Tuesday, July 1, 2014

पानी के संकट से उबरना है तो जल प्रबंधन सीखिए

- अहिवरन सिंह, नामाबर अगस्त 2005


लगातार बढ़ती आबादी ने प्राकृतिक संसाधनों पर इतना दबाव डाल दिया है कि हमारे देश में पानी तक के लाले पड़ने लगे हैं। उधर अनजान विकास की अंधी दौड़ ने प्राकृतिक संपदा के अंधाधुंध दोहन पर तो ज़ोर दिया लेकिन इसकी भरपाई पर नहीं। नतीजा सामने है- पानी के लिए सिर फुटव्वल और सीनाजोरी। भूमंडलीकरण के झंडाबरदारों ने सुझाया कि संकट से उबरना है तो बाजारम् शरणं गच्छ। और हमने वही राह पकड़ ली। एक बार भी पलट कर अपने इतिहास पर नज़र नहीं डाली, उस इतिहास पर जिसमें जल प्रबंधन की पुख्ता परंपराएं और व्यवस्थाएं मौजूद हैं। इन्हीं परंपराओं पर रोशनी डालता है यह लेख। (संपादक).
प्रगति के झण्डाबरदार देश सिंचाई के लिए जल प्रबन्धन को बहुत ज्यादा महत्व देते हैं। सिंचाई के लिए नदियों, झरनों, तालाबों आदि के ढलानों पर अवरोध खड़ा करके वर्षा के जल को रोकते हैं, ताकि पहाड़ी क्षेत्रों की भूमि वर्षा के जल को अधिक से अधिक मात्रा में सोख सके। सनद रहे ! जिस तरह से भूमण्डल पर नदियों, झरनों, तालाबों, नालों आदि से जल राशि का बहाव होता है ठीक उसी तरह से पृथ्वी के अंदर भी यही क्रिया जारी रहती है। जितनी अधिक मात्रा में पृथ्वी के अंदरूनी हिस्सों में जल मौजूद होगा उसी अनुपात में पृथ्वी की ऊपरी सतह पर जल उपलब्ध कराया जा सकेगा। यदि वर्षा के जल में रूकावट पैदा करके वर्षा के जल को सोखने के लिए इकट्ठा नहीं किया जाय तो वह नदियों, झरनों आदि के माध्यम से बहकर समुद्र में विलीन हो जाता है और पहाड़ी क्षेत्र की भूमि उसको अधिक मात्रा में सोख नहीं पाती है। इसके परिणाम काफी घातक हो सकते हैं। भारत जैसे कृषि प्रधान देश, जहां पर खेती मुख्यतः सिंचाई पर आधारित हो वहां अंदरूनी पानी की बहुतायत में मौजूदगी अति आवश्यक हो जाती है। पहाड़ी भूमि वर्षा जल को अधिक से अधिक मात्रा में सोख कर वर्ष भर मैदानी क्षेत्रों को जल उपलब्ध कराने में बहुत बड़ी भूमिका अदा करती है। मैदानी क्षेत्रों में जो जल सिंचाई के लिए नलकूपों के माध्यम से उपयोग में लाया जाता है उसकी निर्भरता बहुत कुछ पहाड़ी क्षेत्रों से अंदरूनी रूप में बह रहे जल स्रोतों पर निर्भर करती है। यही कारण है कि जब पहाड़ी और मैदानी जमीन के अंदर पानी का स्तर नीचे गिरता है और बरसात उचित मात्रा में नहीं होती तो तमाम नलकूपों से सिंचाई और पीने के लिए पानी निकालना मुश्किल हो जाता है, क्योंकि पानी का स्तर इतना नीचे गिर चुका होता है कि नलकूप की पहुंच वहां तक नहीं रह पाती है।
भारत जैसे विशाल देश में, जहां कृषि लगभग 70 प्रतिशत लोगों की जीविका का मुख्य आधार हो वहां सिंचाई सुविधा मुहैया कराना सरकार की मुख्य जिम्मेदारी हो जाती है। प्रागैतिहासिक काल में भी पीने के पानी और सिंचाई के लिए पानी को लेकर होने वाले झगड़ों की चर्चा इतिहास एवं इतिहास से इतर साहित्य में मौजूद है। इतिहास से हमें यह भी जानकारी मिलती है कि प्राचीनकाल में पानी के प्राकृतिक भण्डार ही पीने और सिंचाई आदि के मुख्य स्रोत थे। पानी के उपलब्ध स्रोतों को विकसित कराकर अपने राज्य की जनता को बेहतर सुविधा प्रदान कराना राजा का एक मुख्य काम होता था और उस राज्य की सम्पन्नता बहुत कुछ निर्भर करती थी राज्य के कुशल जल प्रबन्धन पर।
