्त क्षेत्र के पूर्व विधायक श्री रामगोपाल सिसौदिया से भी मिले। श्री रामगोपाल जी यहां से पिछली 4 बार राजस्थान विधानसभा के विधायक रह चुके हैं। उनके अनुसार बदलते परिवेश और राजनैतिक उठापटक के चलते बीते चुनाव में मैं अपनी विधायकी को कायम रख सकने में कामयाब नहीं हो सका। यह पांचों ग्राम पंचायतें श्री सिसौदिया जी के पूर्व विधानसभा क्षेत्र खण्डाहार में ही आती हैं। अतः इसी दृष्टि से कि वे वहां की परिस्थितियों और परिवेश से बेहतर परिचित होंगे, साथ ही मेरे लिए क्षेत्र एकदम नया होने के कारण वहां के संबंध में मोटा-मोटी जानकारियां हासिल करने का भी वे बेहतर माध्यम हो सकते हैं, इस वजह से हमने उनसे मिलना तय किया। उन्होंनेे फलोंदी क्षेत्र की पांचों ग्राम पंचायतों और खण्डाहर क्षेत्र के बारे में काफी कुछ बताया।
राज्य में सत्तासीन कांग्रेसी सरकार का पक्ष लेते हुए उन्होंने कहा कि मैंने अपने विधायक काल में इस क्षेत्र में ज्यादा-से-ज्यादा सुविधायें मुहैया कराने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। ऊबड़-खाबड़/पहाड़ी बाहुल्य क्षेत्र में लगभग प्रत्येक गांव को सड़क मार्ग से जोड़ने से लेकर प्राथमिक शिक्षा, स्वास्थ्य सरीखी सुविधायें लगभग पूरे क्षेत्र में उपलब्ध कराने को हमेशा प्राथमिकता में रख कर काम किया। इस कार्य में राजस्थान की कांग्रेसी सरकार ने भी भरपूर सहयोग दिया। इस क्षेत्र में बेसिक से लेकर इंटर तक शिक्षा की समुचित व्यवस्था है। लगभग हर दो-तीन किलोमीटर के क्षेत्र अथवा दो-तीन गांवों के बीच एक प्राथमिक विद्यालय और लगभग पांच किलोमीटर के दायरे में मिडिल अथवा हाईस्कूल तक की शिक्षा की व्यवस्था है।
तत्पश्चात् क्षेत्र में मौके पर लोगों से हुई मुलाकात के दौरान पता चला कि इस क्षेत्र में प्राथमिक और जूनियर हाईस्कूल स्तर तक की शिक्षा की व्यवस्था तो लगभग ठीक है लेकिन विद्यालयों में शिक्षकों की कमी है अथवा वे अपनी जिम्मेदारी को ठीक से नहीं निभा पा रहे हैं। 20 किलोमीटर के दायरे में केवल एक ही इण्टरमीडिएट कालेज है। उच्च शिक्षा अर्थात् स्नातक/स्नातकोत्तर शिक्षा के लिए सवाईमाधोपुर जाना पड़ता है। लिहाजा लड़कियों को उच्च शिक्षा दिला पाना संभव नहीं हो पाता। अधिक सम्पन्न लोग ही सवाईमाधोपुर में रख कर अपने बच्चों को उच्च शिक्षा दिला पाते हैं। क्षेत्र में स्वास्थ्य संबंधी सुविधा के नाम पर केवल एक ही राजकीय चिकित्सालय है। चिकित्सा सम्बन्धी सुविधाओं का अन्दाजा लगभग 20 किलोमीटर में फैले इस क्षेत्र के लिए एक ही राजकीय चिकित्सालय के होने से लगाया जा सकता है। यहां खेती योग्य मिट्टी उपजाऊ है। सिंचाई के मुख्य साधन के रूप में यहां नलकूप सिंचाई का मुख्य साधन है, जिसे अच्छी खेती वाले अथवा सम्पन्न लोग ही लगवा सकते हैं। सरकारी नलकूप नाकाफी हैं।
