आज़ाद हिंदुस्तान का साठ साला सफ़र
आजाद हिंदुस्तान की रूपरेखा गढ़ते समय सविधान निर्माताओं ने हमारे संविधान की प्रस्तावना में चार लक्ष्य रखे थे- हर नागरिक को बिना किसी भेदभाव के साथ न्याय (सामाजिक-आर्थिक- राजनैतिक स्तर पर), आज़ादी (विचार-अभिव्यक्ति- विश्वास-धर्म और उपासना की), समानता (प्रतिष्ठा और अवसर की) मिले और बन्धुत्व (व्यक्ति की गरिमा-राष्ट्र की एकता और अखंडता के स्तर पर) का भाव पैदा हो। आजादी के बीते साठ बरसों में हम किस सीमा तक इन लक्ष्यों को पा सके हैं ? बहुत-कुछ बदल गया है इन बीते बरसों में। देश आगे बढ़ा है। हमने तरक्की भी की है। राजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक मूल्यों में भी ख़ासा बदलाव आया है। इन मूल्यों पर भूमण्डलीकरण (विश्व बाजार) का भी ढांचागत प्रभाव (समावेश हुआ है) पड़ा है। आर्थिक व सामाजिक रूप से हम काफी समृद्ध हुए हैं; आम आदमी की बेहतरी के लिये अनेकों योजनाओं एवं परियोजनाओं का निर्माण हुआ है; गांव उन्नति की ओर उन्मुख हुए हैं; वैज्ञानिक व तकनीकी स्तर पर भी काफी उपलब्धियां हासिल की हैं; बावजूद इसके गरीबी, अशिक्षा, बेरोजगारी, भुखमरी, भ्रष्टाचार, असमानता, अराजकता, लाचारी आदि विसंगतियों के मकड़जाल में जकड़ा है आज का भारत। फिर भी, संविधान की मूल भावना अपनी जगह कायम है क्योंकि हमारा लोकतंत्र मजबूत रहा है जिस पर हमें नाज है। जड़ें मजबूत हैं हमारे लोकतंत्र की। लेकिन आंतंकवाद की बढ़ती गतिविधियों, नक्सलवाद की उग्रता और समाज में फैल रहे राजनीतिक अपराधीकरण को देख कर आक्रोश पैदा होता है वहीं इन 60 बरसों में आम आदमी बड़ी तेजी से हाशिए पर खिसकता जा रहा है जो कि बेहद अफसोस और लज्जा का विषय है उस लोकतंत्र के लिए, जो दुनिया में समतामूलक समाज के निर्माण तथा विश्वबन्धुत्व का पाठ पढ़ाने की दुहाई देता रहा है।
आज़ाद भारत
15 अगस्त 1947 को भारत का नियति के साथ मिलन हुआ। तब से लेकर अब तक भारत एक विकासशील देश के रूप में 60 बरस का सफर तय कर चुका है। इन 60 बरसों के अंतराल में भारत ने कई उतार-चढ़ाव देखे हैं। साठ के दशक के पूर्वार्द्ध में भुखमरी से निजात पाने के लिए आयातित अमरीका के मोटे लाल गेहूं पीएल 480 के माध्यम से हरित क्रांति हुई और अन्य देशों को अन्न निर्यात करने की मजबूत स्थिति में आया भारत। भारत में ब्लैक एंड व्हाइट टीवी तब आया जब इंदिरा जी सूचना प्रसारण मंत्री बनीं। उससे पहले पूरा भारत रेडियो पर निर्भर था। अखबार, पत्र-पत्रिकाएं बेहद कम थीं। 1980 में एशियाड के फलस्वरूप रंगीन टीवी की भारत में मांग बढ़ी। सन्् 2020 तक भारत को विकसित देशों की कतार में खड़ा करने का मानस बनाया गया है। लेकिन विश्लेषण करने पर कई मरतबा यही लगता है कि स्वराज तो मिला मगर असली आजादी नहीं। शायद आज़ादी के कर्णधार; जिन्होंने जान की बाजी लगाकर देश को आज़ादी दिलवाई वे भी ठगे गये इसी स्वराज शब्द के भ्रम से।