सृष्टिकाल से ही प्रकृति ने जल भण्डार उपहार स्वरूप यहां-वहा उपलब्ध करा रखे हैं। उपलब्ध आंकड़े बताते हैं कि पृथ्वी के दो-तिहाई हिस्से में पानी और एक हिस्से में ही भूमण्डल है। जैसे-जैसे सभ्यताओं का विकास होता गया वैसे-वैसे लोगों ने अपनी कुशाग्र बुद्धि का सदुपयोग कर उसका समुचित प्रबन्धन कर उसका फायदा उठाया। शुरू-शुरू में पीने के लिए पानी का प्रबन्धन किया गया। तत्पश्चात् जब आबादी बढ़ने लगी और सुख-सुविधाओं में रहने की ओर उसका ध्यान गया तो आवश्यकता महसूस की गयी व्यवस्थित प्रबन्धन की। आबादी बढ़ने एवं सुविधा सम्पन्न जीवन जीने की ललक ने ही लोगों को मजबूर किया तीव्र विकास के लिए। जल प्रबन्धन भी इस तीव्र विकास का ही एक मुख्य हिस्सा है और बहुत कुछ निर्भर करता है कुशल जल प्रबन्धन पर; फिर चाहे वह पीने के लिए किया जाए अथवा सिंचाई, सफाई आदि के लिए।
भौगोलिक बनावट और अपनी ज़रूरत के आधार पर समय-समय पर लोग पीने और सिंचाई के लिए पानी का प्रबन्धन करते रहे हैं। इसी तरह के एक जल प्रबन्धन को सन् 1800 में अपनी भारत यात्रा के दौरान डॉ. फ्रांसिस बुकानन हैमिल्टन ने मद्रास के निकट एक विशाल जलाशय के रूप में देखा, जिसका प्रबन्धन सिंचाई की दृष्टि से दो पठारीय भू-भागों के बीच की खुली हुई जगह पर एक कृत्रिम तटबन्ध के ज़रिए किया गया था। यह जलाशय करीब 8 मील लम्बा और 3 मील चौड़ा था। इससे सिंचाई के लिए बहुत सारी नहरें निकाली गयी थीं, जिनसे जलाशय के आस-पास के करीब 32 गांवों की सिंचाई की जाती थी। एक यही नहीं दक्षिण भारत में इस तरह के तमाम जलाशय मौजूद थे। सिंचाई की दृष्टि से ही मुगलकाल में भारत में पूर्व यमुना नहर और पश्चिम यमुना नहर का निर्माण कराया गया। उचित प्रबन्धन न होने के कारण अठारहवीं सदी तक वे काम लायक नहीं रह गयी थीं। अठारहवीं सदी में बेयर्ड स्मिथ ने 5 मील लंबी नहर का निर्माण 10 लाख पौंड से करवाया। इस नहर की 450 मील तक के क्षेत्र को सिंचित करने की क्षमता थी।
इसी तरह उत्तर भारत में भी ऊपरी गंग नहर और निचली गंग नहर का निर्माण करवाया गया। और भी तमाम नदियों और जलाशयों से सिंचाई के लिए नहरों का निर्माण करवाया गया। नदियों से नहरें निकाल कर सिंचाई और पीने के पानी की व्यवस्था करना या फिर नलकूपों के माध्यम से सिंचाई और पीने के पानी की व्यवस्था मुहैया करवाने से पहले नदियां, तालाब, झील और पोखर ही पीने के पानी और सिंचाई के मुख्य साधन हुआ करते थे।
एक समय था जब दिल्ली में 350 छोटे-बड़े तालाब मौजूद थे। उन दिनों दिल्ली जल प्रबन्धन के मामले में लगभग आत्मनिर्भर थी। कहीं भी किसी नये गांव के बसने, कस्बा या शहर की आबादी में इजाफा होने की स्थिति में तालाबों का निर्माण जरूर करवाया जाता था। किसी बड़ी खुशी या गम के मौके पर भी तालाब बनाने का रिवाज था। तालाब बनवाना सबसे ज्यादा पुण्य का काम माना जाता था।