बुजुर्गों ने बताया कि फलोंदी के आसपास की पहाड़ियाँ अरावली पर्वत श्रेणियों का ही हिस्सा हैं। ये पहाड़ियां पहले कभी हरे-भरे पेड़-पौधों तथा झाड़ियों से पूरी तरह आबाद थीं। इन पहाड़ियों के जंगल एवं ग्राम पंचायतों के आसपास के जंगली क्षेत्र पंचायतवार ग्राम पंचायतों के नियंत्रण में थे। इन पहाड़ियों में जंगली पशु एवं पक्षी तथा कीट-पतंगे आदि भी स्वछन्द विचरण करते थे। पशुओं के लिए घास और हरा चारा भरपूर मात्रा में उपलब्ध रहता था। यह क्षेत्र पानी सहित प्राकृतिक संपदा से परिपूर्ण था। पहाड़ियां पेड़-पौधों और बेल-लताओं से आच्छादित थीं। यही कारण था कि इन पहाड़ियों से पानी जहां-तहां सोतों में रिसता रहता था, जिसे कच्ची नालियों के माध्यम से गांव अथवा उसके आस-पड़ोस में रोक लिया जाता था जिनमें सोतों के पानी के साथ-साथ बरसात का पानी भी इकट्ठा होता रहता था। यह जल स्थानीय पानी के तल को ऊपर उठाने में तो मुख्य भूमिका निभाता ही था, साथ ही पीने और सिंचाई आदि के काम में भी इसका उपयोग होता था। यही गांवों का बेसिक जल प्रबन्धन हुआ करता था, जिनसे जरूरत के आधार पर साल भर भरपूर मात्रा में पानी मिलता रहता था। इन जल प्रबंधनों के चलते किसी वर्ष बरसात कम होने अथवा न होने की स्थिति में अकाल और पानी की अनुपलब्धता की भयंकर त्रासदी से नहीं गुजरना पड़ता था। यहां लोगों से हमारा सवाल था कि क्या उन दिनों अकाल नहीं पड़ते थे, अर्थात् नहीं पड़े ? इस पर लोगों ने कहा कि; ऐसा नहीं है। उन दिनों भी अकाल पड़ते थे; किन्तु क्षेत्रीय जनता को खेती के साथ-साथ चूने पत्थर की पिसाई और सीमेंट फैक्टरी जैसे आय के अन्य स्रोत भी मुहैया थे, साथ ही जंगलात से भी कुछ सहयोग मिल जाया करता था। अतः लोगों को अकाल की त्रासदी की भयंकर भयावहता से नहीं जूझना पड़ता था। हां, उनकी आर्थिकी ज़रूर कुछ गड़बड़ाती थी। आज जब सीमेंट फैक्टरी बन्द हो चुकी है और जंगलात भी पूरी तरह से नष्ट हो चुका है तो ऐसे में खेती के अलावा लोगों की आय का कोई अन्य दूसरा मुख्य स्रोत नहीं रह गया है, जिसका यहां की आर्थिकी पर जबर्दस्त असर पड़ रहा है।
साथियों ने जानकारी हासिल की कि कुछ समय पूर्व तक सवाईमाधोपुर में चूने के पत्थर की पिसाई की एक प्राइवेट फैक्टरी चल रही थी। यह फैक्टरी एशिया की नामी-गिरामी सीमेंट फैक्टरियों में से एक थी। यह फैक्टरी फलोंदी के आसपास की पहाड़ियों से कच्चे माल के तौर पर चूना पत्थर निकालती थी, इस चूने के पत्थर की पिसाई तो यहां होती थी मगर सीमेंट बनाने का काम सवाईमाधोपुर स्थित फैक्टरी में होता था। इन फैक्टरियों से हजारों एकड़ चूना पत्थर का क्षेत्र जंगलात और पानी के स्रोत आदि के तौर पर तबाह तो हो रहा था, किन्तु फिर भी क्षेत्र के हजारों लोगों को इस फैक्टरी से रोजगार प्राप्त था। बाहर से आये सैकड़ों मजदूरों को भी इसमें काम मिला हुआ था जिसकी वजह से क्षेत्र के लोगों की आर्थिकी बहुत अच्छी नहीं तो खराब भी नहीं थी।
