कविताएं:
(पुष्प : सीख : गांधी स्मृति : आत्मा-परमात्मा)
पुष्प
उपवन में कोई कुछ कह रहा . . . . . . .।2।
खुशी-खुशी अंधड़, वर्षा
सर्दी, गर्मी सह रहा
उपवन में कोई कुछ कह रहा . . . . . . .।2।
था प्यार उस पर,
सबका अगाध
उठाये सिर को
मन को मुदित कर
किलकारियां वह कर रहा।
उपवन में कोई कुछ कह रहा . . . . . . .।2।
देखो कोई प्रसन्न मन,
जड़ जननी, जनक तना
भ्रातृ पत्ता, भगिनी डाली से
विलग सदा को कर रहा।
उपवन में कोई कुछ कह रहा . . . . . . .।2।
फिर भी, वह,
आदर्श बनकर
खुशबू से वायु शुद्ध कर
चेहरे पर मुस्कान लिए
कर्म कर समझा रहा।
उपवन में कोई कुछ कह रहा . . . . . . .।2।
जब तक रहे शेष,
आखिरी श्वांस घट में
तब तक न छोड़िए
सद्मार्ग मित्र मानव।
मौनव्रती पुष्प
सुगन्धि से मुखरित कर रहा।
उपवन में कोई कुछ कह रहा . . . . . . .।2।
-अहिवरन सिंह
सीख
पत्तों से सीखो चेतना, मुस्कुराना पुष्प से,
द्रवीभूत जल की परिणिति को वाष्प से।
वीणा से सीखो मधुरता, एकाग्रता को योग से,
स्वस्थ रहना है अगर तो दूर रहो अति भोग से।
परिचय दो नम्रता से, समाचार कुशल-क्षेम से,
क्रोधी के क्रोध को जीतिए सदा ही प्रेम से।
चन्द्रमा से चांदनी को, प्रकाश को सूर्य से,
शत्रु की शत्रुता को खण्डित करो शौर्य से।
ईश्वर को भक्ति से, स्वयं को दिव्य विभूतियों से,
आदर्श को तो सीखिए चाणक्य की नीतियों से।
ध्रुव से सीखो अडिगता, स्वाभिमान हिमाद्रि से,
सुगन्धि को नासिका से, स्वाद चखो जीभ से।
हवा से संचार को, सदाचार को सत्संग से
मन चलों को मोड़िये लुभावने व्यंग्यों से।
नदियों से परोपकार को, नम्रता को वृक्ष से
वचनबद्धता को निभाने हेतु प्रण लो वक्ष से।
{जीतिए} पाप को पुण्य से, असत्य को सत्य से।
उद्यम से काम करो फिर अछूते नहीं लक्ष्य से।।
-अहिवरन सिंह
गांधी स्मृति
हुए स्वतंत्र रहा अभी बाकी
सपना गांधी महान का।
स्मृति तो अनुगमन अछूता
कैसे कल्याण जहान का।।
उजड़ा बाग लगाने फिर से
कमी है एकजुट होने की।
छुआ-छूत ऊँच-नीच भुला
मिलकर कदम बढ़ाने की।।
आज ज़रूरत है भारत कों
गांधी के अवतार की।
यही नहीं तब हर्षित होगी
धरा समस्त संसार की।।
आजा भोले-भाले आजा,
हम सभी मिल बुला रहे।
फिर से तेरे आने को
आशा की ज्योति जला रहे।।
राम राज्य का छूटा सपना
प्रण लो पूरण करने को।
राष्ट्रपिता गांधी जी द्वारा
दिखालाये मार्ग पर चलने को।।
है नहीं कुछ पास हमारे
अर्पण-तर्पण करने को।
हे राष्ट्रपिता माफ करके
आजा मार्ग दिखाने को।।
-अहिवरन सिंह
आत्मा-परमात्मा
मैंने उसको कुछ नहीं दिया है
उसने ही मुझको सबकुछ दिया है
मैं पास थी दूर उसने किया है
उपकार कर मानव तन दिया है।
गर्भ में कुछ प्रण उससे किया है
आ भू पर मोड़ मुख को लिया है
भू पर आ याद उसकी थी सताती
मगर भव बंधनों में रही मैं विचरती।
धन, वैभव कितना सारा दिया है
सांसारिक बंधनों का पिटारा दिया है
बड़ी लगन-श्रद्धा से तन रच दिया है
अति सूक्ष्मता से वास अपना किया है।
मानवी घट को अति सुसज्जित किया है
अंग-प्रत्यंग को कर्म सुनिश्चित दिया है
गुरू रूप में आ ज्ञान चक्षु दिया है
भक्ति दे मुक्ति मारग बता दिया है।
बुद्धि का भण्डार अतिशय दिया है
भव पार होने का इक अवसर दिया है।
हमने तो सबको दिया तो बस दुख ही दिया है
परेशान जग को कर अपमान उसका किया है।
मैं तो हूं उसकी, उसकी ही रहूंगी
अकेली बिना उसके इक पल न रहूंगी
अब वह पास मेरे, हूं मैं पास उसके
सदा ही रही रहना है पास जिसके।
कल था आज है और कल भी रहेगा
अजर है, अमर है, अटल ही रहेगा
हर युग में था, है, हमेशा ही रहेगा
बिन तेरे पत्ता इक भी हिल न सकेगा।।
-अहिवरन सिंह
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