वैश्वीकरण के इस दौर में भारत पूंजी आधारित अर्थव्यवस्था की ओर मुड़ चला है। साठ के दशक में ज्यादातर गांवों में बसने वाला भारत आज तकरीबन 40 फीसदी शहरों में जा बसा है। देश के विकास में खेती और किसान की भूमिका स्थितप्रज्ञ सी हो चली है। आज उद्योग और सेवा क्षेत्र का बोलबाला है। आंतरिक आतंक के रूप में देश ने पंजाब का पाठ पढ़ा। उसके बाद कश्मीर और उत्तर-पूर्वी राज्य आतंकवादी गतिविधियों से जूझ रहे हैं। देश के मध्य-पूर्व हिस्सों में नक्सलवाद ने अपनी अलग आवाज उठाई है, बावजूद इसके भारत दुनिया के दृश्य पटल पर लोकतंत्र के झण्डे के साथ मजबूती से टिका हुआ है।
भारत की अपनी विशुद्ध सांस्कृतिक और सामाजिक परंपराएं हैं। पश्चिमी सभ्यता का प्रभाव इनको तोड़-मरोड़ भी रहा है। तकनीकी विस्तार हुआ है। आज घर-घर में रंगीन टीवी है। मोबाइल का प्रचलन अधिक हो गया है। अब एनिमेशन इंडस्ट्री का बोलबाला है। आईटी के कई फायदे हैं। विकास को सही दिशा में ले जाने के लिए इसका भी फायदा लेना होगा। भारत को विकास के पथ पर ले जाना है तो इन सब पर भी निगाह रखनी होगी। नई तकनीकें भी आत्मसात करनी होंगी और स्वयं की विशेषताओं को भी संजोकर रखना होगा तथा सर्वजन हिताय के मूलमंत्र को ध्यान में रखना होगा।
20वीं शताब्दी का भारत
20वीं शताब्दी भारत में सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक परिवर्तनों की शताब्दी रही। जातिप्रथा, जो अस्पृश्यता की अमानवीयता से ग्रसित थी, का बंधन काफी हद तक शिथिल हो गया। गांवों देहातों में दलितों, पिछड़ी जातियों को सताया जाना अब उतना आसान नहीं रह गया है। एक तो उनके हित में विशेष कानून बनाए गए हैं, दूसरा उनकी राजनैतिक हैसियत भी बढ़ी है। राजनीतिक परिदृश्य पर हाशिये के वर्गों ने मजबूत पकड़ स्थापित कर ली है और आज वे किसी भी सत्ता-समीकरण को गंभीर रूप से प्रभावित करने और अपने पक्ष में मोड़ सकने में सक्षम हैं। स्वास्थ्य और शिक्षा सुविधाओं तक आम जनता की पहुंच बढ़ी जरूर है लेकिन अभी भी नाकाफी है। इन सब के बावजूद शोषण बदस्तूर जारी है। केवल शोषण-तंत्र का स्वरूप बदल गया है, शोषकों के चेहरे बदल गए हैं और उन्होंने नए मुखौटे लगा लिए हैं। आर्थिक विषमता बढ़ रही है और जो लोग आर्थिक रूप से कमजोर हैं वे ही शोषण के मुख्य शिकार हो रहे हैं। यानि कि शोषण का आधार अब मुख्यतः आर्थिक हो गया है।
भूमंडलीकरण और नई आर्थिक नीति के दुष्परिणाम सामने आने लगे हैं और ज्यों-ज्यों लोग इसके दंश को महसूस करेंगे, उनकी पीड़ा मुखर होने लगेगी। कर्ज़ के दंश से पीड़ित किसानों की आत्महत्याएं, लगातार बंद हो रहे लघु एवं कुटीर उद्योगों के बेरोजगार मजदूरों की हताशा, श्रम कानूनों के दायरे से बाहर काम करने वाले कॉल सेंटरों में रात-दिन शोषण का शिकार हो रहे सायबर कुलियों की भूमिका निभाने वाले युवाओं की कुंठा आने वाले वर्षों में इतना घातक और विकराल रूप ले लेगी कि उसको नियंत्रित कर पाना नामुमकिन हो जाएगा। सट्टेबाजी पर आधारित शेयर-मुद्रा बाजार और अस्थिर अल्पावधि वाली विदेशी पूंजी निवेश के बलबूते