आज जब खेती ही इस क्षेत्र की जनता के अस्तित्व का मुख्य स्रोत है, उस पर भी जलप्रबन्धन की समुचित व्यवस्था नहीं हो तो फिर क्षेत्र के लोगों को सांत्वना की घुट्टी के बलबूते पर लम्बे समय तक कैसे ज़िंदा रखा जा सकेगा और कैसे बचाया जा सकेगा भ्रष्टाचार, गुण्डागर्दी, चोरी, सामाजिक विद्रोह से ? पूरी तरह से दम तोड़ चुके क्षेत्रीय जलप्रबन्धन की वजह से यह क्षेत्र भी अकाल के ग्रास में पहुंचता गया। इससे लोगों का यह आशय था कि अकाल पड़ते थे लेकिन जिस विकास की आज दुहाई दी जाती है ऐसे कम्प्यूटराइज्ड और तकनीकी जमाने में यदि आम सुविधाओं से आम आदमी वंचित हो तो यह चिंतनीय विषय है; क्योंकि निकट भविष्य में भारत के ‘सुपर पावर’ बनने की चर्चा जोर पर है।
बात स्पष्ट है कि कुछ तो फैक्टरी से पैसे आ जाते थे, साथ ही खेती से भी उन्हें जीविकोपार्जन लायक उपज मिल ही जाती थी। यही कारण था कि जब फैक्टरी चालू हालत में थी तो उसी दौरान इस क्षेत्र के लोगों को कई बार अकाल की स्थिति से जूझना पड़ा, अकाल के बावजूद यहां भुखमरी और चारा जैसी भयावह समस्याओं की वजह से हालात बिगड़े ज़रूर लेकिन बदतर नहीं हुए। यह सीमेंट फैक्टरी तकरीबन 15 साल पूर्व बन्द हो चुकी है।
लोगों का कहना था कि क्षेत्र में चिकित्सा सम्बन्धी सुविधायें 20-25 किलोमीटर के क्षेत्रफल में केवल एक ही है जो फलोंदी में है, उस पर भी इमरजेंसी अर्थात् रात्रि के समय चिकित्सा सुविधा किसी भी हाल में नहीं मिल पाती है, क्योंकि एक तो गांव से अस्तपाल की दूरी काफी होती है, दूसरे महिला चिकित्सक होने के कारण उन्हें दूरस्थ गांव में लेकर जाना भी खतरे से खाली नहीं होता। रात्रि के समय महिला चिकित्सक भय के चलते घर से बाहर आना भी उचित नहीं मानतीं। अतः मजबूर होकर पौ फटने का इंतजार रहता है। गहन चिकित्सा की जरूरत होने पर सवाईमाधोपुर ही जाना पड़ता है। कई बार रोगी रास्ते में ही दम तोड़ देते हैं, अगर तुरन्त चिकित्सा मिल सकती तो शायद उन्हें बचाया जा सकता। सवाईमाधोपुर यहां से लगभग 28 किलोमीटर है। दिन में तो फलोंदी से प्राइवेट बसें सवाईमाधोपुर तक चलतीं हैं। सड़क मार्ग बहुत अच्छा नहीं होने तथा बस ड्राइवरों की मनमानी के चलते बस को सवाईमाधोपुर तक पहुंचने में लगभग डेढ़ घंटे का समय लग जाता है, उस पर भी काफी भीड़ और बोझे के बीच सफर तय करना पड़ता है। यहां तक के सड़क मार्ग पर एक भी सरकारी बस नहीं चलती है।
यद्यपि आसपास की सभी पहाड़ियां जंगलात रहित हैं फिर भी जंगलात के कर्मचारी/अधिकारी वहां के निवासियों को तंग करते रहते हैं। गांवों की आबादी की जमीनों पर कब्जा करना शुरू कर दिया है। उन्होंने बताया कि वे लोग उनके घरों के आसपास के पेड़-पौधों की यह कहकर जबर्दस्ती घेराबन्दी करा देते हैं कि ये तो जंगलात की भूमि है।