5वीं सदी से लेकर 15वीं सदी, करीब एक हजार वर्ष तक तालाबों/जलाशयों का निर्माण अबाध गति से जारी रहा। 16वीं सदी में अंग्रेजों के आगमन और उनके इस देश की नीतियों के नियन्ता बन जाने पर तालाब के निर्माण और रखरखाव के काम में रुकावटें आनी शुरू हो गयीं। अंग्रेजों ने अपने शासन काल की शुरूआत के साथ ही बड़े-बड़े शहरों की हौज, कुंएं और तालाब आधारित जल प्रबन्धन व्यवस्था की जगह टोंटी प्रथा की शुरूआत कर दी। टोंटी प्रथा से हौजों, कुआंे और तालाबों या जल के अन्य स्रोतों को भारी धक्का लगा और धीरे-धीरे आत्मनिर्भर जल प्रबन्धन आस-पास के गांव, कस्बों से चुराकर पानी मुहैया कराने पर निर्भर हो गया। इतना ही नहीं अंग्रेजों ने तालाबों, हौजों और कुओं के रखरखाव पर होने वाले खर्च में भारी कटौती की। इससे शहरों ही नहीं गांवों की जल प्रबन्धन व्यवस्था चरमरा गयी। धीरे-धीरे हमारे प्राकृतिक स्रोत, जो साल भर हमें पानी मुहैया कराते थे, सूखने और समाप्त होने लगे।
जल पंपों के माध्यम से जमीन के अंदर से अंधाधुंध पानी निकालने, प्राकृतिक जल स्रोतों तालाब, झरनों आदि के सूखने से जल प्रबन्धन की समस्या तो बढ़ी ही है साथ ही जल स्तर में भी गिरावट आई है जिसकी वजह से अनेक क्षेत्रों में कुओं और जल पंपों ने काम करना बन्द कर दिया है। कहा जाता है कि तालाब और पेड़ का साथ रहा है, एक के नष्ट होते ही दूसरा स्वतः ही नष्ट हो जाता है। पेड़ों की अंधाधुंध कटाई के कारण भी प्राकृतिक जल स्रोत विलुप्त होते जा रहे हैं।
देश के कुछ हिस्सों में, जहां तालाब, झरनें आदि प्राकृतिक जल स्रोतों को जिंदा रखा गया है, वे क्षेत्र आज भी जल प्रबन्धन के मामले में आत्मनिर्भर है। राजस्थान के 11 जिलों- जैसलमेर, बाड़मेर, पाली, बीकानेर, चुरू, श्रीगंगानगर, झुंझनू, जालौर, नागोर और सीकर में मरूस्थल का विस्तार मिलता है लेकिन सघन मरूस्थल बीकानेर, बाड़मेर और जैसलमेर में पाया जाता है जहां देश की सबसे कम वर्षा होती है, सबसे ज्यादा गर्मी पड़ती है, रेत की तेज आंधियां चलती हैं और ‘पंख’ लगाकर  यहां से वहां उड़ने वाले रेत के टीले हैं। इन तीनों जिलों में पानी का सबसे ज्यादा अभाव होना चाहिए था क्योंकि यह सबसे कम वर्षा का क्षेत्र तो है ही साथ ही इस क्षेत्र में साल भर बहने वाली कोई नदी भी नहीं है। लेकिन यहां के गांवों में पानी का प्रबन्धन शत-प्रतिशत है। आज भी, जब देश के अनेक क्षेत्रों में पानी के प्रबन्धन के खतरे पैदा होने लगे हैं, ऐसी दशा में भी इन तीनों जिलों के गांव पानी प्रबन्धन के मामले में आत्मनिर्भर हैं। यह जल प्रबन्धन सरकारी बिना पर उपलब्ध कराया गया हो, ऐसा बिल्कुल नहीं है। इन गांवों के लोगों में पानी प्रबन्धन के प्रति गजब का समर्पण भाव ही आज भी जल प्रबन्धन को बरकरार रखे हुए है। तालाब बनाने के लिए उचित निचली और साफ-सफाई वाली भूमि का चयन हो जाने पर तालाब खुदाई का काम शुरू हो जाता था। फावड़ों के माध्यम से तालाब का सारा चित्र जमीन पर उतार लिया जाता था। सभी कम से कम पांच-पांच परांत मिट्टी खोद कर पार (पाल) पर पहुंचाना अपना कर्तव्य और पुण्य समझते थे। तत्पश्चात् दिनभर के श्रमदान के लिए लोग जुट जाते थे, क्योंकि वे यह बात अच्छी तरह समझते थे कि जिस काम को वे अंजाम देने जा रहे हैं वह किसी और के लिए नहीं बल्कि अपने लिए ही कर रहे हैं। इस तरह सैकड़ों हाथ मिट्टी काटते जाते, और तालाब अपनी आकृति में ढलता जाता। काम अमानी पर होता था, यानी कि सब लोग