किसी मजबूत अर्थव्यवस्था की उम्मीद लंबे समय तक बरकरार नहीं रह सकती। विदेशी ऋण के अंबार और बढ़ते व्यापार घाटे को देखते हुए स्थिति में सुधार आने की संभावना अत्यंत क्षीण है। पेटेंट कानून में परिवर्तन और विश्व व्यापार संगठन के प्रावधानों के दायरे में कृषि क्षेत्र और श्रम मानकों से जुड़ी नई आर्थिक नीति को आगे बढ़ाना आत्मघाती कदम साबित हो रहा है। खाद्य मामलों में हमारी आत्मनिर्भरता खतरे में पड़ चुकी है। बेतहाशा मूल्य-वृद्धि और आवश्यक वस्व्तुओं की उपलब्धता में कमी ने आम जनता का जीवन दूभर कर दिया है। हालाँंकि आंकड़ों की बाजीगरी में माहिर लोग अपना खेल दिखाकर भ्रम खड़ा करने की पूरी कोशिश करते रहते हैं। लेकिन देश के आम आदमी की हालत बद-से-बदतर होती जा रही है। जाहिर है कि इसकी प्रतिक्रिया में आने वाले वर्षों में तीव्र जन-प्रतिरोध अवश्य उभरेगा और वह इतना स्वतःस्फूर्त एवं चतुर्दिक होगा कि सत्ताधारी वर्ग की नीद हराम हो जाएगी।
नव-साम्राज्यवादी शक्तियों और उनके देशी पिट्ठुओं को भी आसन्न खतरे की आशंका है। देश में लोकतांत्रिक संस्थाओं के विकास और मीडिया की बढ़ती सक्रियता के फलस्वरूप देश में जनचेतना और जन-अपेक्षाओं में काफी वृद्धि हुई है। यही वजह है कि पिछले कुछ वर्षों में लोकतांत्रिक संस्थाओं को कमजोर करने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने की सुनियोजित कोशिशें हो रही हैं। दरअसल भूमंडलीकरण के चलते सबसे बड़ा खतरा लोकतंत्र को ही है। इसके लिए सबसे खतरनाक हैं प्रेस और मीडिया के बड़े वर्ग का नव-उपनिवेशवादी बाजारवादी शक्तियों के साथ साँठ-गाँठ कर लेना, जो आम जनता को उनके हित से जुड़े वास्तविक मुद्दों और शोषण की हकीकत से दूर करके निष्क्रिय मनोरंजन और उपभोक्तावादी संस्कृति के मोहजाल में फंसाकर प्रतिरोध और क्रांति की चिंगारी को कुंद कर देने की कुटिल कोशिश में जुट गया है।
जिस समाज में आज हम रह रहे हैं वह समाज तमाम विशेषताओं तथा विभिन्नताओं को अपने में समेटे हुए है। आज की स्थिति में पहुंचने तक हमारा समाज विभिन्न प्रकार की प्रक्रियाओं से गुजरा है, जिसके पीछे तमाम सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक कारक रहे हैं। विकास की इन प्रक्रियाओं/जटिलताओं में समाज का कुछ हिस्सा सबसे आगे बढ़ गया और शेष सबसे पीछे रह गया, अर्थात् अमीर और अमीर, गरीब और गरीब; यह अन्तर स्पष्टतः दिखता है जो हमारे समाज में भी विकसित और अविकसित समुदायों के रूप में विराजमान है।
निजीकरण एवं अति-मुनाफावाद का ग्रहण
दुनिया को महज एक बाजार मानने के चलते आज हमारे समाज में निजीकरण की प्रवृत्ति तेजी के साथ बढ़ी है। निजीकरण समाज में पहले भी था परंतु उसका व्यावसायीकरण इस रूप में नहीं था जैसा कि आज दिखाई पड़ रहा है। बाजार में राज्य की भूमिका लगातार घटती जा रही है, उत्पादों की गुणवत्ता तथा मूल्य निर्धारण पर राज्य की भूमिका नगण्य सी होती जा रही है। बाजारी ताकतों ने जीने के मूल आधार- पीने के