इस दौरान हर तरह के (यथा- कृषक, मजदूर, दुकानदार, अध्यापक, ब्लॉक कर्मचारी और छोटे-छोटे व्यापारी आदि) लोगों से बातचीत करने से पता चला कि सब लोग एक ही बात को तरजीह दे रहे हैं, और वह है खेती। क्योंकि खेती में ही लोगों को अपना भविष्य नज़र आने लगा है। यहां के लोगों ने साफ जवाब दिया कि सीमेंट फैक्टरी की तरह यदि किसी अन्य उद्योग-धन्धे को इस क्षेत्र में स्थापित करा दिया जाय तो उससे भी समस्या का हल निकलने वाला नहीं है, क्योंकि सीमेंट फैक्टरी की तरह किसी अन्य उद्योग, जो इस क्षेत्र में अगर लगा दिया जाय तो उसकी क्या गारंटी होगी कि वह निकट भविष्य में बंद नहीं होगा। और फिर उद्योग कितने लोगों को रोज़गार दे सकेगा।
उन लोगों की यह भी मांग थी कि यहां पर कुछ इस तरह की फसलें लायी जायें जिनसे अधिक उपज और पैसा कमाया जा सके। साथ ही उन लोगों की यह भी मांग थी कि यहां पर कोई अच्छी अथवा बड़ी मंडी और यातायात की भी समुचित व्यवस्था की जाए। यहां कोई बड़ी मंडी और यातायात की भी समुचित व्यवस्था नहीं है जिसके अभाव में यहां के लोग कृषि उपजों की उचित कीमत नहीं ले पाते हैं। साथ ही एक ही प्रकार की उपज की पैदावार के बढ़ जाने से वह सस्ते दामों पर बिकती है। लोगों ने यह भी बताया कि क्षेत्र में तमाम जगह सिंचाई की समुचित व्यवस्था नहीं होने के कारण कईं जगह खेती योग्य भूमि पर साल में केवल एक ही फसल ली जा सकती है।
बढ़ती बेरोज़गारी और अधूरी शिक्षा के कारण यहां के नवयुवक बेकार हो रहे हैं। चूंकि फिलहाल खेती में भी वे संभावनाएं नहीं दिखतीं, जिनमें इन्हें खपाया जा सके अर्थात् काम मिल सके। अतः बढ़ती बेरोजगारी के कारण उनमें असंतोष बढ़ रहा है। असंतोष के चलते वे तमाम तरह के व्यसनों के आदी होते जा रहे हैं। छोटी उम्र में ही शराब पीना, झगड़ा करना, चोरी/डकैती करना उनकी दिनचर्या बनती जा रही है। नवयुवकों की दिनचर्या को देखकर छोटे बच्चे भी स्कूल जाना पसन्द नहीं कर रहे हैं। शिक्षा के प्रति उनका ध्यान खींचने या फिर दबाव डालने पर वे साफ कहने लगे हैं कि भैया अथवा दीदी भी तो नहीं पढ़ती। और फिर पढ़ने से फायदा भी क्या आगे तो हमारे लिए शिक्षा के अवसर खुले ही कहां हैं। यह हमारा दुर्भाग्य है कि चाहते हुए भी हमें इंटरमीडिएट या फिर उच्च शिक्षा नहीं मिल पाती है। इतने बड़े क्षेत्र में शिक्षा की व्यवस्था न होने के लिए वे स्थानीय प्रशासन और राजस्थान सरकार को दोषी मानते हैं।
देश के नाजुक हालातों को देखते हुए उपरोक्त अव्यवस्थाओं के बावजूद इस क्षेत्र में अभी तक तो शान्ति कायम रही है। सभी वर्गों के लोग मिलजुल कर रहते आ रहे हैं, हर परेशानी में एक-दूसरे का तहे दिल से सहयोग करते आ रहे हैं। लेकिन कुछ छुटभैये नेता राजनैतिक फायदा उठाने के लिए साम्प्रदायिकता को फैलाने की साजिश रच रहे हैं। कुछ शातिर लोगों की साजिश के तहत साम्प्रदायिकता और वर्गवाद