एक साथ आते और एक साथ ही काम से वापस लौटते। खुदाई का काम पूरा होने और पार आदि के बन जाने पर पहले झले (फुहार) के साथ लोग पुनः लाठी, कुदाल, फावड़े, बांस आदि लेकर पार में हुए छेद और दरारों को भरते। इस तरह तालाब का काम पूरा होता था। रखरखाव के हिसाब से हर महीने की अमावस और पूर्णिमा को लोग तालाब की देखरेख करने में अपना समय और श्रम देना पुण्य मानते थे। देखरेख पर होने वाले खर्च की पूर्ति की दृष्टि से गांव की टोली घर-घर से सामर्थ्य के अनुसार धन-धान्य इकट्ठा करती, जिसका उपयोग तालाबों के रखरखाव पर किया जाता था। इसी बिना पर राजस्थान में आज भी ज्यादातर गांवों में तालाबों का प्रबन्धन गांव वाले स्वयं संभाले हुए हैं।
मध्य प्रदेश के रीवा जिले के जोड़ौरी गांव की आबादी मात्र 2400 है लेकिन इस गांव में 12 तालाब हैं। इसी के पास ताल मुकेदान गांव की 1500 की आबादी पर 10 तालाब हैं। यानी कि हर 150 की आबादी पर  एक अच्छे तालाब की सुविधा आज भी है।
खोज, विस्तार, विकास, आरामदेह ज़िंदगी जीने, आधुनिकता की अंधी दौड़ आदि के चलते आवश्यकताओं/इच्छाओं की पूर्ति करने के लिए संसाधनों का बेतहाशा दोहन किया जा रहा है। प्राकृतिक माध्यमों को समाप्त कर कृत्रिम साधनों पर ज्यादा जोर दिया जा रहा है। इसी वजह से अन्य सभी के साथ-साथ पानी की समस्या भी बढ़ती जा रही है। भूमिगत जल का स्तर निरन्तर गिरता जा रहा है। वर्षा की अनियमितता में भी हर साल बढ़ोत्तरी हो रही है जिसका असर कृषि फसलों पर पड़ रहा है। भूमि एवं कृषि विस्तार की वजह से झील, झरनें, तालाब, पोखर आदि बड़ी रफ्तार से समाप्त हुए हैं। इसका सीधा असर संपूर्ण जलप्रबन्धन व्यवस्था पर पड़ा है। नदियों का स्वरूप भी बदला है। जो नदियां पहले साल भर बड़ी जलराशि के साथ प्रवाहित रहती थीं उनमें से ज्यादातर ने आज एक गन्दे नाले की शक्ल अख्तियार कर ली है। शहरीकरण बढ़ रहा है। गांवों की अनदेखी की जा रही है। प्राकृतिक जल संसाधनों को बचाये रखने अथवा वे जल संसाधन जो किन्हीं कारणोंवश सूख गये हैं, उनके विकास एवं विस्तार पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है। वैसे भी प्राकृतिक संसाधन समाप्त होते जा रहे हैं, जो कि जल स्तर के गिरने की कहानी साफ-साफ बयां कर रहे हैं। पानी सिंचाई की दृष्टि से ही नहीं वरन् पीने की दृष्टि से भी घट रहा है। दोनों ही तरह से पानी की किल्लत बढ़ती जा रही है।
प्राकृतिक जल संसाधनों (तालाब, झरनों आदि) का विकास, और विस्तार करके तथा नये जल संसाधनों का विस्तार करके इस समस्या से निजात पाई जा सकती है। इसके लिए खासकर ग्रामीण लोगों की सोयी पड़ी प्रतिभा को जगाकर, उन्हें मामूली सा प्रशिक्षित करके यह काम आसानी से किया जा सकता है। साथ ही लौटना होगा हमें अपने पुराने प्राकृतिक जल स्रोतों को पुष्ट करने की परंपरा पर। लोगों में भरनी होगी प्रशासनिक आत्मनिर्भरता की बजाय ‘श्रमदान महादान’ की भावना। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि सरकार जल प्रबन्धन की जिम्मेदारी से मुक्त हो जाएगी। सरकार और जन दोनों को मिल कर साझी जिम्मेदारी निभानी होगी, तभी निजात मिल सकेगी जल समस्या से।

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