पानी, शिक्षा, स्वास्थ्य तक का निजीकरण एवं व्यावसायीकरण कर डाला है। अति-मुनाफा केन्द्रित अर्थव्यवस्था ने जीवन की दिक्कतों में और बढ़ोत्तरी की है। फलतः बेकारी, भुखमरी तथा अपराध बढ़े हैं। अति-मुनाफे की चाहत के चलते प्राकृतिक संपदाओं तथा वन संपदाओं के दोहन से पर्यावरण असंतुलन तथा प्रदूषण बढ़ा है, पानी तथा हवा तक सुरक्षित नहीं रही, अस्तु हमारा जीवन संकटग्रस्त है। सामाजिक समरसता के माध्यम- ताल-तलैया, झरने, कुएं; बाग-बगीचे, चरागाह, दुधारू जानवर, तालाबों की मछली, चौपाल लगना, सामूहिक गान, लोकगीत आदि प्रायः लुप्त हो चुके हैं, साथ ही सामूहिक विचार-विमर्श की प्रक्रिया भी लगभग समाप्त हो चुकी है। स्थिति की भयावहता का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि जंगल, झरनों और नदियों के बीच बसने वाला आदिवासी समाज आज पीने के स्वच्छ पानी को मोहताज है। गंगा और यमुना के उद्गम स्थल के वासी पानी के लिए तरसने लगे हैं। समुदाय के पास जो थोड़ी बहुत सामूहिक संपदा थी वह भी समाप्त हो गयी या दबंगों के कब्जे में है। औषधि के लिए इस्तेमाल होने वाली जड़ी-बूटियां नदारद हो चुकी हैं। आज भी जमीनों पर कुछ ही लोगों का कब्जा है तथा जो जमीन को जोतते-बोते हैं उनसे जमीनें दूर हैं। आज वे नदियां ही बेची जा रही हैं जिनकी हम पूजा करते थे।
यद्यपि भारतीय अर्थव्यवस्था फिलहाल विकास के जिस दौर में है उससें जमीनी परिणाम हासिल करने तथा पूरी चुस्ती और सख्ती से उन्हें अमल में उतारने की पहल लेने तथा पूरी ईमानदारी से उन्हें अमल में उतारने की जरूरत और गुंजाइश, दोनों मौजूद हैं।
भ्रष्टाचार एक चुनौती
सबसे जटिल सवाल यह है कि जनता की गाढ़ी कमाई पर घात लगाने वाले उन डकैतों से कैसे निबटा जाए जो सचिवालय में बैठे हैं या ख़ाकी वर्दी पहनकर अधिकारों का दुरूपयोग कर रहे हैं ? मुझे लगता है कि आज देश के सामने सबसे बड़ी समस्या भ्रष्टाचार की है। अगर गंभीरता से देखा जाए तो भ्रष्टाचार एक ऐसी कड़ी बनाता है जो सब समस्याओं को पिरोती है। जम्मू-कश्मीर और पूर्वोत्तर क्षेत्रों में भ्रष्टाचार एक विकराल रूप धारण कर चुका है। इन दोनों ही क्षेत्रों में ऐसे वर्ग हैं जो आतंकवाद से उत्पन्न परिस्थितियों का लाभ उठाकर अपनी जेबें भर रहे हैं। केंद्र सरकार आर्थिक विकास के लिए कश्मीर और पूर्वोत्तर में पानी की तरह पैसा बहा रही है। इस धनराशि का बहुत बड़ा भाग बेईमान नेताओं, भ्रष्ट अफसरों ओर बदनीयत ठेकेदारों के कोष में जा रहा है। दूसरे राज्यों में भ्ीा स्थिति बहुत अलग नहीं है।
गांव और प्रकृति
बात की जा रही है गांवों और प्रकृति पर संकट की, परंतु गांवों और शहरों में प्रकृति के साथ जो छेड़छाड़ का खेल खेला जा रहा है उस पर बिल्कुल ध्यान नहीं जा रहा है। केंद्र सरकार ने बाघ अभयारण्यों के निकट बसे डेढ़ हजार गांवों को हटाने का फैसला लिया है। सरकार इन गांव वालों का पुनर्वास करेगी और इस पर करीब चार हजार करोड़ रुपये खर्च करेगी। यहां विचारणीय है कि इससे पहिले जिन विभिन्न परियोजनाओं के नाम पर जिन गांवों को उजाड़ा गया है, उनकी आबादी को नए सिरे से बसाने के लिए वास्तव में क्या किया गया। उदाहरण के तौर पर हम नर्मदा परियोजना को ले सकते हैं। बस, फिर से वही खेल; पूर्व की भांति ही इन डेड़ हजार गांवों को उजाढ़ कर उनकी आबादी को नौकरशाही के रहमोकरम पर छोड़ दिया जाएगा।