की बू इस क्षेत्र में भी कभी-कभार यहां के संयमित एवं खुशगवार माहौल में जहर घोलने का प्रयास करती है। लोगों ने साफ तौर पर बताया कि भगवाधारी लोग यहां भी पहुंच रहे हैं और अपने ग्रुप तैयार कर रहे हैं। समय रहते क्षेत्र में घुसपैठ करने वाले भगवाधारियों और छुटभैये नेताओं के कार्यकलापों पर रोक लगाने के खास प्रबन्ध नहीं किये गये तो निकट भविष्य में देश के अन्य क्षेत्रों जैसे हालात पैदा होते देर नहीं लगेगी। कारण साफ है कि यहां के बेरोजगार युवा वर्ग को गुमराह होते देर नहीं लगेगी। चूंकि इस क्षेत्र का युवा वर्ग तो पहले से ही बेकार और निठल्ला हो रहा है, अतः वे हर नये माहौल में ढलना चाहेंगे। अर्थात सबकुछ करने के लिए तैयार रहेंगे। और फिर वही अहमदाबाद, गोधरा, अयोध्या या देश के अन्य क्षेत्रों जैसी भीषण त्रासदियों के लिए यह क्षेत्र भी अभिशप्त होगा। और हर बार की तरह नियति को तो यही मंजूर था, कहकर टाल दिया जायेगा।
लोगों का कहना था कि यहां के निवासियों को न्याय, सम्मान के साथ जीने के अधिकार और क्षेत्र में व्याप्त अव्यवस्थाओं को दूर करने में यहां का प्रशासन और सरकार आगे आये; विशेषकर यहां की खेती को बढ़ावा देने हेतु सत्ता/प्रशासन समुचित व्यवस्था मुहैया कराये अन्यथा उन्हें आंदोलन करने के लिए मजबूर होना पड़ेगा। यही बात उन्होंने उन सामाजिक संगठनों एवं संस्थाओं के लिए भी कही जो देशहित और समाज हित में कार्य रह रही हैं, वे भी इस क्षेत्र का सही मायने में अध्ययन कराकर यहां के निवासियों की मूलभूत आवश्यकताओं हेतु केन्द्र और राज्य सरकार एवं स्थानीय प्रशासन को सलाह-मशविरा दे सकती हैं। साथ ही क्षेत्र के विकास हेतु रचनात्मक कार्यक्रम चलाने का निर्णय भी सीधे तौर पर ले सकती हैं। लोगों के अनुसार यहां अभी तक कोई भी सक्रिय संस्था/संगठन नहीं पहुंचा है। वे लोग हर संभव सहयोग करने के लिए तैयार हैं। यद्यपि हर किसी ने एक ही बात को तरजीह दी कि यहां की खेती में सुधार लाया जाय और उपज को बाहर ले जाने के लिए यातायात के बेहतर साधन सुलभ हों तो क्षेत्र में खुशहाली वापस आ सकती है।
वास्तव में वहां के लोगों द्वारा की जा रही मांग में बहुत कुछ सत्यता झलकती है, क्योंकि खेती-किसानी ही है जो ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को रोजगार दे सकती है। यह बात विभिन्न अध्ययनों से भी साबित हो चुकी है। चूंकि जब-जब उद्योग-धन्धे बन्द हुए हैं तो उसकी सबसे अधिक मार खेती पर ही पड़ी है और खेती-किसानी ने ही बेरोजगारों को काम देकर अपने आप में आत्मसात कर लिया है। अभी हाल ही के वर्षों में प्रदूषण के नाम पर दिल्ली के उद्योगों को दिल्ली से बाहर ले जाने की मुहिम के चलते बेरोजगार हुए मजदूर खेती-किसानी में ही खप गये; फिर भी आखिर क्यों सत्तासीन लोग/हमारी सरकारें खेती के प्रति उपेक्षित रवैया अपनाये हुए हैं ?