कृषि क्षेत्र में व्यावसायिक पूंजी के प्रवेश के कारण बढ़ते दबाव को न झेल पाने और कृषि भूमि का औद्योगिक व व्यावसायिक संस्थानों की ओर से अधिग्रहण किसानों की दुर्दशा का मुख्य कारण बन रहा है।
इसी तरह नवीनतम रासायनिक खादों, बीजों, कीटनाशकों और यहां तक कि पौध प्रजातियों तक के मामले में कोई सावधानी भारत सरकार की ओर से नहीं बरती जाती है। इनसे किसानों का परिचय कराकर फिर सब कुछ भगवान भरोसे छोड़ दिया जाता है। यह तक सोचने की जरूरत नहीं समझी जाती है कि नई फसल प्रजाति भारतीय पारिस्थितिकी के अनुकूल भी होगी या यहां की प्रकृति को नुकसान पहुंचाएगी। यह काम किसानों का नहीं वैज्ञानिकों का है जो कि अपनी जिम्मेदारी का ठीक से निर्वाह नहीं कर रहे हैं।
कहीं हम अपनी स्वाधीनता को इस उल्लास से कि हम ‘‘मॉडर्न’’ हो गये हैं, भुनाने का प्रयास तो नहीं कर रहे हैं.......? आज हम स्वतंत्र जरूर हैं .... लेकिन स्वाधीन (स्व $ आधीन) नहीं हो पाये हैं। जिस स्वतंत्रता की बात बारंबार की जा रही है वो तो मात्र वैयक्तिक स्वतंत्रता से ज्यादा कुछ भी नहीं है। जबकि स्वाधीन होने का असली मतलब है कि हम देश की भलाई के निर्णय खुद ले सकें।
आज़ादी के 60 बरसों बाद भी हमारा एक वोट भले ही बन गया हो लेकिन हमारे जीवन को आज भी सही ‘आकलन (मूल्य)’ नहीं मिल पाया है। जाति आधारित भारतीय समाज की नैतिक बुनियाद और वहां बनाए जा रहे कानूनी विधान के बीच व्याप्त इसी अंतराल की ओर डॉ. अम्बेडकर ने संविधान सभा की आखिरी बैठक में दिये गये अपने भाषण में कहा था- ‘‘हम लोग अंतर्विरोधों की एक नयी दुनिया में प्रवेश कर रहे हैं। राजीनति में हम समान होंगे और सामाजिक आर्थिक जीवन में हम लोग असमानता का सामना करेंगे। राजनीति में हम एक व्यक्ति-एक वोट, और एक व्यक्ति-मूल्य के सिद्धांत को स्वीकार करेंगे, लेकिन हमारे सामाजिक-राजनीतिक जीवन में, हमारे मौजूदा सामाजिक आर्थिक ढांचे के चलते हम लोग एक व्यक्ति-एक मूल्य के सिद्धांत को हमेशा खारिज करेंगे। कितने दिनों तक हम अंतर्विरोधों का यह जीवन जी सकते हैं ?’’, जो बदलने का नाम ही नहीं ले रहा है।
अदालतें आदमी की आखिरी उम्मीद होती हैं, यह भारत के न्यायालयों में दर्ज़ करोड़ों मामलों से स्पष्ट है लेकिन इस उम्मीद के इतर सच्चाई कुछ और ही नजर आने लगी है। वकीलों ने इंसाफ दिलवाने के बजाय इंसाफ को पैसे कमाने के खेल में बदल डाला है। अक्सर यह भी देखने में आया है कि जांच एजेंसियां मजबूत आदमी का ही पक्ष लेती हैं। इससे स्पष्ट है कि आम आदमी न्याय के क्षेत्र में भी असहाय है। ऐसे में संविधान में सामाजिक-आर्थिक- राजनैतिक स्तर पर जिस न्याय की बात की गयी है वह मात्र छलावा लगती है। बावजूद इसके न्यायपालिका इस देश के लोकतंत्र की एक अहम कड़ी है। पिछले कुछ दिनों में कुछ खास मामलों में इस कड़ी ने उम्मीद की किरण बिखेरी है, यह शुभ संकेत है।
कई मरतबा लगता है कि राजनैतिक पक्ष कमजोर पड़ता जा रहा है और न्याय प्रक्रिया ज्यादा प्रभावी होती जा रही है। इससे कुछ उम्मीद जरूर जगती है, परन्तु न्यायिक पक्ष के निष्पक्ष रह पाने पर प्रश्नचिन्ह लगते रहे हैं। यह सत्य है कि जब लोकतंत्र के तीनों अंग (विधायिका-न्यायपालिका-कार्यपालिका) अपने-अपने क्षेत्र में निष्पक्ष रूप से काम करते हुए अपनी-अपनी भूमिका का ईमानदारी और सत्यनिष्ठा के साथ निर्वाह करेंगे तो लोकतंत्र भी ताकतवर होगा और तभी वे गरीब के झोपड़ों से लेकर सत्ता के महलों तक न्याय, स्वतन्त्रता, समानता की रक्षा करते हुए उनमें बन्धुत्व का भाव पैदा कर सकेंगे। लेकिन जिस लोकतंत्र में कुछ पक्ष कमजोर पड़ जायें और कुछ ज्यादा मजबूत हो जायें तो वहां असन्तुलन के चलते शार्ट सर्किट होने का ख़तरा बना रहता है।
आर्थिक उतार-चढ़ाव
भारतीय अर्थव्यवस्था को पिछले 60 बरस में इस मुकाम तक पहुंचने में अनेक उतार-चढ़ावों से गुजरना पड़ा। 1991 में उरारीकरण और आर्थिक सुधार नीति लागू होने के बाद भारत में बहुत तेजी से आर्थिक प्रगति हुई और भारत एक महाशक्ति के रूप में उभर रहा है। एक रिपोर्ट के अनुसार भारतीय अर्थव्यवस्था चीन के बाद दुनिया में सबसे आगे है। तेज आर्थिक विकास की रफ्तार के बावजूद भारत की 26 फीसदी आबादी आज भी गरीबी रेखा से नीचे गुजर-बसर कर रही है। आज भी भारत की 65 फीसदी आबादी खेती-किसानी पर निर्भर है। बहुराष्ट्रीय कंपनियां धडल्ले से हिन्दुस्तान में निवेश कर रही हैं। शायद इससे यहां के लोगों की आर्थिक स्थ्ािित कुछ सुधर सके। परन्तु नष्ट होते देशी कुटीर-लघु उद्योगों और खस्ताहाल हो चुके अथवा बन्द होने की कगार पर खड़े बड़े उद्योगों पर ध्यान न दिये जाने की वजह से यहां की बुनियादी अर्थव्यवस्था के डांवाडोल होने का खतरा पैदा होता जा रहा है जो निकट भविष्य में हिन्दुस्तान की सेहत के लिए फायदेमन्द नहीं होगा।
अल्पसंख्यकों की दशा-
कुछ मायनों में अल्पसंख्यकों की दशा में सुधार हुआ है, अलबत्ता आज भी अल्पवंख्यक कमोबेश वहीं खड़े हैं जहां पर आजादी और बंटवारे के समय थे। हुकूमतों की ओर से ज़बानी बयानों और कोरे सब्ज़बागों के सहारे वोटों की राजनीति के लिए इन्हें इस्तेमाल किया जाता रहा है, वरना उनकी निरन्तर उपेक्षा ही होती रही है, यह सिलसिला आज भी जारी है। अगर अल्पसंख्यकों को भी देश की मुख्यधारा में लाकर उनके साथ अन्य देशवासियों जैसा ही व्यवहार किया जाता तो वे इतनी खराब स्थिति में नहीं होते। साथ ही 1984 का सिखों का कत्लेआम, गोधराकाण्ड और बाबरी विध्वंस, ईसाई मिशनरियों पर हमले तथा विरोध और फिर हत्याएं जैसे जघन्य अपराध पराकाष्ठा की भेंट नहीं चढ़ते।
- अहिवरन सिंह, दिसंबर 2007
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