भूमण्डलीकरण के इस दौर में विकास की आपाधापी में आज किसान बुरी तरह से प्रभावित है। बहुराष्ट्रीय कंपनियां यहां की परम्परागत और जलवायुगत फसलों को धता बताकर किसानों को ज्यादा-से-ज्यादा उपज और मुनाफ़ा का झांसा देकर बीज, कैमीकल, रासायनिक उर्वरक एवं खेती के नये तरीके मुहैया कराने के नाम पर किसानों का खूब शोषण कर रही हैं। जैसा कि कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, पंजाब, केरल, तमिलनाडु, गुजरात आदि राज्यों में हुआ है, जिसके परिणामस्वरूप इन्हीं राज्यों में किसानों ने आत्महत्याएं भी की हैं। देश के अन्य राज्यों में भी वे पांव पसार रही हैं।
अतः सवाल उठता है कि खेती-किसानी को बढ़ावा देने का स्वरूप क्या होना चाहिए ? क्या नगदी फसलों के माध्यम से किसानों की आर्थिकी सुधारने की वकालत करके बीज, रासायनिक उर्वरक, कैमीकल और खेती की नयी तकनीक मुहैया कराने आदि के नाम पर मुनाफ़ाख़ोरी के लिए शोषण करने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियों को खुली छूट दी जानी चाहिए ? (जैसा कि बहुराष्ट्रीय कंपनियां देश के विभिन्न भागों में कर रही हैं), यदि सरकार अथवा कोई सामाजिक संगठन इसके लिए आगे आता है तो खेती को बढ़ावा देने के मानक क्या होंगे ? क्या वे मानक छोटे और बड़े किसानों के लिए समान रूप से लाभकारी होंगे ? अगर यह मान भी लिया जाय कि बहुराष्ट्रीय कंपनियां भारत के किसानों की दशा सुधारना चाहती हैं तो वे क्या कारण हैं जिनकी वजह से किसान आत्महत्याएं तक करने के लिए मजबूर हो रहे हैं ? यदि नहीं तो फिर क्या केंद्र अथवा राजस्थान सरकार ऐसा कुछ करने के लिए तैयार है कि लोगों की खेती पर से निर्भरता घटे। सवाल उठता है कि ऐसे में खेती-किसानी ग्रामीण लोगों की आर्थिकी सुधारने में कैसे और किस सीमा तक कामयाब सिद्ध हो सकेंगी? यद्यपि ऐसा भी नहीं है कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा अपनाये जाने वाले कृषि माध्यम लाभप्रद नहीं हैं, ज़रूरत है उन माध्यमों को विधिवत् लागू करने एवं किसानों को उपज का उचित मूल्य दिलाने के लिए बहुराष्ट्रीय कंपनियों को बाध्य करने की। क्योंकि  किसानों को उपज का समुचित मूल्य नहीं मिल पाता है। इसके लिए हमारी सरकार कानून बना कर इस बात की व्यवस्था करवा सकती है कि लागत मूल्य के अतिरिक्त उचित लाभप्रद दर पर किसानों की उपज को खरीदने के लिए बहुराष्ट्रीय कंपनियां बाध्य होंगी। साथ ही बहुराष्ट्रीय कंपनियों को भी यह बात ध्यान में रखनी होगा कि जब किसानों के पास पैसा बचेगा तभी वे अपना कारोबार फैला सकेंगी।
एक ओर सरकार द्वारा कृषि पर से सब्सिडी समाप्त करना  और दूसरी ओेर बहुराष्ट्रीय कंपनियों के बेरोकटोक प्रवेश को खुला निमंत्रण, दोनों ही किसानों के लिए उचित नहीं हैं। किसानों द्वारा की जा रहीं आत्महत्याएं इन दोनों का ही मिला-जुला परिणाम हैं। बेहतर यह होगा कि यहां के निवासी एकजुट होकर सुनियोजित ढंग से अपनी लड़ाई लड़ें। अच्छा हो कि वे किसी स्वैच्छिक संगठन, जन संगठन, हक-हकूकों की लड़ाई लड़ने वाले विभिन्न आंदोलनों के साझा मंच के साथ जुड़ कर अपनी लड़ाई खुद अपने नेतृत्व में लड़ें। यही समय की मांग है।
- अहिवरन सिंह, नामाबर नवंबर 2003

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